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Indian Spirituality => Stories from Ancient India => Topic started by: JR on March 09, 2007, 10:14:24 AM
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हनुमान के मुख से सीता का समाचार पाकर रामचन्द्र जी बहुत प्रसन्न हुये और उनकी प्रशंसा करते हुये कहने लगे, "हनुमान ने सीता की खोज करके वह कार्य कर दिखाया है जो इस पृथ्वी पर कोई दूसरा नहीं कर सकता। इस संसार में केवल तीन विभूतियाँ ऐसी हैं जो सागर को पार करने की क्षमता रखती हैं, और वह हैं गरुड़, पवन तथा हनुमान। देवताओं, राक्षसों, यक्षों, गन्धर्वों तथा दैत्यों द्वारा रक्षित लंका में प्रवेश करके उसमें से सुरक्षित निकल आना केवल हनुमान के लिये ही सम्भव है। इन्होंने अपने अतुल पराक्रम से मेरी और सुग्रीव की भारी सेवा की है। किसी भी दिये गये कार्य को प्रेम, उत्साह तथा लगन से पूरा करने वाला व्यक्ति ही श्रेष्ठ पुरुष होता है। जो व्यक्ति कार्य तो पूरा कर दे, किन्तु बिना किसी उत्साह के पूरा करे, वह मध्यम पुरुष होता है और आज्ञा पाकर भी कार्य ने करने वाला व्यक्ति अधम पुरुष कहलाता है। हनुमान ने इस अत्यन्त दुष्कर कार्य को करके अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर दी है। हनुमान ने सीता से मिलकर जो वृतान्त सुनाया हे, उससे मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो मैंने स्वयं अपनी आँखों से सीता को देख लिया हो। परन्तु सबसे बड़ा दुःख यह है कि मेरे साथ इतना बड़ा उपकार करने वाले हनुमान को मैं इस समय कोई प्रतिदान नहीं दे सकता। अपनी इस दीन दशा पर मुझे बड़ा संकोच हो रहा है, किन्तु अपने दुर्दिन के कारण मैं विवश हूँ। फिर भी मैं इस महान परोपकारी को अपने हृदय से लगा कर अपना सर्वस्व इसे समर्पित करता हूँ।" यह कह कर उन्होंने हर्षोन्मत्त हनुमान को अपने हृदय से लगा लिया।
फिर कुछ विचार करते हुये रामचन्द्र जी सुग्रीव से बोले, "हे वानरराज! जानकी का पता तो लग गया, उनका चिन्ह भी मिल गया है, परन्तु अब चिन्ता का विषय यह है कि इस विशाल सागर को कैसे पार किया जाय? हमारे वानर इस सागर को कैसे पार करके लंका तक पहुँच सकेंगे? समुद्र हमारे मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। यदि हम सागर पार करके लंका पर आक्रमण न कर सके तो सीता की सूचना मिलने से क्या लाभ?" राम को इस प्रकार चिन्तित देख सुग्रीव ने कहा, "हे राघव! जब सीता जी का पता लग गया है तो हमें चिन्ता करने की क्या आवश्यकता है? मेरी वानर सेना की वीरता और पराक्रम के सामने यह समुद्र बाधा बन कर खड़ा नहीं हो सकता। हम समुद्र पर पुल बना कर उसे पार करेंगे। परिश्रम और उद्योग से कौन सा कार्य सिद्ध नहीं हो सकता? हमें कायरों की भाँति समुद्र को बाधा मान निराश होकर नहीं बैठना चाहिये।"
सुग्रीव के उत्साहपूर्ण शब्दों से सन्तष्ट होकर राघव हनुमान से बोले, "हे वीर हनुमान! कपिराज सुग्रीव की पुल बनाने की योजना से मैं सहमत हूँ। यह कार्य शीघ्र आरम्भ हो जाये, ऐसी व्यवस्था तो सुग्रीव कर ही देंगे। इस बीच तुम मुझे रावण की सेना, उसकी शक्ति, युद्ध कौशल, दुर्गों आदि के विषय में विस्तृत जानकारी दो। मुझे विश्वास है कि तुमने इन सारी बातों का अवश्य ही विस्तारपूर्वक अध्ययन किया होगा। तुम्हारी विवेचन क्षमता पर मुझे विश्वास है।"
कौशलनन्दन का आदेश पाकर पवनपुत्र हनुमान ने कहा, "हे सीतापते! लंका जितनी ऐश्वर्य तथा समृद्धि से युक्त है, उतनी ही वह विलासिता में डूबी हुई है। सैनिक शक्ति उसकी महत्वपूर्ण है। उसमें असंख्य उन्मत्त हाथी, रथ और घोड़े हैं। बड़े पराक्रमी योद्धा सावधानी से लंकापुरी की रक्षा करते हैं। उस विशाल नगरी के चार बड़े-बड़े द्वार हैं। प्रत्येक द्वार पर ऐसे शक्तिशाली यन्त्र लगे हुये हैं जो लाखों की संख्या में आक्रमण करने वाले शत्रु सैनिकों को भी द्वार से दूर रखने की क्षमता रखते हैं। इसके अतिरिक्त प्रत्येक द्वार पर अनेक बड़ी-बड़ी शतघनी (तोप) रखी हुई हैं जो विशाल गोले छोड़ कर अपनी अग्नि से समुद्र जैसी विशाल सेना को नष्ट करने की सामर्थ्य रखती है। लंका को और भी अधिक सुरक्षित रखने के लिये उसके चारों ओर अभेद्य स्वर्ण का परकोटा खींचा गया है। परकोटे के साथ-साथ गहरी खाइयाँ खुदी हुई हैं जो अगाध जल से भरी हुई हैं। उस जल में नक्र, मकर जैसे भयानक हिंसक जल-जीव निवास करते हैं। परकोटे पर थोड़े-थोड़े अन्तर से बुर्ज बने हुये हैं। उन पर विभिन्न प्रकार के विचित्र किन्तु शक्तिशाली यन्त्र रखे हुये हैं। यदि किसी प्रकार से शत्रु के सैनिक परकोटे पर चढ़ने में सफल हो भी जायें तो ये यन्त्र अपनी चमत्कारिक शक्ति से उन्हें खाई में धकेल देते हैं। लंका के पूर्वी द्वार पर दस सहस्त्र पराक्रमी योद्धा शूल तथा खड्ग लिये सतर्कतापूर्वक पहरा देते हैं। दक्षिण द्वार पर एक लाख योद्धा अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर सदैव सावधानी की मुद्रा में खड़े रहते हैं। उत्तर और पश्चिम के द्वारों पर भी सुरक्षा की ऐसी ही व्यवस्था है। इतना सब कुछ होते हुये भी आपकी कृपा से मैंने उनकी शक्ति काफी क्षीण कर दी है क्योंकि जब रावण ने मेरी पूँछ में कपड़ा लपेट कर आग लगवा दी थी तो मैंने उसी जलती हुई पूँछ से लंका के दुर्गों को या तो समूल नष्ट कर दिया या उन्हें अपार क्षति पहुँचाई है। अनेक यन्त्रों की दुर्दशा कर दी है और कई बड़े-बड़े सेनापतियों को यमलोक भेज दिया है। अब तो केवल सागर पर सेतु बाँधने की देर है, फिर तो राक्षसों का विनाश होते अधिक देर नहीं लगेगी।"