DwarkaMai - Sai Baba Forum
Indian Spirituality => Stories from Ancient India => Topic started by: JR on February 13, 2007, 01:18:14 AM
-
रथ के पीछे आती प्रजाजनों की भीड़ को देखकर राम ने रथ रुकवाया और प्रजाजनों को सम्बोधित करते हुये कहा, "मेरे प्यारे अयोध्यावासियों! तुम लोग जो मुझे बार-बार अयोध्या लौट चलने का आग्रह कर रहे हो, उसका एकमात्र कारण तुम लोगों का मेरे प्रति अटूट और निश्छल प्रेम है जिसे टालना अत्यन्त कठिन है। किन्तु तुम जानते हो कि मैं इस विषय में पूर्णतया विवश हूँ। तुम लोग कदापि नहीं चाहोगे कि मैं पिता की आज्ञा भंग कर दूँ और पाप का भागी बनूँ। तुम लोगों के लिये यही उचित है कि मुझे प्रेमपूर्वक वन के लिये विदा करो और भरत को राजा मानकर उसके निर्देशों का पालन करो।" राम ने और भी कई प्रकार से प्रजाजनों को समझा-बुझा कर सुमन्त को रथ चलाने के लिये कहा।
रथ के चलते ही प्रजाजन भी रोते-बिलखते रथ के पीछे चलने लगे। वे राम के द्वारा दिये गये उपदेशों और निर्देशों को क्रियान्वित तो करना चाहते थे किन्तु राम-लक्ष्मण के प्रेम की डोर में इस प्रकार बँधे थे कि बरबस रथ के पीछे चले जा रहे थे। उनका मस्तिष्क उन्हें लौटने के लिये प्रेरित कर रहा था, परन्तु हृदय उन्हें बलात् रथ के साथ घसीटे लिये जा रहा था। इस प्रकार भावनाओं में बहते हुये वे रथ के पीछे दौड़े जा रहे थे। राम ने सुमन्त से रथ को और तेज चलाने का आग्रह किया और रथ की गति तेज हो गई।
तमसा नदी के तट पर पहुँचते-पहुँचते रथ के घोड़े भी विश्राम चाहने लगे थे, इसलिये मन्त्री सुमन्त ने रथ वहीं रोक दिया। राम, सीता और लक्ष्मण तीनों रथ से उतर आये। थोड़ी देर वे तमसा के तट पर खड़े होकर उसमें उठने गिरने वाली लहरों का आनन्द लेते रहे। इतने में ही वे सहस्त्रों अयोध्यावासी वहाँ आ पहुँचे जो रोते-बिलखते रथ के पीछे चले आ रहे थे, कन्तु रथ की गति के साथ न चल सके थे। वे चारों ओर से इन तीनों को घेर कर बैठ गये और नाना प्रकार के भावुकतापूर्ण तर्क देकर उनसे अयोध्या लौट चलने का आग्रह करने लगे। पहले तो रामचन्द्र ने उन्हें अनेक प्रकार से धैर्य बँधाया। जब वे कुछ शान्त हुये तो उन्होंने प्रजाजनों को प्रेमपूर्वक समझाया कि उन सभी को वापस लौट जाना चाहिये। राम तथा प्रजाजनों के संवाद के चलते-चलते रात्रि गहरी होने लगी। तब दिन भर की भूख प्यास और लम्बी यात्रा की थकान से आक्रान्त हुये अयोध्यावासी वहीं वन के वृक्षों के कन्द-मूल-फल खाकर भूमि पर सो गये। प्रातः हो गई किन्तु थके हुये अयोध्यावासियों की नींद नहीं टूटी।
उधर ब्राह्म-मुहूर्त में रामचन्द्र उठकर लक्ष्मण से बोले, "भैया! हमारे प्रेम के वशीभूत इन प्रजाजनों का यह त्यागपूर्ण कष्ट मुझसे नहीं देखा जाता। उचित यही है कि हम लोग चुपचाप यहाँ से निकल पड़ें। इस लिये हे लक्ष्मण! तुम शीघ्र जाकर सारथी से तत्काल रथ तैयार करवा लो। ध्यान रखना कि किसी प्रकार की आहट न हो वरना ये जाग कर फिर हमारे साथ हो लेंगे।" राम की आज्ञा पाकर लक्ष्मण ने रथ को थोड़ी दूर पर एक निर्जन स्थान में खड़ा करवा दिया। फिर तीनों धीरे-धीरे रथ के पास पहुँचे और उसमें सवार होकर तपोवन की ओर चल दिये। पुरवासियों को आभास तक नहीं मिला।
निद्रा भंग होने पर वे सब उन्हें ढूँढने लगे। बहुत दूर तक रथ की लीक के पीछे-पीछे तक गये। किन्तु आगे का मार्ग कँकरीला-पथरीला होने के कारण रथ के लीक के चिह्न दिखाई देना बन्द हो गया। लाख प्रयत्न करने पर भी जब वे रथ के मार्ग का अनुसरण न कर सके तो विलाप करते हुये निराश मन से अयोध्या के लिये लौट पड़े।