सूर्योदय के पश्चात् सन्ध्या-उपासना आदि से निवृत होकर राम ने लक्ष्मण तथा सीता के साथ चित्रकूट के लिये प्रस्थान किया। चलते-चलते वे उस स्थान पर पहुँचे जहाँ से यमुना नदी को पार करके चित्रकूट पर्वत की ओर मार्ग जाता था। उस समय यमुना अपने पूर्ण यौवन पर थी। उसकी गम्भीर जलधारा कल-कल करके बही जा रही थी। सीता मन मे आतंकित होकर विचार करने लगी, इस गम्भीर जलधारा को मैं कैसे पार कर सकूँगी। निकट में कोई नौका आदि भी दिखाई नहीं देती।
उधर यमुना की उत्ताल तरंगें एक दूसरे से आकाश को स्पर्श करने की होड़ लगा रही थीं। इस स्थिति पर थोड़ी देर तक राम और लक्ष्मण ने परस्पर विचार विमर्श किया। इसके पश्चात् लक्ष्मण वन में से कुछ बाँस, लकड़ी और लताएँ तोड़ लाये। फिर उन्होंने बाँस और लकड़ियों को लताओं से बाँधकर एक काम चलाऊ नौका बनाई। उस पर सीता के बैठने के लिये एक आसन का भी निर्माण किया। नौका को यमुना के वेगपूर्ण जल में उतारा गया। रामचन्द्र ने सीता को भुजाओं में उठाकर उस नाव में बिठाया। फिर अपने तथा लक्ष्मण के वक्कल नौका पर रख दिया। उसके पश्चात् चोनों भाई स्वयं तैर कर नाव को आगे धकेलते हुये बढ़े। जब नाव मँझधार में पहुँची और वेगवती लहरों के झकोरों से ऊपर नीचे होने लगी तो जानकी आकाश की ओर देख कर परमात्मा से प्रार्थना करने लगी, "हे परमपिता परमात्मा! मैं यह व्रत लेती हूँ कि जब हम कुशलपूर्वक वनवास की अवधि समाप्त करके लौटेंगे तो मैं यहाँ यज्ञ करूँगी।
मँझधार की बाधाओं को पार कर नाव यमुना के दूसरे किनारे पर कुशलपूर्वक पहुँच गई। उसे यमुना के तट पर ही छोड़ कर ये तीनों एक सघन श्यामवट वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगे। थोड़ी देर विश्राम करने के पश्चात् दोनों राजकुमार सीता के साथ गहन वनों में विचरण करते हुये ऐसे स्थान पर पहुँचे जहाँ मयूर अपनी मधुर ध्वनि से सम्पूर्ण वातावरण को आह्लादित कर रहे थे। वृक्षों की शाखाओं पर चंचल वानर इधर उधर अपने यूथ बनाये भ्रमण कर रहे थे। चलते चलते भगवान सूर्य भी अस्ताचल के द्वार पर जा पहुँचे थे। लालिमा से युक्त भगवान भास्कर अपनी रक्तिम किरणों से विटपों की चोटियों को स्वर्ण से मँढ़ रहे थे। सीता के देखते-देखते सूर्यदेव ने अपनी किरणों को समेट लिया और चारों ओर अंधकार के व्याप्त होने की सूचना मिलने लगी। सीता के आग्रह पर राम ने आगे की यात्रा स्थगित कर वहीं विश्राम करने का निर्णय किया। वह अति मनोरम स्थान यमुना नदी के समतल तट पर था। सबने उसमें स्नान करके उसी के तट पर सन्ध्योपासना की। फिर लक्ष्मण ने राम और सीता के लिये तृण की शैयाओं का निर्माण किया जिस पर सोकर उन्होंने रात व्यतीत की।