DwarkaMai - Sai Baba Forum

Indian Spirituality => Stories from Ancient India => Topic started by: JR on February 13, 2007, 01:23:57 AM

Title: रामायण - अयोध्याकाण्ड - सुमन्त का अयोध्या लौटना
Post by: JR on February 13, 2007, 01:23:57 AM
जब राम से विदा लेकर अपने रथ सहित सुमन्त अयोध्या पहुँचे तो उन्होंने देखा सम्पूर्ण अयोध्या पर शोक और उदासी की घटाएँ छाई हुई थीं। ज्योंही अयोध्यावासियों ने रथ को आते हुये देखा, उन्होंने दौड़ कर रथ को चारों ओर से घेर लिया। फिर वे सुमन्त से पूछने लगे, "राम, लक्ष्मण, सीता कहाँ हैं? तुम उन्हें कहाँ छोड़ आये? अपने साथ वापस क्यों नहीं लाये?" सुमन्त ने उन्हें धैर्य बँधाने के लिये मुख खोला तो स्वयं उनका कण्ठ अवरुद्ध हो गया। मुँह से आवाज नहीं निकली। नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी। यथासम्भव अपने को नियंत्रित करते हुये उन्होंने टूटी-फूटी वाणी में कहा, "मैं उन्हें गंगा पार छोड़ आया हूँ। वहाँ से वे पैदल ही आगे चले गये और उन्होंने आदेशपूर्वक रथ को लौटा दिया।"

सुमन्त के हृदयवेधी वचन सुनकर पुरवासी बिलख-बिलख कर विलाप करने लगे। देखते-देखते सारा बाजार और सभी दुकानें बन्द हो गईं। नगर निवासी शोकाकुल होकर छोटी-छोटी टोलियाँ बनाये राम के विषय में ही चर्चा करने लगे। कोई कहता, "अब राम के बिना अयोध्या सूनी हो गई। हमें भी यह नगर छोड़ कर अन्यत्र चले जाना चाहिये।" कोई कहता हमसे पिता की भाँति स्नेह करने वाले राम के चले जाने से हम लोग अनाथ हो गये हैं। यह राज्य उजाड़ हो गया है। अब हमें यहाँ रह कर क्या करना है? हमें भी किसी वन में चले जाना चाहिये।" कोई रानी कैकेयी को दुर्वचन कहता और कोई महाराज दशरथ की निन्दा करता।

उधर सुमन्त सुन कर भी न सुनते हुये खाली रथ को हाँकते ले जा रहे थे। इस प्रकार वे राजप्रासाद के उस श्वेत भवन में जा पहुँचे जहाँ महाराज दशरथ पुत्र शोक में व्याकुल होकर अर्द्धमूर्छित दशा में पड़े अपने अन्तिम समय की प्रतीक्षा कर रहे थे। हृदय के किसी कोने में आशा की धूमिल किरण कभी-कभी चमक उठती थी कि सम्भव है सुमन्त अनुनय-विनय कर के राम को लौटा लायें। यदि राम को नहीं तो सम्भव है सीता को ही वापस ले आयें। इस प्रकार महाराज दशरथ आशा-निराशा के झूले में झूल रहे थे कि सुमन्त ने आकर महाराज के चरण स्पर्श कर राम को वन में छोड़ आने की सूचना दी और चुचाप आँसू बहाने लगे।

सुमन्त की सूचना को सुनकर महाराज व्यथित होकर मूर्छित हो गये। सारे महल में हाहाकार मच गया। कौशल्या ने राजा को झकझोरते हुये कहा, "हे स्वामिन्! आप चुप क्यों हैं? आप बात क्यों नहीं करते? कैकेयी से की हुई आपकी प्रतिज्ञा पूरी हुई। अब आप दुःखी क्यों होते हैं?" जब राजा की मूर्छा भंग हुई तो वे राम, सीता और लक्ष्मण का स्मरण कर विलाप करने लगे। फिर सुमन्त से पूछे, "जब तुम वहाँ से लौटे थे, तब क्या उन्होंने तुमसे कुछ कहा था? कुछ तो बताओ ताकि मेरे दुःखी हृदय को धैर्य बँधे।" सुमन्त ने हाथ जोड़कर उत्तर दिया, "कृपानाथ! राम ने आपको प्रणाम कर के कहा है कि हम सब सकुशल हैं। माता कौशल्या के लिये संदेश दिया है कि वे महाराज के प्रति पहले से अधिक देखभाल करें। कैकेयी के प्रति कोई कठोरता न दिखायें। उन्होंने यह भी कहा है कि भरत से मेरी ओर से कहना कि पिता की आज्ञा का पालन करें।" सुमन्त की बात सुन कर राजा ने गहरी साँस लेकर कहा, "सुमन्त! होनहार प्रबल है। इस आयु में मेरे आँखों के तार मुझसे अलग हो गये। इससे बढ़ कर मेरे लिये और क्या दुःख होगा?"

महाराज की बातें सुन कर महारानी कौशल्या कहने लगी, "राम, लक्ष्मण और विशेषतः सीता, जो सदा सुख से महलों में रही है, किस प्रकार वन के कष्टों को सहन कर पायेंगे। राजन्! आपने उन्हें वनवास देकर बड़ी निर्दयता दिखाई है। केवल कैकेयी और भरत के सुख के लिये आपने यह सब किया है।" कौशल्या के कठोर वचन सुनकर राजा का हृदय टुकड़े-टुकड़े हो गया। वे नेत्रों में नीर भरकर बोले, "कौशल्ये! मैं तुम्हारे हाथ जोड़ता हूँ। तुम तो मुझे इस प्रकार मत धिक्कारो।" दशरथ के मुख से निकले इन दीन वचनों को सुनकर कौशल्या का हृदय पानी-पानी हो गया और वे रोती हुई दोनों हाथ जोड़कर बोलीं, "हे नाथ! मैं दुःख में अपनी बुद्धि खो बैठी थी। मुझे क्षमा करें। राम को वन गये आज पाँच रात्रियाँ व्यतीत हो चुकी हैं परन्तु मुझे ये पाँच रात्रियाँ पाँच वर्षों जैसी प्रतीत हुई हैं। इसलिये मैं अपना विवेक खो बैठी हूँ जो ऐसा अनर्गल प्रलाप करने लगी।" इस पर राजा दशरथ बोले, "कौशल्ये! यह जो कुछ हुआ है सब मेरी करनी का फल है। मैं तुम्हें बताता हूँ।"