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Indian Spirituality => Stories from Ancient India => Topic started by: JR on March 06, 2007, 01:22:53 AM

Title: रामायण – अरण्यकाण्ड - जटायु से भेंट
Post by: JR on March 06, 2007, 01:22:53 AM
राम को इस प्रकार असहाय अनाथ की भाँति रुदन करते देख लक्ष्मण ने उन्हें धैर्य बँधाते हुये कहा, "भैया! तनिक सोचो, कितनी तपस्या से माता कौशल्या और पिताजी ने आपको प्राप्त किया है। आपके वियोग में ही पिताजी ने बिलखते हये अपने प्राण त्याग दिये। यदि इसी प्रकार रुदन करते हुये आप अपने प्राण त्याग देंगे तो सोचिये, तीनों माताओं, भरत और मेरी क्या दशा होगी? आपके वियोग में हम कितने दिन जीवित रह सकेंगे? फिर आपके प्यारे अयोध्यावासियों का क्या होगा? आपने ऋषि-मुनियों को साक्षी देकर राक्षसों के विनाश की जो प्रतिज्ञा की है, उसका क्या होगा? क्या लोग यह कह कर निन्दा न करेंगे कि सत्यप्रतिज्ञ रघुकुलसूर्य राघव अपने निजी दुःखों को वरीयता दे कर अपनी प्रतिज्ञा से विचलित हो गये? हे पुरुषोत्तम! सुख-दुःख का तो नित्य घूमने वाला चक्र है। ऐसा कौन है जिस पर विपत्तियाँ नहीं आतीं और ऐसी कौन सी विपत्ति है जिसका अन्त नहीं होता? किसी के सदैव एक से दिन नहीं रहते। आप तो स्वयं महान विद्वान हैं। क्या आपको शिक्षा देता मैं अच्छा लगता हूँ? आप परिस्थितियों पर विचार कर के धैर्य धारण करें। कहीं न कहीं हमें जानकी जी की खोज अवश्य मिलेगी।"

लक्ष्मण के मर्म भरे वचनों को सुन कर राम ने अपने आप को सँभाला और लक्ष्मण के साथ सीता की खोज करने के लिये खर-दूषण के जनस्थान की ओर चले। मार्ग में उन्होंने अपने पिता के सखा जटायु को देखा। उसे देख कर उन्होंने लक्ष्मण से कहा, "भैया! मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि इसी जटायु ने सीता को खा डाला है। मैं अभी इसे यमलोक भेजता हूँ।" ऐसा कह कर क्रोध से तिलमिलाते हुये उन्होंने अपने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई और जटायु को मारने के लिये आगे बढ़े। राम को अपनी ओर आते देख जटायु बोला, "राम! तुम आ गये। अच्छा हुआ। तुम्हारी ही प्रतीक्षा में मेरे प्राण अटके हुये थे। लंका का राजा सीता का हरण कर के ले गया है और उसी ने मेरी भुजाएँ काट कर मुझे बुरी तरह से घायल कर दिया है। हे वीर! जिस जनकनन्दिनी को तुम यहाँ वन पर्वत में ढूँढ रहे हो, उसे रावण अपने विमान में बिठा कर लंका ले गया है। सीता की पुकार सुन कर मैं उसकी सहायता के लिये गया भी था, परन्तु उस महाबली राक्षस ने मुझे मार-मार कर मेरी यह दशा कर दी। वृद्धावस्था के कारण मैं उस पर पार नहीं पा सका। यह उसका धनुष और उसके बाण हैं। इधर कुछ उसके विमान का टूटा हुआ भाग पड़ा है। अब मेरा अन्तिम समय आ गया है। इसलिये मैं अधिक नहीं बोल पा रहा हूँ। मैं तुम्हारे पिता का मित्र हूँ, अतएव मेरे मरने पर तुम मेरा अन्तिम संस्कार कर देना।" इतना कह कर जटायु का गला रुँध गया, आँखें पथरा गईं और उसके प्राण पखेरू उड़ गये।

जटायु के प्राणहीन रक्तरंजित शरीर को देख कर राम दुःखी होकर लक्ष्मण से बोले, "भैया! सचमुच मैं कितना अभागा हूँ। राज्य छिन गया, घर से निर्वासित हुआ, पिता का देहान्त हो गया, सीता का अपहरण हुआ और आज पिता के मित्र जटायु का भी मेरे कारण निधन हुआ। मेरे ही कारण इन्होंने अपने शरीर की बलि चढ़ा दी। इनके इस बलिदान से मैं बहुत प्रभावित हुआ हूँ। इनके मरने का मुझे बड़ा दुःख है। तुम जा कर लकड़ियाँ एकत्रित करो। मैं अपने हाथों से इनका दाह-संस्कार करूँगा। ये मेरे पिता के समान थे।"

राम की आज्ञा पाकर लक्ष्मण ने लकड़ियाँ एकत्रित कीं। दोनों ने मिल कर चिता का निर्माण किया। राम ने पत्थरों को रगड़ कर अग्नि निकाली। फिर द्विज जटायु के शरीर को चिता पर रख कर बोले, "हे पूज्य गृद्धराज! जिस लोक को यज्ञ एवं अग्निहोत्र करने वाले, समरांगण में लड़ कर प्राण देने वाले और धर्मात्मा व्यक्ति जाते हैं, उसी लोक को आप प्रस्थान करें। आपकी कीर्ति इस संसार में सदैव अटल रहेगी।" यह कह कर उन्होंने चिता में अग्नि प्रज्वलित कर दी। थोड़ी ही देर में जटायु का नश्वर शरीर पंचभूतों में मिल गया। इसके पश्चात् दोनों भाइयों ने गोदावरी के तट पर जा कर दिवंगत जटायु को जलांजलि दी।