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Indian Spirituality => Stories from Ancient India => Topic started by: JR on February 13, 2007, 01:25:38 AM

Title: रामायण - अयोध्याकाण्ड - राजा दशरथ की मृत्यु
Post by: JR on February 13, 2007, 01:25:38 AM
राजा दशरथ ने श्रवण कुमार के वृत्तान्त को समाप्त कर के कहा, "हे देवि! उस पाप कर्म का फल मैं आज भुगत रहा हूँ अब मेरा अन्तिम समय आ गया है अब मुझे इन नेत्रों से कुछ दिखाई नहीं दे रहा। अब मैं राम को नहीं देख सकूँगा। अब मेरी सब इन्द्रियाँ मुझसे विदा हो रही हैं। मेरी चेतना घट रही है। हा राम! हा लक्ष्मण! हा पुत्र! हा सीता! हाय कुलघातिनी कैयेयी!" कहते कहते राजा की वाणी रुक गई, साँस उखड़ गया और उनके प्राण पखेरू शरीररूपी पिंजरे से सदा के लिये उड़ गये।

राजा दशरथ के प्राण निकलते ही रानी कौशल्या पछाड़ खाकर भूमि पर गिर पड़ी। सुमित्रा आदि अन्य स्त्रियाँ भी सिर पीट-पीट कर और केश खींच-खींच विलाप करने लगीं। सम्पूर्ण अन्तःपुर करुणाजनक हाहाकार से गूँज उठा। जहाँ कभी सुख की चहल-पहल होती थी वही राजप्रासाद दुःख का आगार बन गया। जब कौशल्या की चेतना लौटी तो उसने अपने पति का मस्तिष्क अपनी जंघा पर रख लिया और विलाप करते हुये बोली, "हा दुष्ट कैकेयी! आज तेरी अभिलाषा पूरी हुई। अब तो सुखी होकर राज सुख भोग। पुत्र तो पहले ही छिन गया था, आज पति भी छिन गया। अब मैं किसके लिये जीवित रहूँ। आज कैकेय की राजकुमारी ने कौशल का नाश कर दिया है। मेरे पुत्र और पुत्रवधू अनाथों की भाँति वनों में भटक रहे हैं। अयोध्यापति तो गये ही, मिथिलापति भी सीता के दुःख से दुःखी होकर अधिक दिन नहीं जियेंगे। कैकेयी! तूने दो कुलों का नाश कर दिया। इस प्रकार विलाप करती हुई कौशल्या राजा के शरीर से लिपटकर फिर मूर्छित हो गई। प्रातःकाल मन्त्रियों ने रोते हुये राजा के शरीर को तेल के कुण्ड में रख दिया राम वियोग से पीड़ित अयोध्यावासी महाराज की मृत्यु का समाचार पाकर बहुत दुःखी हुये।

राजा की मृत्यु के समाचार से व्यथित होकर समस्त मन्त्री, दरबारी, मार्कण्डेय, मौदगल, वामदेव, कश्यप तथा जाबालि वशिष्ठ के आश्रम में एकत्रित होकर बोले, "हे महर्षि! किसी रघुवंशी को सिंहासन पर बैठाइये क्योंकि सिंहासन राजा के बिना नहीं रह सकता। शीघ्र ही अयोध्या के सिंहासन को सुरक्षित रखने का प्रबन्ध कीजिये ताकि कोई शत्रु राजा इस पर आक्रमण करने का विचार न कर सके।" वशिष्ठ जी ने कहा, "आप ठीक कहते हैं। मेरे विचार से हमें शीघ्र ही भरत को उनके नाना के यहाँ से बुलाना चाहिये क्योंकि उन्हें स्वर्गीय महाराज की ओर से राज्य का उत्तराधिकारी घोषित किया जा चुका है। मैं भरत को बुलाने के लिये अभी ही किसी कुशल दूत को भेजता हूँ।"


फिर राजगुरु ने सिद्धार्थ, विजय, जयंत तथा अशोकनन्दन नामक चतुर दूतों को आज्ञा दी कि शीघ्र कश्मीर जाकर मेरी ओर से भरत और शत्रुघ्न से कहना कि तुम्हें अत्यन्त आवश्यक कार्य से अभी अयोध्या बुलाया है। यह मत कहना कि राम, लक्ष्मण और सीता को वन भेज दिया गया है या राजा कि मृत्यु हो गई है। ऐसी कोई बात उनसे मत कहना जिससे उन्हें किसी अनिष्ट की आशंका हो या उनके मन में किसी भी प्रकार के अमंगल का सन्देह उत्पन्न हो।

वशिष्ठ जी की आज्ञा पाकर चारों दूत वायु का समान वेगवान घोड़ों पर सवार हो मालिनी नदी पार कर हस्तिनापुर होते हुये पांचाल देश पहुँचे और वहाँ से शरदण्डा नदी पार करके इक्षुमती नदी पार करते हुये वाह्लीक देश पहुँचे। वहाँ विपाशा नदी पार करके कैकेय नरेश के गिरिव्रज नामक नगर में पहुँच गये।

जिस रात्रि ये दूत गिरिव्रज पहुँचे उसी रात्रि को भरत ने एक अशुभ स्वप्न देखा। आँख खुलने पर वे स्वप्न का स्मरण करके वे अत्यन्त शोकाकुल हुये। एक मित्र के पूछने पर उन्होंने बताया, "सखे! रात्रि में मैंने एक भयानक स्वप्न देखा है। मैंने देखा कि पिताजी के सिर के बाल खुले हैं। वे पर्वत से गिरते गोबर से लथपथ अंजलि से बार-बार तेल पी रहे हैं और हँस रहे हैं। मैंने उन्हें तिल और चाँवल खाते तथा शरीर पर तेल मलते देखा है। इसके बाद मैंने देखा कि सारा समुद्र सूख गया है, चन्द्रमा टूटकर पृथ्वी पर गिर पड़ा है, पिता की सवारी के हाथी के दाँत टूट हये हैं, पर्वतमालाएँ परस्पर टकराकर चूर-चूर हो गई हैं और उससे निकलते हुये धुएँ से पृथ्वी और आकाश काले हो गये हैं। फिर राजा गधों के रथ में सवार होकर दक्षिण दिशा की ओर चले गये। इस स्वप्न से मुझे किसी अमंगल की सूचना मिलती प्रतीत होती है। इसी के परिणामस्वरूप मेरा मन अत्यन्त व्याकुल हो रहा है।"

अभी भरत यह स्वप्न सुना ही रहे थे कि अयोध्या के चारों दूतों ने उन्हें प्रणाम करके संदेश दिया, "हे राजुमार! गरु वशिष्ठ ने अपनी कुशलता का समाचार देकर आपसे तत्काल अयोध्या चलने का आग्रह किया है। अत्यावश्यक कार्य होने के कारण ही हम आपको लिवाने के लिये आये हैं।"