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Indian Spirituality => Stories from Ancient India => Topic started by: JR on March 10, 2007, 03:46:06 AM
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प्रातःकाल बड़े उदास मन से लक्ष्मण ने सुमन्त से सुन्दर घोड़ों से युक्त रथ लाने के लिये कहा। उसमें सीता जी के लिये एक सुरम्य आसन लगाने का भी आदेश दिया। सुमन्त के पूछने पर बताया कि उन्हें जानकी के साथ महर्षियों के आश्रम पर जाना है। रथ आ जाने पर लक्ष्मण सीता जी के पास जाकर बोले, "देवि! आपने महाराज से मुनियों के आश्रमों में जाने की अभिलाषा प्रकट की थी। अतएव मैं महाराज की आज्ञा से तैयार होकर आ गया हूँ ताकि आपको गंगा तट पर ऋषियों के सुन्दर आश्रमों तक पहुँचा सकूँ।
लक्ष्मण के वचन सुनकर सीता जी प्रन्नतापूर्व उनके साथ चलने को तैयार हो गईं। मुनिपत्नियों को देने के लिये उन्होंने अपने साथ बहुत से बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण और नाना प्रकार के रत्न ले लिये। उन दोनों को रथ पर सवार कराकर सुमन्त द्रुतगति से रथ को वन की ओर ले चला। मार्ग में सीता लक्ष्मण से कहने लगी, "वीरवर! मुझे बहत से अपशकुन दिखाई दे रहे हैं। मेरी दायीं आँख फड़क रही है, शरीर काँप रहा है, हृदय अस्वस्थ सा प्रतीत हो रहा है। तुम्हारे भाई कुशल से तो हैं? मेरी सब सासुएँ सानन्द तो हैं?" सीता की अधीर वाणी सुनकर लक्ष्मण ने अपने मन की उदासी दबाकर उन्हें धैर्य बँधाया। गोमती के तट पर पहुँचकर एक आश्रम में उन्होंने रात व्यतीत की। दूसरे दिन प्रातःकाल वे आगे चले और दोपहर तक गंगा के किनारे पर जा पहुँचे। गंगा की जलधारा को देखते ही लक्ष्मण के नेत्रों से जलधारा बह चली और वे फूट-फूट कर रोने लगे। सीता ने चिन्तित होकर उनसे रोने का कारण पूछा। लक्ष्मण ने उनके प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया और रथ से उतर नौका पर सवार हो सीता सहित गंगा के दूसरे तट पर जा पहुँचे।
गंगा के उस तट पर नौका से उतर लक्ष्मण सीता से हाथ जोड़कर बोले, "देवि! आज मुझे बड़े भैया ने वह काम सौंपा है जिससे सारे लोक में मेरी भारी निन्दा होगी। मुझे यह बताते हुये भारी पीड़ा हो रही है कि अयोध्या में आपके लंका प्रवास की बात को लेकर भारी अपवाद फैल गया है। इससे अत्यन्त दुःखी होकर महाराज राम ने आपका परित्याग कर दिया है और मुझे आपको यहाँ गंगा तट पर छोड़ जाने का आदेश दिया है। वैसे यह स्थान सर्वथा निरापद है क्योंकि यहाँ महायशस्वी ब्रह्मर्षि वाल्मीकि जी का आश्रम है। आप यहाँ उपवास परायण आदि करती हुईं धार्मिक जीवन व्यतीत करें।"
लक्ष्मण के ये कठोर वचन सुनकर जनकनन्दिनी को ऐसा आघात लगा कि वे मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं। फिर चेतना आने पर बोलीं, "लक्ष्मण! क्या विधाता ने मुझे जीवन भर दुःख भोगने के लिये ही उत्पन्न किया है? पहले मुझे राघव से अलग होकर लंका में रहना पड़ा और अब उन्होंने मुझे सदा के लिये त्याग दिया। लक्ष्मण! मेरी समझ में यह नहीं आता कि यदि मुनिजन मुझसे यह पूछेंगे कि तुम्हें श्रीराम ने किस अपराध के कारण त्यागा है तो मैं उन्हें क्या उत्तर दूँगी? मेरी सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि मैं गंगाजी में डूब कर अपने प्राण भी विसर्जन नहीं कर सकती, क्योंकि ऐसा करने से मेरे पति का राजवंश नष्ट हो जायेगा। तुम दुःखी क्यों होते हो? तुम तो महाराज की आज्ञा का ही पालन कर रहे हो, जो तुम्हारा कर्तव्य है। जाओ, तुम लौट जाओ और सबसे मेरा सादर प्रणाम कहना।"
सीता से आज्ञा लेकर अत्यन्त दुःखी मन से लक्ष्मण मृतप्राय शरीर को ढोते हुये रथ पर बैठे और बैठते ही मूर्छित हो गये। मूर्छा दूर होने पर वे फिर आँसू बहाने लगे।
उधर सीता विलाप करती हुई चीत्कार करने लगी। दो मुनिकुमारों ने सीता को इस प्रकार विलाप करते देखा तो उन्होंने ब्रह्मर्षि वाल्मीकि के पास जाकर इसका वर्णन किया। यह समाचार सुनकर वाल्मीकि जी सीता जी के पास पहुँचे और बोले, "पतिव्रते! मैंने अपने योगबल से जान लिया है कि तुम राजा दशरथ की पुत्रवधू और मिथिलेश की पुत्री हो। मुझे तुम्हारे परित्याग की बात भी मालूम हो चुकी है। इसलिये तुम मेरे आश्रम में चलकर अन्य तपस्विनी नारियों के साथ निश्चिंत होकर निवास करो। वे तुम्हारी यथोचित देखभाल करेंगीं।" मुनि के वचन सुनकर सीता ने उन्हें श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया और महर्षि के आश्रम में आकर रहने लगी।