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Indian Spirituality => Stories from Ancient India => Topic started by: JR on March 06, 2007, 01:11:26 AM
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सुतीक्ष्ण मुनि से विदा ले कर राम, सीता और लक्ष्मण ने वहाँ से प्रस्थान किया। मार्ग के नदी, पर्वतों एवं उपत्यकाओं की शोभा को निरखते हुये, दो दिन महर्षि अगस्त्य के भाई के आश्रम में विश्राम करने के पश्चात् अन्त में वे अगस्त्य मुनि के आश्रम के निकट जा पहुँचे। आश्रम के निकट का वातावरण बड़ा हृदयहारी था। सुन्दर विशाल वृक्ष पुष्पवती लताओं से सजे हुये थे। अनेक वृक्ष हाथियों द्वारा तोड़े जाकर पृथ्वी पर पड़े थे। वृक्षों की ऊँची-ऊँची शाखाओं पर वानरवृन्द अठखेलियाँ कर रहे थे। पक्षियों का कलरव उनकी क्रीड़ाओं को तालबद्ध कर रहा था। हिंसक पशु भी हिरण आदि के साथ कल्लोल कर रहे थे। यह देखकर राम लक्ष्मण से बोले, "देखो सौमित्र! इस आश्रम का प्रभाव कितना अद्भुत और स्नेहपूर्ण है कि जन्मजात शत्रु भी परस्पर स्नेह का बर्ताव करते हैं और एक दूसरे की हत्या नहीं करते। यह महर्षि के तपोबल का ही प्रभाव है। राक्षस भी यहाँ किसी प्रकार का उपद्रव नहीं करते। मैंने तो यह भी सुना है कि उनके प्रभाव से अनेक राक्षस अपनी तामसी वृति का त्याग करके उनके अनन्य भक्त बन गये हैं। यही कारण है कि इस युग के ऋषि-मुनियों में महामुनि अगस्त्य का स्थान सर्वोपरि है। उनकी कृपा से इस वन में निवास करने वाले देवता, राक्षस, यक्ष, गन्धर्व, नाग, किन्नर सब मानवीय धर्मों का पालन करते हुये बड़े प्रेम से अपना जीवन यापन कर रहे हैं। इस परम शान्तिप्रद वन में चोर, डाकू, लम्पट, दुराचारी व्यक्ति दिखाई भी नहीं देते। ऐसे महात्मा महर्षि के आज हम दर्शन करेंगे। तुम आगे जाकर मेरे आने की सूचना दो।"
राम की आज्ञा पाकर लक्ष्मण ने आश्रम में प्रवेश किया और अपने सम्मुख महर्षि के शिष्य को पाकर उससे बोले, "हे सौम्य! तुम महर्षि अगस्त्य को सादर सूचित करो कि अयोध्या के परम तेजस्वी सूर्यवंशी सम्राट दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र श्री रामचन्द्र जी अपनी पत्नी जनकनन्दिनी सीता के साथ उनके दर्शन के लिये पधारे हैं। वे बाहर अनुमति की प्रतीक्षा कर रहे हैं।" शिष्य से लक्ष्मण का संदेश सुनकर अगस्त्य मुनि बोले, "यह तो बड़ा आनन्ददायक समाचार तू ने सुनाया है। राम की प्रतीक्षा करते हुये मेरे नेत्र थक गये थे। तू जल्दी से जाकर राम को जानकी और लक्ष्मण के साथ मेरे पास ले आ।" मुनि का आदेश पाते ही शिष्य राम, सीता और लक्ष्मण को लेकर मुनि के पास पहुँचा जो पहले से ही उनके स्वागत के लिये कुटिया के बाहर आ चुके थे। तेजस्वी मुनि को स्वयं स्वागत के लिये बाहर आया देख राम ने श्रद्धा से सिर नवा कर उन्हें प्रणाम किया। सीता और लक्ष्मण ने भी उनका अनुसरण किया। अगस्त्य मुनि ने बड़े प्रेम से उन सबको बैठने के लिये आसन दिये। कुशलक्षेम पूछ कर तथा फल-फूलों से उनका सत्कार कर वे बोले, "हे राम! मैंने दस वर्ष पूर्व तुम्हारे दण्डक वन में आने का समाचार सुना था। तभी से मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूँ। आज मेरे सौभाग्य है कि मेरी इस कुटिया में तुम्हारे जैसा धर्मात्मा, सत्यपरायण, प्रतिज्ञापालक, पितृभक्त अतिथि आया है। वास्तव में मेरी कुटिया तुम्हारे आगमन से धन्य हो गई है।" इसके पश्चात् महर्षि ने राम को कुछ दैवी अस्त्र-शस्त्र देते हुये कहा, "हे राघव! जब देवासुर संग्राम हुआ था, उस समय से ये कुछ दिव्य अस्त्र मेरे पास रखे थे। आज इन्हें मैं तुम्हें देता हूँ। इनका उपयोग जितना उचित तुम कर सकते हो अन्य कोई धर्मपरायण योद्धा नहीं कर सकता। इस धनुष का निर्माण विश्वकर्मा ने स्वर्ण और वज्र के सम्मिश्रण से किया है। ये बाण स्वयं ब्रह्मा जी ने दिये थे। स्वर्ण किरणों की भाँति चमकने वाले ये बाण कभी व्यर्थ नहीं जाते। यह तरकस जो मैं तुम्हें दे रहा हूँ, मुझे देवाधिपति इन्द्र ने दिये थे। इनमें अग्नि की भाँति दाहक बाण भरे हुये हैं। यह खड्ग कभी न टूटने वाला है चाहे इस पर कैसा ही वार किया जाय। मुझे विश्वास है कि इन अस्त्र-शस्त्रों को धारण कर के तुम इन्द्र की भाँति अजेय हो जाओगे। इनकी सहायता से इस दण्डक वन में जो देव-तपस्वी द्रोही राक्षस हैं, उनका नाश करो।"
राम ने महर्षि के इस कृपापूर्ण उपहार के लिये उन्हें अनेक धन्यवाद दिये और बोले, "मुनिराज! यह आपकी अत्यन्त अनुकम्पा है जो आपने मुझे इन अस्त्र-शस्त्रों के योग्य समझा। मैं यथाशक्ति इनका उचित उपयोग करने का प्रयास करूँगा।" राम के विनीत शब्द सुन कर मुनि ने कहा, "नहीं राम! इसमें अनुकम्पा की कोई बात नहीं है। तुम वास्तव में मेरे आश्रम में आने वाले असाधारण अतिथि हो। तुम्हें देख कर मैं कृत-कृत्य हो गया हूँ। लक्ष्मण भी कम महत्वपूर्ण अतिथि नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि इनकी विशाल बलिष्ठ भुजाएँ विश्व पर विजय पताका फहराने के लिये ही बनाई गई है। और जानकी का तो पति-प्रेम तथा पति-निष्ठा संसार की स्त्रियों के लिये अनुकरणीय आदर्श बन गये हैं। इन्होंने कभी कष्टों की छाया भी नहीं देखी, तो भी केवल पति भक्ति के कारण तुम्हारे साथ इस कठोर वन में चली आई हैं। वास्तव में इनका अनुकरण करके सन्नारियाँ स्वर्ग की अधिकारिणी हो जायेंगीं। तुम तीनों को अपने बीच में पाकर मेरा हृदय फूला नहीं समा रहा है। तुम लोग इतनी लम्बी यात्रा करके आये हो, थक गये होगे। अतएव अब विश्राम करो। मेरी तो इच्छा यह है कि तुम लोग वनवास की शेष अवधि यहीं व्यतीत करो। यहाँ तुम्हें किसी प्रकार का कष्ट न होगा।"
ऋषि के स्नेह भरे वचन सुन कर राम ने हाथ जोड़ कर उत्तर दिया, "हे मुनिराज! जिनके दर्शन बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं तथा दीर्घकाल तक तपस्या करने वाले ऋषि मुनियों को भी दुर्लभ हैं, उनके दर्शन मैं आज इन नेत्रों से कर रहा हूँ। भला इस संसार में मुझसे बढ़ कर भाग्यशाली कौन होगा? आपकी इस महान कृपा और अतिथि सत्कार के लिये मैं सीता और लक्ष्मण सहित आपका अत्यन्त कृतज्ञ हूँ। आपकी आज्ञा का पालन करते हुये हम लोग आज की रात्रि अवश्य यहीं विश्राम करेंगे किन्तु वनवास की शेष अवधि आपके मनोरम आश्रम में हृदय से चाहते हुये भी बिताना सम्भव नहीं होगा। मैं आपकी तपस्या में किसी भी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं करना चाहता, परन्तु आपकी सत्संगति के लाभ से भी वंचित नहीं होना चाहता। इसलिये कृपा करके कोई ऐसा स्थान बताइये जो फलयुक्त वृक्षों, निर्मल जल तथा शान्त वातावरण से युक्त सघन वन हो। वहाँ मैं आश्रम बना कर निवास करूँगा। यहाँ से अधिक दूर भी न हो।"
राम की बात सुनकर अगस्त्य मुनि ने कुछ क्षण विचार करके उत्तर दिया, "हे राम! तुम्हारे यहाँ रहने से मुझे कोई असुविधा नहीं होगी। यदि फिर भी तुम किसी एकान्त स्थान में अपना आश्रम बनाना चाहते हो तो यहाँ से आठ कोस दूर पंचवटी नामक महावन है। वह स्थान वैसा ही है जैसा तुम चाहते हो। वहाँ पर गोदावरी नदी बहती है। वह स्थान अत्यन्त रमणीक, शान्त, स्वच्छ एवं पवित्र है। सामने जो मधुक वन दिखाई देता है, उत्तर दिशा से पार करने के पश्चात् तुम्हें एक पर्वत दृष्टिगोचर होगा। उसके निकट ही पंचवटी है। वह स्थान इतना आकर्षक है कि उसे खोजने में तुम्हें कोई कठिनाई नहीं होगी।"
मुनि का आदेश पाकर सन्ध्यावन्दन आदि करके राम ने सीता और लक्ष्मण के साथ रात्रि अगस्त्य मुनि के आश्रम में ही विश्राम किया। प्रातःकालीन कृत्यों से निबटकर महामुनि से विदा हो राम ने अपनी पत्नी तथा अनुज के साथ पंचवटी की ओर प्रस्थान किया।