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Indian Spirituality => Stories from Ancient India => Topic started by: JR on February 13, 2007, 01:15:24 AM
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पिता के अन्तिम दर्शन
सुमन्त ने राजा दशरथ के कक्ष में जाकर देखा, महाराज भावी पुत्र-वियोग की आशंका से जल-विहीन मछली की भाँति तड़प रहे थे। उन्होंने दोनों हाथ जोड़ कर निवेदन किया, "कृपानिधान! आपके ज्येष्ठ पुत्र धर्मात्मा राम, सीता और लक्ष्मण के साथ आपके दर्शनों की अभिलाषा लिये द्वार पर खड़े हैं। वे तीनों अपना सर्वस्व दान करके माताओं एवं अन्य बन्धु-बान्धवों के पास होते हुये अब आपके दर्शन के लिये पधारे हैं। आज्ञा हो तो उन्हें अन्दर लिवा लाऊँ।" सुमन्त की बात सुनकर महाराज दशरथ ने धैर्य धारण करते हुये कहा, "मन्त्रिवर! राम के अन्दर आने से पहले आप सब रानियों एवं सम्बंधियों को यहाँ बुला लाओ। अब तो निश्चित है कि राम वन को जायेंगे ही। साथ ही यह बात भी पूर्णतया निश्चित है कि राम के जाने पर मेरी मृत्यु भी अवश्य ही होगी। इस लिये मैं चाहता हूँ कि इस प्रयाण बेला में मेरा सारा परिवार यहाँ उपस्थित रहे। ये दोनों महान घटनायें सबके सम्मुख घटित हों।" महाराज की आज्ञा से जब अन्तःपुर की समस्त रानियाँ एवां अन्य स्त्रियाँ वहाँ आ गईं तो उन्होंने राम आदि को भी बुला भेजा।
पिता और माताओं को वहाँ एकत्रित देख राम दोनों हाथ जोड़े हुये उनकी ओर बढ़े। इस प्रकार राम को अपनी ओर आता देख महाराज उन्हें हृदय से लगाने के लिये अपने आसन से उठ खड़े हुये। ज्योंही उन्होंने एक पग आगे बढ़ाया कि अत्यन्त शोक के कारण दुर्बल होने से वे वहीं मूर्छा खाकर गिर पड़े। राम और लक्ष्मण ने तत्काल दौड़ कर उन्हें उठाया और सहारा देकर पलंग पर लिटा दिया। महाराज दशरथ की मूर्छा भंग होने पर राम अत्यन्त विनीत वाणी से बोले, "पिताजी, आप ही हम सबके स्वामी हैं। आप धैर्य धारण करें और कृपा करके हम तीनों को आशीर्वाद दें कि हम चौदह वर्ष की अवधि वन में बिताकर फिर आपके दर्शन करें।"
महाराज दशरथ ने आर्द्र वाणी में कहा, "वत्स! मेरी हार्दिक इच्छा न होते हुये भी मैं तुम्हें वनों में भटकने के लिये भेज रहा हूँ। इस समय मैं इससे अधिक क्या कह सकता हूँ कि जाओ, तुम्हारा मार्ग कल्याणकारी हो। भगवान सदैव तुम्हारी रक्षा करें। आशा न होते हुये भी मैं परमात्मा से प्रार्थना करता हूँ कि वापस लौटने पर तुम्हारा मुख देख सकूँ।"
गुरु वशिष्ठ, महामन्त्री सुमन्त आदि वहाँ उपस्थित सभी लोगों ने एक बार फिर से कैकेयी को अपना वर वापस ले लेने के लिये समझाने का प्रयास किया पर कैकेयी अपने इरादों से टस से मस न हुई।
महाराज दथरथ राम के साथ चतुरंगिणी सेना और अन्न-धन का कोष भेजने की व्यस्था करना चाहते थे किन्तु राम ने विनयपूर्वक इसे अस्वीकार कर दिया। अन्त में महाराज सुमन्त से बोले, "हे मन्त्रिवर! उत्तम घोड़ों से जुता हुआ रथ ले आओ और इन सबको देश की सीमा से बाहर छोड़ आओ।" इतना कह कर राजा फूट-फूट कर रोने लगे। उधर सुमन्त महाराज की आज्ञा से रथ लेने के लिये राजप्रासाद से चल पड़े।