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Indian Spirituality => Stories from Ancient India => Topic started by: JR on March 06, 2007, 01:13:41 AM

Title: रामायण – अरण्यकाण्ड - शूर्पणखा के नाक-कान काटना
Post by: JR on March 06, 2007, 01:13:41 AM
जब रामचन्द्र सीता और लक्ष्मण के साथ अपने आश्रम में पहुँचे तो उन्होंने आश्रम के निकट एक राक्षस कन्या को देखा जो राम के तेजस्वी मुखमण्डल, कमल-नयन तथा नीलम्बुज सदृश शरीर की कान्ति को देख कर ठगी सी खड़ी थी। अकस्मात् उसके भावों में परिवर्तन हुआ और वह राम को वासनापूर्ण दृष्टि से देखने लगी। वह उनके पास आकर बोली, "तुम कौन हो और इस वन में क्यों आये हो? यहाँ तो राक्षसों का राज्य है। वेश तो तुम्हारा तपस्वियों जैसा है, परन्तु हाथों में धनुष बाण लिये हो। साथ में स्त्री को लिये घूमते हो। ये दोनों बातें परस्पर विरोधी हैं। इसलिये तुम अपना परिचय देकर मेरे आश्चर्य का निवाराण करो और अपना पूरा वृतान्त सुनाओ।"

राम ने सरल भाव से उत्तर दिया, "हे राक्षसकन्ये! मैं अयोध्या के चक्रवर्ती नरेश महाराजा दशरथ का ज्येष्ठ पुत्र राम हूँ। यह मेरा छोटा भाई लक्ष्मण है और यह जनकपुरी के महाराज जनक की राजकुमारी तथा मेरी पत्नी सीता है। पिताजी की आज्ञा से हम चौदह वर्ष के लिये वनों में निवास करने के लिये आये हैं। यही हमारा परिचय है। अब तुम जुझे अपना परिचय देकर मेरी इस जिज्ञासा को शान्त करो कि तुम इस भयंकर वन में अकेली इस प्रकार क्यों घूम रही हो?" राम का प्रश्न सुन कर राक्षसी बोली, "मेरा नाम शूर्पणखा है और मैं लंका के नरेश परम प्रतापी महाराज रावण की बहन हूँ। सारे संसार में विख्यात विशालकाय कुम्भकरण और परम नीतिवान विभीषण भी मेरे भाई हैं। वे सब लंका में निवास करते हैं। पंचवटी के स्वामी खर और दूषण भी मेरे भाई हैं। वे अत्यन्त पराक्रमी हैं। संसार में बिरला ही कोई वीर ऐसा होगा जो इन दोनों भाइयों के सामने समरभूमि में ठहर कर उनसे लोहा ले सके। यह तो हुआ मेरा परिचय, अब मैं तुम्हें कुछ अपने विषय में बताती हूँ। यह तो तुम देख ही रहे हो कि मैं रति से भी सुन्दर, पूर्ण यौवना और लावण्यमयी हूँ। तुम्हारे सुन्दर रूप और कान्तिमय बलिष्ठ युवा शरीर को देख कर मैं तुम्हें अपना हृदय अर्पित कर बैठी हूँ। मैं चाहती हूँ कि तुम पत्नी के रूप में मुझे स्वीकार कर के अपना शेष जीवन आनन्दपुर्वक बिताओ। यह तुम्हारे लिये अत्यन्त सौभाग्य की बात होगी कि मुझसे विवाह कर के तुम सहज ही त्रैलोक्य में विख्यात अद्भुत पराक्रमी लंकापति महाराज रावण के सम्बंधी बन जाओगे और फिर तुम्हारी ओर कोई आँख उठा कर भी नहीं देख सकेगा। मुझे पाने के लिये सैकड़ों राजकुमार अपने प्राण न्यौछावर करने को तैयार हैं, जबकि मैं स्वयं तुम्हारे सम्मुख अपना हाथ बढ़ा रही हूँ।"

शूर्पणखा के प्रस्ताव को सुन कर राम ने उत्तर दिया, "भद्रे! तुम देख रही हो कि मैं विवाहित हूँ और मेरी पत्नी मेरे साथ है। ऐसी दशा में मेरा तुसे विवाह करना कदापि उचित नहीं हो सकता। यह धर्मानुकूल भी नहीं है। हाँ मेरा भाई लक्ष्मण यहाँ अकेला है। यदि तुम चाहो और वह सहमत हो तो तुम उससे विवाह कर सकती हो। इस विषय में उससे बात कर के तुम देख लो।"

राम का उत्तर सुन कर शूर्पणखा ने लक्ष्मण को वासनामयी दृष्टि से देखा और फिर लक्ष्मण के पास जाकर बोली, "हे राजकुमार! तुम सुन्दर हो और मैं युवा हूँ। ऐसी दशा में तुम्हारी और मेरी जोड़ी खूब फबेगी। मुझसे विवाह कर के तुम्हारा रावण के साथ जो सम्बंध स्थापित होगा, उससे तुम्हारी स्थिति राम से भी श्रेष्ठ हो जायेगी। इसलिये तुम मुझे पत्नी के रूप में स्वीकार कर लो। फिर तुम्हारा वनवास का कटु जीवन सुख और ऐश्वर्य में बदल जायेगा।" शूर्पणखा की कामातुर भंगिमा देख और विवाह का प्रस्ताव सुन कर वाक् चतुर लक्ष्मण ने कहा, "सुन्दरी! तुम राजकुमारी हो, मैं राम का एक साधारण सा दास हूँ। तुम मेरी पत्नी बन कर केवल दासी कहलाओगी। क्या किसी महान देश की राजकुमारी होकर दासी बनना तुम्हें शोभा देगा? इससे तो अच्छा है कि तुम राम से ही विवाह कर के उनकी छोटी भार्या बन जाओ। तुम जैसी रूपवती उन्हीं के योग्य है।" शूर्पणखा को लक्ष्मण के प्रशंसा भरे युक्तिपूर्ण वचन अच्छे लगे और वह पुनः राम के पास जा कर क्रोध से बोली, "हे राम! इस कुरूपा सीता के लिये तुम मेरा विवाह प्रस्ताव अस्वीकार कर के मेरा अपमान कर रहे हो। लो, पहले मैं इसे ही मार कर समाप्त किये देती हूँ। उसके पश्चात् तुम्हारे साथ विवाह कर के मैं अपना जीवन आनन्द से बिताउँगी।" इतना कह कर भयंकर क्रोध करती हुई शूर्पणखा बिजली जैसे वेग से सीता पर झपटी। इस आकस्मिक आक्रमण को राम ने बड़ी कठिनता किन्तु तत्परता से रोका। शूर्पणखा को सीता से अलग करते हुये वे लक्ष्मण से बोले, "हे वीर! इस दुष्टा राक्षसी से अधिक बात करना या इसके साथ हास्य विनोद करना उचित नहीं है। इसने तो जनकनन्दिनी की हत्या ही कर डाली होती। तुम इसके नाक कान काट कर इस दुश्चरित्र को ऐसी शिक्षा दो कि भविष्य में फिर कभी ऐसा आचरण न कर सके।"

राम की आज्ञा पाते ही लक्ष्मण ने तत्काल खड्ग निकाल कर दुष्टा शूर्पणखा के नाक-कान काट डाले। नाक-कान कटने की पीड़ा और घोर अपमान के कारण रोती हुई शूर्पणखा अपने भाइयों, खर-दूषण, के पास पहुँची और घोर चीत्कार कर के उनके सामने गिर पड़ी।