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Indian Spirituality => Stories from Ancient India => Topic started by: JR on February 13, 2007, 01:23:07 AM
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प्रातःकाल उषा की लाली ने जब आकाश को रक्तिम करना आरम्भ किया तभी राम, सीता और लक्ष्मण नित्य कर्मों से निवृत होकर चित्रकूट पर्वत की ओर चल पड़े। जब दूर से राम ने चित्रकूट के गगनचुम्बी शिखर को देखा तो वे सीता से बोले, "हे मृगलोचनी! तनिक इन फूले हुये पलाशों को देखो जो जलते हुये अंगारों की भाँति सम्पूर्ण वन को जगमगा रहे हैं और ऐसा प्रतीत होता है मानो फूलों की माला लेकर हमारा स्वागत कर रहे हैं। और इन भल्लातक तथा विल्व के वृक्षों को देखो जिन्हें आज तक किसी भी मनुष्य ने स्पर्श नहीं किया है। इधर देखो लक्ष्मण! इन वृक्षों में मधुमक्खियों ने कितने बड़े-बड़े छत्ते बना लिये हैं। वायु के झकोरों से गिरे हुये इन पुष्पों ने सम्पूर्ण पृथ्वी को इस प्रकार आच्छादित कर दिया है मानो उस पर पुष्पों की शैया बनाई गई है। आमने सामने खड़े वृक्षों पर बैठे तीतर अपनी मनमोहक ध्वनि से हमें अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं। मेरे विचार से चित्रकूट का यह रमणीक स्थान हम लोगों के निवास के लिये सब प्रकार से योग्य है। हमें यहीं अपनी कुटिया बनानी चाहिये। इस विषय में तुम्हारा क्या विचार है, मुझसे निःसंकोच होकर कहो। जैसा तुम कहोगे, मैं वैसा ही करूँगा।"
राम के सुझाव का समर्थन करते हुये लक्ष्मण ने कहा, "प्रभो! मेरे विचार से भी यह स्थान हम लोगों के रहने के लिये सब प्रकार से योग्य है।" सीता ने भी उनके विचारों का अनुमोदन किया। फिर वे टहलते हुये मुनि वाल्मीकि के सुन्दर एवं मुख्य आश्रम में पहुँचे। राम ने उनका अभिवादन करके उन्हें अपना परिचय दिया और बताया कि हम लोग वन में चौदह वर्ष की अवधि व्यतीत करने के लिये आये हैं। मुनि ने उनका सत्कार करते हुये कहा, "हे दशरथनन्दन! तुम्हारे दर्शन करके मैं कृतार्थ हुआ। तुम जब तक चाहो, इस आश्रम में निवास करो। यह सर्वथा तुम्हारे योग्य है। इसलिये वनवास की पूरी अवधि तुम यहीं रह कर व्यतीत करो।" मुनि वाल्मीकि के आतिथ्य के लिये आभार प्रकट करते हुये राम बोले, "इसमें सन्देह नहीं कि यह रमणीक वन मुझे, सीता और लक्ष्मण हम तीनों को ही पसन्द है। परन्तु मैं यह नहीं चाहता कि मेरे यहाँ निवास करने से आपकी तपस्या में किसी प्रकार का विघ्न पड़े। इसलिये हम लोग पास ही कहीं पर्णकुटी बना कर निवास करना चाहेंगे।" फिर उन्होंने लक्ष्मण को आदेश दिया, "भैया, तुम वन से अच्छी, मजबूत लकड़ियाँ काट कर ले आओ। हम लोग इस आश्रम के निकट ही कहीं कुटिया बना कर निवास करेंगे।"
रामचन्द्र की आज्ञा पाकर लक्ष्मण तत्काल लकड़ियाँ काट कर ले आये और उनसे एक बड़ी सुन्दर कलापूर्ण कुटिया बना डाली। इस सुन्दर, सुविधा एवं कलापूर्ण कुटिया को देख कर राम ने लक्ष्मण की बहुत प्रशंसा की। फिर उन्होंने सीता सहित गृह-प्रवेश यज्ञ किया। उसके पश्चात् उन्होंने कुटिया में प्रवेश किया। वहाँ का वातावरण अत्यन्त मनोरम था। चित्रकूट पर्वत को स्पर्श करती हुई माल्यवती सरिता प्रवाहित हो रही थी। उसके दोनों ओर पर्वत मालाओं की अत्यन्त आकर्षक श्रेणियाँ थीं। इस सुन्दर मनोमुग्धकारी प्राकृतिक दृश्य को देख कर कुछ समय के लिये राम और जानकी अयोध्या त्यागने के दुःख को भूल गये। नाना प्रकार के पक्षियों की हृदयहारी स्वर लहरियों को सुन कर और रंग-बिरंगे पुष्पों से आच्छादित लताओं एवं विटपों को देख कर उस निर्जन वन मे भी सीता राजमहल के कोलहल को भूल गई।