जय सांई राम।।।
सूरदास-कृष्ण का नाम लिया जाए और मीराबाई का नाम ना आये ऐसा हो नही सकता, क्यों?
चित्तौड़गढ़ के पुराने पत्थरों के नए किले में, कोमल हृदयी मीराबाई उन्मन बैठी थीं, नितांत अकेली। तभी राणा सांगा के पौत्र राणा को लगा कि यह अच्छा अवसर है, मीरा से अपने प्रेम के मनोभाव व्यक्त करने का। राणा जी आए। मीराबाई प्रेम-दीवानी थीं, जिस कृष्ण के प्रति उनका समर्पण था उनका ही वह आदर करती थीं। राजा के प्रलोभन से वह विचलित नहीं हुई। प्रेम और भक्ति में उनकी एकनिष्ठ आस्था थी। कामनाओं की पूर्ति न होने पर राणा जी मीरा से प्रतिशोध लेने के लिए आतुर हो उठे। उन्होंने अपने सेवक से एक अलंकृत मंजूषा में बंद विषैला नाग भिजवाया। मीरा ने मंजूषा अपने आराध्य को भेंट कर दी। थोड़ी देर बाद सर्प शांत हो गया। नाग-नथैया-कन्हैया, के आगे क्या करता? राणा जी अपनी असफलता से बौखला गए। वे स्वयं विष का चषक लेकर गए और उन्होंने उन्हें आत्महत्या करने को बाध्य किया। मीरा ने वह चषक कृष्णार्पित कर दिया। मीरा चरणामृत पी गई। कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। खीझकर राणा ने मीरा से राजप्रासाद त्यागने का आदेश दे दिया।
ॐ सांई राम।।।