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Author Topic: रामायण – सुन्दरकाण्ड - हनुमान का सीता को अपना विशाल रूप दिखाना  (Read 1574 times)

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Offline JR

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हनुमान के वचनों को सुने कर सीता जी ने विस्मयपूर्वक कहा, "हे हनुमान! तुम्हारी बातें मुझे आश्चर्य में डालने वाली हैं। भला इतने छोटे से आकार वाले तुम मुझे अपनी पीठ पर बिठा कर विशाल सागर को कैसे पार कर सकोगे। सागर कोई छोटा सा सरोवर तो है नहीं, वह चार सौ कोस चौड़ा है। मुझे तो कभी-कभी इसी बात पर सन्देह होता है कि तुमने यहाँ आते समय समुद्र को लाँघ कर पार किया है। अस्तु, कैसे भी तुम आ गये, यही मेरे लिये बहुत है, परन्तु मुझे पीठ पर बिठा कर समुद्र पार करने की बात कह कर मुझे क्यों व्यर्थ भुलावे में डालते हो।"

सीता को अपने ऊपर अविश्वास करते देख हनुमान को अच्छा नहीं लगा। फिर उन्होंने सोचा कि इसमें इनका भी क्या दोष है, ये मेरी शक्ति और सामर्थ्य से अपरिचित होने के कारण ऐसा कहती हैं। फिर बोले, "देवि! मैं श्री राम का सेवक हूँ। थोड़ी बहुत आध्यात्मिक साधना की है। आप मुझ पर अविश्वास न करें। मैं आपको अपने विराट रूप की एक झाँकी दिखाता हूँ।" यह कह कर उन्होंने अपनी सिद्धि के बल पर विशाल आकार दिखाना आरम्भ किया। थोड़ी ही देर में जानकी ने देखा, हनुमान का शरीर पर्वताकार का हो गया है जिसका मुख ताँबे के सदृश लाल तथा सूर्य के समान तेजस्वी है। दाँत और नख वज्र के समान पैने तथा चमकीले हैं। फिर हनुमान दोनों हाथ जोड़कर बोले, "हे जनकनन्दिनी! अब आपको विश्वास हो गया होगा कि आपकी आज्ञा मिलने पर मैं समस्त नदियों, पर्वतों, ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं तथा रावण और उसकी सम्पूर्ण सेना के साथ इस लंकापुरी को उठा कर ले जा सकता हूँ। अतएव अपने सन्देह का निवारण करके मेरी पीठ पर सवार हो जाइये ताकि मैं आपके साथ राघव की वियोग-वेदना का भी अन्त कर सकूँ।"

हनुमान के आश्चर्यजनक रूप को विस्मय से देखती हुई सीता जी बोलीं, "हे पवनसुत! अब मुझे तुम्हारी सामर्थ्य में किसी प्रकार की शंका नहीं रही है। मुझे विश्वास हो गया है कि तुम जैसा कहते हो, वैसा कर सकते हो। तुमहारा प्रस्ताव अत्यन्त आकर्षक होते हुये भी मैं उसे स्वीकार करने में असमर्थ हूँ। मैं अपनी इच्छा से अपने पति के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष के शरीर का स्पर्श नहीं कर सकती। मेरे जीवन में मेरे शरीर का स्पर्श केवल एक परपुरुष ने किया है और वह दुष्ट रावण है जिसने मेरा हरण करते समय मुझे बलात् अपनी गोद में उठा लिया था। उसकी वेदना से मेरा शरीर आज तक जल रहा है। इसका प्रायश्चित तभी होगा जब राघव उस दुष्ट का वध करेंगे। इसी में मेरा प्रतिशोध और उनकी प्रतिष्ठा है।"

जानकी के मुख से ऐसे युक्तियुक्त वचन सुन कर हनुमान का हृदय गद्-गद् हो गया। वे प्रसन्न होकर बोले, "हे देवि! महान सती साध्वियों को शोभा देने वाले ऐसे शब्द आप जैसी परम पतिव्रता विदुषी ही कह सकती हैं। आपकी दशा का वर्णन मैं श्री रामचन्द्र जी से विस्तारपूर्वक करूँगा और उन्हें शीघ्र ही लंकापुरी पर आक्रमण करने के लिये प्रेरित करूँगा। अब आप मुझे कोई ऐसी निशानी दे दें जिसे मैं श्री रामचन्द्र जी को देकर आपके जीवित होने का विश्वास दिला सकूँ और उनके अधीर हृदय को धैर्य बँधा सकूँ।"

हनुमान के कहने पर सीता जी ने अपना चूड़ामणि खोलकर उन्हें देते हुये कहा, "यह चूड़ामणि तुम उन्हें दे देना। इसे देखते ही उन्हें मेरे साथ साथ मेरी माताजी और अयोध्यापति महाराज दशरथ का भी स्मरण हो आयेगा। वे इसे भली-भाँति पहचानते हैं। उन्हें मेरा कुशल समाचार देकर लक्ष्मण और वानरराज सुग्रीव को भी मेरी ओर से शुभकामनाएँ व्यक्त करना। यहाँ मेरी जो दशा है और मेरे प्रति रावण तथा उसकी क्रूर दासियों का जो व्यवहार है, वह सब तुम अपनी आँखों से देख चुके हो, तुम समस्त विवरण रघुनाथ जी से कह देना। लक्ष्मण से कहना, मैंने तुम्हारे ऊपर अविश्वास करके जो तुम्हें अपने ज्येष्ठ भ्राता के पीछे कटुवचन कह कर भेजा था, उसका मुझे बहुत पश्चाताप है और आज मैं उसी मूर्खता का फल भुगत रही हूँ। पवनसुत! और अधिक मैं क्या कहूँ, तुम स्वयं बुद्धिमान और चतुर हो। जैसा उचित प्रतीत हो वैसा कहना और करना।"

जानकी के ऐसा कहने पर दोनों हाथ जोड़ कर हनुमान उनसे विदा लेकर चल दिये।

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