DwarkaMai - Sai Baba Forum
Indian Spirituality => Stories from Ancient India => Topic started by: JR on March 09, 2007, 07:54:59 AM
-
पवन कुमार हनुमान शास्त्र-विद्, नीतिवान और सूझबूझ वाले मनीषी थे। जब उन्होंने देखा, वर्षा ऋतु समाप्त हो गई है, आकाश निर्मल हो गया है, अब न तो बादल ही दिखाई पड़ते हैं और न आकाश में बिजली ही चमकती है; वे सुग्रीव के विषय में विचार करने लगे। उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि सुग्रीव मनोरथ सिद्ध हो जाने के पश्चात् अपने कर्तव्य की अवहेलना कर के विलासिता में मग्न रहने लगा है। अब तारा भी उसके विलास लीला का एक महत्वपूर्ण अंग बन गई है। राजकाज का भार केवल मन्त्रियों के भरोसे छोड़ कर वह स्वयं स्वेच्छाचारी होता जा रहा है। श्री रामचन्द्र जी को जो उसने वचन दिया था, उसका उसे स्मरण भी नहीं रह गया है। यह सोच कर हनुमान सुग्रीव के पास जा कर बोले, "हे राजन्! आपने राज्य और यश दोनों ही प्राप्त कर लिये हैं। कुल परम्परा से प्राप्त लक्ष्मी का भी आपने विस्तार कर लिया है, किन्तु मित्रों को अपनाने का जो कार्य शेष रह गया है, उसे भी अब पूरा कर डालना चाहिये। आपने मित्र के कार्य को सफल बनाने के लिये जो प्रतिज्ञा की है, उसे पूरा करना चाहिये। श्री राम हमारे परम मित्र और हितैषी हैं। उनके कार्य का समय बीता जा रहा है। इसलिये हमें जनकनन्दिनी सीता की खोज आरम्भ कर देनी चाहिये।"
हनुमान के द्वारा स्मरण दिलाये जाने पर उन्हें अपने आलस्य का भान हुआ। उन्होंने तत्काल नील नामक कुशल वानर को बुला कर आज्ञा दी, "हे नील! तुम ऐसी व्यवस्था करो जिससे मेरी सम्पूर्ण सेना बड़ी शीघ्रता से यहाँ एकत्रित हो जाय। सभी यूथपतियों को अपनी सेना एवं सेनापतियों के साथ यहाँ अविलम्ब एकत्रित होने का आदेश दो। राज्य सीमा की रक्षा करने वाले सब उद्यमी एवं शीघ्रगामी वानरों को यहाँ तत्काल उपस्थित होने के लिये आज्ञा प्रसारित करो। यह भी सूचना भेज दो कि जो वानर पन्द्रह दिन के अन्दर यहाँ बिना किसी अपरिहार्य कारण के उपस्थित नहीं होगा, उसे प्राण-दण्ड दिया जायेगा।" इस प्रकार नील को समझा कर सुग्रीव अपने महलों में चले गये।
इधर शरद ऋतु का आरम्भ हो जाने पर भी जब राम को सुग्रीव द्वारा सीता के लिये खोज करने की कोई सूचना नहीं मिली तो वे सोचने लगे कि सुग्रीव अपना उद्देश्य सिद्ध हो जाने पर मुझे बिल्कुल भूल गया है। वह सीता की खोज खबर लेने के लिये कुछ नहीं कर रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि अब सीता को पाने की कोई आशा शेष नहीं रह गई है। बेचारी सीता पर न जाने कैसी बीत रही होगी। जो राजहंसों के शब्दों को सुन कर जागती थी, न जाने अब कैसे रह रही होगी। यह शरद ऋतु उसे और भी अधिक व्याकुल कर रही होगी। यह सोचते हुये राम सीता को स्मरण कर के विलाप करने लगे।
जब लक्ष्मण फल ले कर समीपवर्ती वाटिका से लौटे तो उन्होंने अपने बड़े भाई को विलाप करते देखा। लक्ष्मण को देखते ही उन्होंने एक गहरी ठण्डी साँस ले कर कहा, "हे लक्ष्मण! पृथ्वी को जलप्लावित करने के लिये उत्सुक गरजते बादल अब शान्त हो कर पलायन कर गये हैं। आकाश निर्मल हो गया है। चन्द्रमा, नक्षत्र और सूर्य की प्रभा पर शरद ऋतु का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगा है। हंस मानसरोवर का परित्याग कर फिर लौट आये हैं और चक्रवातों के समान सरिता के रेतीले तटों पर क्रीड़ा कर रहे हैं। वर्षाकाल में मदोन्मत्त हो कर नृत्य करने वाले मोर अब उदास हो गये हैं। सरिता की कल-कल करती वेगमयी गति अब मन्द पड़ गई है मानो वे कह रही हैं कि चार दिन के यौवन पर मदोन्मत्त हो कर गर्व करना उचित नहीं है। सूर्य की किरणों ने मार्ग की कीचड़ और दलदल को सुखा दिया है, इससे वे आवागमन और यातायात के लिये खुल गये हैं। राजाओं की यात्रा के दिन आ गये हैं, परन्तु सुग्रीव ने न तो अब तक मेरी सुधि ली है और न जानकी की खोज कराने की कोई व्यवस्था ही की है। वर्षाकाल के ये चार मास सीता के वियोग में मेरे लिये सौ वर्ष से भी अधिक लम्बे हो गये हैं। परन्तु सुग्रीव को मुझ पर अभी तक दया नहीं आई। मालूम नहीं मेरे भाग्य में क्या लिखा है। राज्य छिन गया, देश निकाला हो गया, पिता की मृत्य हो गई, पत्नी का अपहरण हो गया और अन्त में इस वानर के द्वारा भी ठगा गया। हे वीर! तुम्हें याद होगा कि सुग्रीव ने प्रतिज्ञा की थी कि वर्षा ऋतु समाप्त होते ही सीता की खोज कराउँगा, परन्तु अपना स्वर्थ सिद्ध हो जाने के बाद वह इस प्रतिज्ञा को इस प्रकार भूल गया है जैसे कि कोई बात ही न हुई हो। इसलिये तुम किष्किन्धा जा कर उस स्वार्थी वानर से कहो कि जो प्रतिज्ञा कर के उसका पालन नहीं करता, वह नीच और पतित होता है। क्या वह भी बालि के पीछे-पीछे यमलोक को जाना चाहता है? तुम उसे मेरी ओर से सचेत कर दो ताकि मुझे कोई कठोर पग उठाने के लिये विवश न होना पड़े।"