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Indian Spirituality => Stories from Ancient India => Topic started by: JR on March 09, 2007, 07:43:52 AM
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सुग्रीव के पास जा कर हनुमान ने दोनों भाइयों का परिचय कराते हुये कहा, "हे वानराधिपति! अयोध्या के महाराज दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र श्री रामचन्द्र जी अपने अनुज लक्ष्मण जी के साथ आप ही के दर्शनों के लिये पधारे हैं। जब ये पंचवटी में निवास करते थे तो इनकी पत्नी सीता जी को लंका का राजा रावण चुरा ले गया। ये उन्हीं को वन-वन में खोजते फिर रहे हैं। अब ये आपके पास मित्रता करने के लिये आये हैं। आपको इनकी मित्रता स्वीकार कर लेनी चाहिये क्योंकि ये बड़े गुणवान, पराक्रमी और धर्मात्मा हैं। इनकी मित्रता आपके लिये लाभदायक होगी। आप परस्पर एक दूसरे की सहायता कर सकते हैं।"
हनुमान से उनका इस प्रकार परिचय पाकर सुग्रीव ने प्रसन्न हो कर कहा, "हे रघुकुलशिरोमणि! आपके दर्शनों से मैं कृतार्थ हुआ। हम दोनों मिल कर परस्पर एक दूसरे का दुःख दूर करने का प्रयास करेंगे। आइये, हम दोनों अग्नि को साक्षी दे कर प्रतिज्ञा करें कि हम दुःख-सुख में एक दूसरे की सहायता करेंगे। हमारी मैत्री अटूट रहेगी।" सुग्रीव का संकेत पा कर हनुमान ने अग्नि प्रज्वलित की। राम और सुग्रीव ने अग्नि की साक्षी दे कर मैत्री की शपथ ली और दोनों बड़े प्रेम से एक दूसरे के गले मिले।
इसके पश्चात् सुग्रीव ने रामचन्द्र जी और लक्ष्मण का यथोचित सत्कार किया और वे अपने-अपने आसनों पर बैठ कर परस्पर वार्तालाप करने लगे। सुग्रीव ने कहा, "हे राघव! इस समय मैं बड़े अपमान के साथ अपना जीवन व्यतीत कर रहा हूँ। मेरे ज्येष्ठ भ्राता बालि ने मेरी पत्नी का अपहरण कर लिया है और मेरा राज्य भी मुझसे छीन लिया है। वह मुझसे बहुत अधिक शक्तिशाली है। इसलिये मैं उससे भयभीत हो कर ऋष्यमूक पर्वत के इस मलयगिरि प्रखण्ड में निवास कर रहा हूँ। आप अत्यन्त पराक्रमी और तेजस्वी हैं। इसलिये मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ, आप कृपा कर के बालि के हाथों से मेरी रक्षा करें।"
सुग्रीव के दीन वचन सुन कर राम बोले, "हे सुग्रीव! जब हम तुम मित्र बन ही गये हैं तो तुम्हारा दुःख मेरा दुःख है। मैं अपने तीक्ष्ण बाणों से अवश्य उसका वध करूँगा। छोटे भाई की पत्नी तो अपनी कन्या के समान होती है, उसका अपहरण कर के उस दुष्ट ने स्वयं को लोक और परलोक दोनों में ही निन्दनीय बना लिया है। अब तुम उसे मरा ही समझो। मैं आज अग्नि के सम्मुख प्रतिज्ञा करता हूँ कि बालि का वध कर के तुम्हें अवश्य राजा बनाउँगा। तुम मेरी इस प्रतिज्ञा को अटल समझो।"
जब राम ने इस प्रकार प्रतिज्ञा की तो सुग्रीव ने सन्तुष्ट हो कर कहा, "हे राम! मैं हनुमान के मुख से तुम्हारी विपत्ति की सम्पूर्ण कथा सुन चुका हूँ। सीता आकाश, पाताल या पृथ्वी पर कहीं भी हो, मैं अवश्य उनका पता लगवाउँगा। रावण तो क्या, इन्द्र आदि देवता भी सीता को मेरे वानरों की दृष्टि से छिपा कर नहीं रख सकते। हाँ, राघव! मुझे याद आया, कुछ ही दिनों पूर्व एक राक्षस एक स्त्री को विमान में उड़ा कर ले जा रहा था। उस समय हम इसी पर्वत पर बैठे थे। तब हमने उस स्त्री के मुख से 'हा राम! हा लक्ष्मण!' शब्द सुने थे। सम्भव है वह सीता ही हो। उसे मैं भली-भाँति देख नहीं पाया। हमें बैठे देख कर उसने कुछ वस्त्राभूषण नीचे फेंके थे। वे हमारे पास सुरक्षित रखे हैं। आप उन्हें पहचान कर देखिये, क्या वे सीता जी के ही है।" यह कह कर सुग्रीव ने एक वानर को वस्त्राभूषणों को लाने की आज्ञा दी। उन वस्त्राभूषणों को देखते ही राम का धीरज जाता रहा। वे नेत्रों से अश्रु बहाते, उन वस्त्रों को हृदय से लगा कर मूर्छित हो भूमि पर गिर पड़े।
चेतना लौटने पर वे कुछ देर तक गहरी-गहरी साँसें लेते रहे। फिर लक्ष्मण से बोले, "हे लक्ष्मण! सीता के इन आभूषणों को तुम ही पहचानो। मेरी तो बुद्धि इस समय ठिकाने नहीं है। तुम ही मेरी सहायता करो।" इस पर लक्ष्मण ने कहा, "भैया! इन आभूषणों में से न तो मैं हाथों के कंकणों को पहचानता हूँ, न गले के हार को और न ही मस्तक के किसी अन्य आभूषणों को पहचानता हूँ। क्योंकि मैंने आज तक सीता जी के हाथों और मुख की ओर कभी दृष्टि नहीं डाली। हाँ, उनके चरणों की नित्य वन्दना करता रहा हूँ इसलिये इन नूपुरों को अवश्य पहचानता हूँ, ये वास्तव में उन्हीं के हैं।"