भरत के पूछने पर भी दूतों ने किसी भी अशुभ समाचार के विषय में कुछ नहीं बताया और शीघ्रता पूर्वक भरत तथा शत्रुघ्न को महाराज कैकेय से विदा करवा कर अपने साथ लेकर अयोध्या की ओर प्रस्थान किया। दुर्गम घाटियों आदि को पार करते हुये जब भरत अयोध्या की सीमा में प्रविष्ट हुये तो वहाँ का दृष्य देखकर बोले, "हे दूत! आज अयोध्या की ये वाटिकाएँ जन-शून्य क्यों दिखाई देती हैं? नगर में प्रजाजनों का तुमुलनाद भी सुनाई नहीं दे रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि आज अयोध्या श्रीहीन हो गई है। मानो यहाँ कोई अवांछनीय घटना घटित हुई है।" इस प्रकार आशंकाओं से घिरे हुये भरत राजप्रासाद में पहुँचे और सबसे पहले पिता के दर्शन करने के लिये उनके भवन की ओर चले। उस भवन में पिता को न पाकर वे अपनी माता कैकेयी के राजमहल में पहुँचे। पुत्र को आया देख कैकेयी मुस्कुराती हुई स्वर्ण के आसन से उठी। भरत ने उनके चरण स्पर्श किया। कैकेयी ने उन्हें हृदय से लगाकर अपनी माता और पिता के कुशल समाचार पूछकर बोली, "वत्स! नाना के यहाँ से चले तुम्हें कितने दिन हो गये? मार्ग में कोई कष्ट तो नहीं हुआ?" इन प्रश्नों के उत्तर देकर भरत ने पूछा, "माता, पिताजी कहाँ हैं? वे तो प्रायः इसी भवन में रहते थे। आज दिखाई क्यों नहीं दे रहे हैं?"
भरत के प्रश्न को सुनकर कैकेयी ने तटस्थ भाव से कहा, "बेटा! तुम्हारे तेजस्वी पिता स्वर्ग सिधार गये।" कैकेयी के मुख से ये शब्द सुनते ही भरत के हृदय को मर्मान्तक आधात लगा और वे बिलख-बिलख कर रोने लगे और बोले, "उन्हें अचानक क्या हो गया था? हाय! अन्त समय में मैं उनके दर्शन भी न कर सका। मुझसा अभागा और कौन होगा? धन्य हैं राम-लक्ष्मण जिन्होंने अन्तिम समय में पिताजी की सेवा की। भैया राम कहाँ हैं? पिताजी के अभाव में अब वे ही मेरे आश्रय और पूज्य हैं। माता, अन्तिम समय में क्या पिताजी ने मुझे याद किया था? मेरे लिये क्या उन्होंने कोई सन्देश दिया है?" भरत को सान्त्वना देती हुई कैकेयी बोले, "वत्स! अन्तिम समय में तुम्हारे पितजी ने तुम्हारे लिये कोई सन्देश नहीं दिया। वे पाँच दिन और पाँच रात्रि तक हा राम! हा लक्ष्मण! हा सीता! कह-कह कर विलाप करते रहे और अन्त में रोते-रोते ही परलोक सिधार गये।" यह सुनकर भरत की पीड़ा और बढ़ गई और वे बोले, "पिताजी के अन्तिम समय में भैया राम कहाँ चले गये थे जो उनके वियोग में उन्हें प्राण त्यागने पड़े?"
भरत के प्रश्न को सुनकर कैकेयी ने मुस्कुराते हुये कहा, "तुम्हारा बड़ा भाई राम, लक्ष्मण और सीता के साथ वक्कल पहन कर वन को चला गया है। मैं तुम्हें पूरी बात बताती हूँ। जब मैंने मन्थरा दासी के मुख से राम के अभिषेक की बात सुनी तो मैंने महाराज से दो वर माँग लिये। पहले वर से तुम्हारे लिये अयोध्या का राज्य और दूसरे वर से राम के लिये चौदह वर्ष का वनवास माँगा। राम के साथ सीता और लक्ष्मण अपनी इच्छा से चले गये। उनके चले जाने पर राजा रोते-रोते मर गये। इस प्रकार यह राज्य अब तुम्हारा है। तुम शोक त्यागकर निष्कंटक हो राज्य करो। अब इस नगर में कोई ऐसा नहीं रह गया है जो तुम्हारे विरुद्ध विद्रोह कर सके। मैंने सब कुछ ठीक कर लिया है। तुम गुरु वशिष्ठ और मन्त्रियों को बुलाकर राज्य की बागडोर सँभालो।"
भाइयों के वनवास और पिता की मृत्यु का कारण जान कर भरत का तन दुःख और क्रोध से जल उठा। वे बोले, "हे पापिन माते! तुमने रघुकुल को कलंक लगाया है। तुम्हारी ही दुष्टता से भाइयों को वनवास हुआ और पिता की मृत्यु हुई। तुम माता नहीं, रघुकुल का नाश करने वाली नागिन हो। हे जड़बुद्धि! तुमने राम को क्यों वन भेजा? ऐसा प्रतीत होता है कि पिताजी की भाँति माता कौशल्या और माता सुमित्रा भी पति और पुत्र वियोग में अपने प्राण त्याग देंगीं। भैया राम तो तुम्हारा सम्मान मुझसे भी अधिक करते थे। माता कौशल्या तुम्हारे साथ सगी भगिनी सा व्यवहार करती थीं। फिर तुमने किसलिये इतना बड़ा अन्याय किया? हे कठोरहृदये! जिन भाइयों और भाभी ने कभी दुःख नहीं देखा उन्हें इतना कठोर दण्ड देकर तुम्हें क्या मिल गया? राम के बिना मैं पल भर भी नहीं रह सकता। क्या तुम इतना भी नहीं जानतीं कि सद्गुणों में मैं राम के चरणों की धूल के बराबर भी नहीं हूँ। तुमने मेरे मस्तक पर भारी कलंक लगा दिया। यदि मैंने तुम्हारे उदर से जन्म न लिया होता तो मैं इसी क्षण तुम्हारा परित्याग कर देता। यदि मैं तुम्हें नहीं त्याग सकता तो क्या हुआ, अपने प्राण तो त्याग सकता हूँ। मैं विष खाकर मर जाउँगा या वनों में राम को खोजता हुआ प्राण दे दूँगा। इक्ष्वाकु कुल में सदा से ज्येष्ठ भ्राता सिंहासन पर बैठता आया है, इस बात को तुमने कैसे भुला दिया? मैं अभी वन जाकर राम को लौटाकर लाउँगा और उनका सिंहासन उन्हें सौंप दूँगा।" इस प्रकार कहकर वे रोते-रोते शत्रुघ्न सहित कौशल्या के भवन की ओर चले दिये।
भरत को आशीर्वाद देते हुये कौशल्या बोली, "बेटा! तुम्हें राज्य मिल गया यह तो अच्छा हुआ, परन्तु निर्दोष राम को वनवास देकर तुम्हारी माता को क्या मिला? अब तुम सिंहासन सँभालकर मुझे भी वन जाने की आज्ञा दो।" कौशल्या के मुख से ये शब्द सुनकर भरत ने रोते हुये कहा, "माता! आप जानती हैं जो कुछ भी हुआ वह मेरे अनुपस्थिति में हुआ है। फिर आप मुझे क्यों दोष देती हैं? मेरा हृदय तो भैया के वियोग में फटा जा रहा है। उनके बिना तो केवल अयोध्या का क्या मैं त्रैलोक्य का राज्य भी नहीं लूँगा। यदि राम के वनगमन में मेरी लेशमात्र भी सहमति हो तो मुझे रौरव नर्क मिले। इसी समय भूमि फट जाये और मैं उसमें समा जाऊँ। यदि इस दुष्ट कार्य में मेरी सहमति हो तो मुझे वह दण्ड मिले जो घृणित पाप करने वाले पापी को मिलती है।" यह कहकर रोते हुये भरत मूर्छित होकर कौशल्या के चरणों में गिर पड़े। जब वे कुछ चैतन्य हुये तो कौशल्या बोली, "बेटा! इस प्रकार शपथ लेकर तुम मुझे क्यों दुःखी करते हो? क्या मैं तुम्हें और तुम्हारे हृदय को नहीं पहचानती?" और वे भरत को नाना प्रकार से सान्त्वना देने लगीं।