राम अपनी माता कौशल्या के पास पहुँचे। उनके अनुज लक्ष्मण भी वहीं थे। माता का चरणस्पर्श करने के पश्चात् उन्होंने कहा, "हे माता! माता कैकेयी द्वारा माँगे गये दो वर देकर पिताजी ने मुझे चौदह वर्ष का वनवास और भाई भरत को अयोध्या का राज्य दिया है। मैं वन के लिये निकल रहा हूँ। आप मुझे आशीर्वाद दे कर विदा कीजिये।" राम के हृदय विदारक इन शब्दों को सुनकर कौशल्या मूर्छित हो गईं। राम ने उन्हें उठाकर उनका यथोचित उपचार किया। मूर्छा भंग होने पर वे विलाप करने लगीँ।
माता कौशल्या को विलाप करते देख कर लक्ष्मण बोले, "माता! मेरी समझ में नहीं आता कि गुरुजनों का सदा सम्मान करने वाले, उनकी आज्ञा का पालन करने वाले मेरे देवता समान भाई को किस अपराध में यह दण्ड दिया गया है? ऐसा प्रतीत होता है कि वृद्धावस्था के कारण पिताजी की बुद्धि भ्रष्ट हो गई है। राम को उनकी इस अनुचित आज्ञा का पालन नहीं करना चाहिये। वे निष्कंटक राज्य करें। जो भी उनके विरुद्ध सिर उठायेगा, मैं उसे तत्काल कुचल दूँगा। राम की नम्रता और सहनशीलता ही आज उनका अपराध बन गई है। मैं आज आपके सामने प्रतिज्ञा करता हूँ कि राम के राजा बनने में भरत या उनके पक्षपाती यदि कोई बाधा खड़ी करेंगे तो मैं उन्हें उसी क्षण यमलोक भेज दूँगा। मैं आपको यह आश्वासन देता हूँ कि आपके दुःखों को इस प्रकार दूर कर दूँगा जैसे सूर्य अन्धकार को मिटा देता है।"
लक्ष्मण के वचनों से सहारा पाकर कौशल्या ने कहा, "राम! तुम अपने छोटे भाई लक्ष्मण की बातों पर गौर करके और मुझे इस प्रकार बिलखता छोड़कर वन के लिये प्रस्थान न करो। यदि पिता की आज्ञा का पालन करना धर्म है तो माता की आज्ञा न मानना भी तो अधर्म है। मैं तुम्हें आज्ञा देती हूँ कि तुम वन न जाकर अयोध्या में ही रहकर मेरी सेवा करो।" राम माता को धैर्य बँधाते हुये बोले, "माता! आज तुम यह दुर्बल प्राणियों कैसी बातें क्यों कर रही हो? तुमने मुझे सदा से ही पिता की आज्ञा का पालन करने की शिक्षा दी है। आज मेरी सुख सुविधा के लिये अपनी ही दी हुई शिक्षा को झुठला रही हो। और फिर पत्नी के नाते तुम्हारा भी यह कर्तव्य है कि तुम अपने पति की इच्छा के सामने बाधा बनकर खड़ी न हो। माता चाहे सूर्य, चन्द्र और पृथ्वी अपने अटल नियमों से टल जायें, पर यह कदापि सम्भव नहीं है कि राम पिता की आज्ञा का उल्लंघन कर जाये। इसलिये तुम प्रसन्न होकर मुझे वन जाने की आज्ञा प्रदान करो ताकि मुझे यह सन्तोष रहे कि मैंने माता और पिता दोनों ही की आज्ञा का पालन किया है।" फिर वे लक्ष्मण को सम्बोधित करते हुये बोले, "लक्ष्मण! मुझे तुम्हारे साहस, पराक्रम, शौर्य और वीरता पर गर्व है। तुम मुझसे अत्यंत स्नेह करते हो किन्तु सबसे ऊपर स्थान धर्म का है। मैं पिता की आज्ञा की अवहेलना करके पाप, नरक और अपयश का भागी नहीं बनना चाहता। इसलिये हे भाई! तुम क्रोध और क्षोभ का परित्याग करो और मेरे वन गमन में किसी प्रकार की बाधा खड़ी मत करो।"
अपने पुत्र राम का यह दृढ़ निश्चय देखकर नेत्रों में भरे आँसुओं को पोंछती हुई कौशल्या बोलीं, "वत्स! तुम्हें वन जाने की आज्ञा देते हुये मेरा कलेजा मुँह को आता है। यदि तुम्हें वन जाना ही है तो मुझे भी अपने साथ ले चलो।" माता की बात सुनकर राम ने संयमपूर्वक कहा, "माता! पिताजी इस समय अत्यन्त दुःखी हैं और उन्हें प्रेमपूर्ण सहारे की आवश्यकता है। ऐसे समय में यदि आप भी उन्हें छोड़ कर चली जायेंगी तो आप विश्वास कीजिये, उनकी मृत्यु में कोई सन्देह नहीं रह जायेगा। इसलिये इस समय उन्हें मृत्यु के मुख में छोड़कर आप पाप की भागी न बनें। जब तक महाराज जीवित हैं, तब तक उनकी सेवा करना आपका पवित्र कर्तव्य है। इस लिये आप मोह को त्याग कर मुझे वन जाने की अनुमति दें। चौदह वर्ष की अवधि बीतते ही मैं लौटकर आपके दर्शन करूँगा। आप मुझे सहर्ष विदा करें।"
धर्मपरायण पुत्र के तर्कसंगत वचनों को सुनकर माता कौशल्या ने आर्द्रनेत्रों से कहा, "अच्छा पुत्र! तुम वन को जाओं परमात्मा तुम्हारा मंगल करें।" माता ने तत्काल ब्राह्मणों से हवन करा कर हृदय से आशीर्वाद देते हुये राम को विदा किया।