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Author Topic: रामायण – लंकाकाण्ड - लंका में राक्षसी मन्त्रणा  (Read 3059 times)

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Offline JR

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जब हनुमान सीता से मिलकर, लंका को जलाकर और राक्षसराज रावण का मान-मर्दन कर लंका से जीवित निकल गये तो रावण को बड़ी लज्जा और ग्लानि हुई। उसने अपने सब मन्त्रियों, प्रमुख राक्षस राजनीतिज्ञों एवं विद्वानों को बुला कर कहा, "हे लंका के कुशल विज्ञजनों! सुग्रीव के दूत ने लंका में जैसा भयंकर उत्पात मचाया है, वह तुम स्वयं देख चुके हो। उसने न केवल सीता से भेंट करके यहाँ के समाचार ज्ञात किये हैं, अपितु लंका को जलाकर और हमारे वीरों का संहार करके हमारा दर्प भी चूर्ण किया है। अब सूचना मिली है कि राम और सुग्रीव करोड़ों वानरों की सेना को लेकर समुद्र पार कर लंका घेरने की योजना बना रहे हैं। जिस राम को मैंने एक तुच्छ व्यक्ति समझा था उसने अपनी अपूर्व संगठन शक्ति से सुग्रीव को अपनी ओर मिला कर एक विशअल सेना संगठित कर ली है। वैसे हमने देवताओं, दानवों, दैत्यों, गन्धर्वों आदि पर विजय प्राप्त की है, परन्तु हमें आज तक वानरों से युद्ध करने का कभी अवसर नहीं पड़ा है। वानरों की युद्ध नीति बड़ी विचित्र प्रतीत पड़ती है। जब एक छोटअ सा वानर लंका में इतना उत्पात मचा गया तो करोड़ों वानर मिल कर न जाने क्या उत्पात मचायेंगे। इसलिये तुम सब लोग विचार करके बताओ कि हमें उनके विरुद्ध कौन सी रण-नीति अपनानी चाहिये। इस विषय में हमें कोई योजना शीघ्र ही कार्यान्वित करनी चाहिये, क्योंकि मैं समझता हूँ कि अब किसी भी समय राम की सेना लंका में प्रवेश कर सकती है। इस लिये तुम्हें ऐसा उपाय सोचना है, जिससे मैं राम और लक्ष्मण का वध करके सीता को अपनी भार्या बना सकूँ।"

रावण के वचन सुन कर एक बुद्धिहीन मन्त्री बोला, "पृथ्वीनाथ! आप व्यर्थ ही भयभीत हो रहे हैं। आपने नागों और गन्धर्वों को जीता है, मय नामक दानव ने आपसे भयभीत होकर अपनी कन्या आपको समर्पित कर दी थी, मधु नामक दैत्य को आपने परास्त किया है। आपके सम्मुख कौन सा वीर ठहर सकता है। फिर आपके पुत्र मेघनाद ने देवताओं के अधिपति इन्द्र पर विजय प्राप्त करके इन्द्रजित की उपाधि प्राप्त की है। वह अकेला ही राम, लक्ष्मण सहित समस्त वानरों का विनाश कर सकता है। फिर इन वानरों की आपके वीरों के सामने क्या बिसात है? हनुमान लंका में जो कुछ कर गया, वह केवल हमारी असावधअनी के कारण है। अभ हम लोग सावधान हैं; अतएव हमें चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। जिस समय हमारी शतघ्नियों के मुख खुलेंगे, उस समय उनसे निकले वाले अग्निमय गोलों से सारी वानर सेना जल कर राख हो जायेगी। इसलिये आप इस व्यर्थ की चिन्ता का परित्याग कर लंकापुरी की रक्षा का भार हम पर छोड़ दें, आप सीता के साथ विहार करें। यदि वह स्वतः आत्मसमर्पण न करे तो आप बलपूर्वक उसे अपनी बना लें। आपको ऐसा करने से कोई शक्ति नहीं रोक सकती।"

अपने मन्त्री के उत्साहवर्धक वचन सुन कर रावण बोला, "हे वीरों! मैं सीता के साथ बलात्कार नहीं करना चाहता, इसका एक कारण है। बहुत समय पहले की बात है। पुँजिकस्थली नामक एक अप्सरा ब्रह्मलोक को जा रही थी। उसका अपूर्व रूप देख कर मैं उस पर मुग्ध हो गया और मैंने उसकी इच्छा के विरुद्ध उससे बलात्कार करके उसके साथ संभोग किया। वह दुःखी होकर ब्रह्मा के पास गई। ब्रह्मा ने इससे क्रुद्ध होकर मुझे शाप दिया, "हे रावण! आज से यदि तुम किसी स्त्री के साथ उसकी इच्छा के विरुद्ध संभोग करोगे तो तुम्हारे सिर के सौ टुकड़े हो जायेंगे। इसी कारण तीव्र इच्छा होते हुये भी मैं सीता के साथ बलात्कार नहीं करता। इसीलिये मैं शांत हूँ। किन्तु राम को मेरी शक्ति का पता नहीं है। मैं रणभूमि में उसका संहार करूँगा और फिर सीता को अपनी बना कर उसके साथ रमण करूँगा।" सब राक्षसों ने उसकी बात का समर्थन किया।

मन्त्रियों को रावण की हाँ में हाँ मिलाते देख विभीषण ने हाथ जोड़कर कहा, "हे लंकेश! राजनीति के चार भेद बताये गये हैं। जब साम (मेल मिलाप), दाम (प्रलोभन) और भेद (शत्रु पक्ष में फूट डालना) से सफलता न मिले तभी चौथे उपाय अर्थात् दण्ड का सहारा लेना चाहिये। हे रावण! अस्थिर बुद्धि, व्याधिग्रस्त आदि लोगों पर बल का प्रयोग करके कार्य सिद्ध करना चाहिये, परन्तु राम न तो अस्थिर बुद्धि है और न व्याधिग्रस्त। वह तो दृढ़ निश्चय के साथ आपसे युद्ध करने के लिये आया है, इसलिये उस पर विजय प्राप्त करना सरल नहीं है। यह कौन जानता था कि एक छोटा सा वानर हनुमान इतना विशाल सागर पार करके लंका में घुस आयेगा। परन्तु वह केवल आया ही नहीं, लंका को भी विध्वंस कर गया। इस एक घटना से हमें राम की शक्ति का अनुमान लगा लेना चाहिये। उस सेना में हनुमान जैसे लाखों वानर हैं जो राम के लिये अपने प्राणों की भी बलि चढ़ा सकते हैं। इसलिये मेरी सम्मति है कि आप राम को सीता लौटा दें और लंका को भारी संकट से बचा लें। यदि ऐसा न किया गया तो मुझे भय है कि लंका का सर्वनाथ हो जायेगा। राम-लक्ष्मण के तीक्ष्ण बाणों से लंका का एक भी नागरिक जीवित नहीं बचेगा। आप मेरे प्रस्ताव पर गम्भीरता से विचार करें। यह मेरा निवेदन है।" रावण ने विभीषण की बात का कोई उत्तर नहीं दिाय और वह सबको विदा कर अपने रनिवास में चला गया।

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