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Indian Spirituality => Stories from Ancient India => Topic started by: JR on March 12, 2007, 07:57:23 AM

Title: रामायण – उत्तरकाण्ड - अश्‍वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान
Post by: JR on March 12, 2007, 07:57:23 AM
सब भाइयों के आग्रह को मानकर रामचन्द्र जी ने वशिष्ठ, वामदेव, जाबालि, काश्यप आदि ऋषियों को बुलाकर परामर्श किया। उनकी स्वीकृति मिल जाने पर वानरराज सुग्रीव को सन्देश भेजा गया कि वे विशाल वानर सेना के साथ यज्ञोत्सव में भाग लेने के लिये आवें। फिर विभीषण सहित अन्य राज-महाराजाओं को भी इसी प्रकार के सन्देश और निमन्त्रण भेजे गये। संसार भर के ऋषि-महर्षियों को भी सपरिवार आमन्त्रित किया गया। कुशल कलाकारों द्वारा नैमिषारण्य में गोमती तट पर विशाल एवं कलापूर्ण यज्ञ मण्डप बनाने की व्यवस्था की गई। विशाल हवन सामग्री के साथ आगन्तुकों के भोजन, निवास आदि के लिये बहुत बड़े पैमाने पर प्रबन्ध किया गया। नैमिषारण्य में दूर-दूर तक बड़े-बड़े बाजार लगवाये गये। सीता की सुवर्णमय प्रतिमा बनवाई गई। लक्ष्मण को एक विशाल सेना और शुभ लक्षणों से सम्पन्न कृष्ण वर्ण अश्‍व के साथ विश्‍व भ्रमण के लिये भेजा गया।

देश-देश के राजाओं ने श्रीराम को अद्‍भुत उपहार भेंट करके अपने पूर्ण सहयोग का आश्‍वासन दिया। आगत याचकों को मनचाही वस्तुएँ संकेतमात्र से ही दी जा रही थीं। उस यज्ञ को देखकर ऋषि-मुनियों का कहना था कि ऐसा यज्ञ पहले कभी नहीं हुआ। यह यज्ञ एक वर्ष से भी अधिक समय तक चलता रहा। इस यज्ञ में सम्मिलित होने के लिये महर्षि वाल्मीकि भी अपने शिष्यों सहित पधारे। जब उनके निवास की समुचित व्यवस्था हो गई तो उन्होंने अपनरे दो शिष्यों लव और कुश को आज्ञा दी कि वे दोनों भाई नगर में सर्वत्र घूमकर रामायण काव्य का गान करें। उनसे यह भी कहा कि जब तुमसे कोई पूछे कि तुम किसके पुत्र हो तो तुम केवल इतना कहना कि हम ऋषि वाल्मीकि के शिष्य हैं। यह आदेश पाकर सीता के दोनों पुत्र रामायण का सस्वर गान करने के लिये चल पड़े।

लव-कुश द्वारा रामायण गान

जब-लव कुश अपने रामायण गान से पुरवासियों एवं आगन्तुकों का मन मोहने लगे तब एक दिन श्रीराम ने उन दोनों बालकों को अपनी राजसभा में बुलाया। उस समय राजसभा में श्रेष्ठ नैयायिक, दर्शन एवं कल्पसूत्र के विद्वान, संगीत तथा छन्द कला मर्मज्ञ, विभिन्न शास्त्रों के ज्ञाता, ब्रह्मवेत्ता आदि मनीषि विद्यमान थे। लव-कुश को देखकर सबको ऐसा प्रतीत होता था मानो दोनों श्रीराम के ही प्रतिरूप हैं। यदि इनके सिर पर जटाजूट और शरीर पर वल्कल न होते तो इनमें और श्रीराम में कोई अन्तर दिखाई न देता। दोनों भाइयों ने अपराह्न तक प्रारम्भिक बीस सर्गों का गान किया और उस दिन का कार्यक्रम समाप्त किया। पाठ समाप्त होने पर श्रीराम ने भरत को आदेश दिया कि दोनों भाइयों को अट्ठारह हजार स्वर्ण मुद्राएँ दी जायें, किन्तु लव-कुश ने उसे लेने से इन्कार कर दिया और कहा कि हम वनवासी हैं, हमें धन की क्या आवश्यकता है। इससे श्रीराम सहित सब श्रोताओं को भारी आश्‍चर्य हुआ। उन्होंने पूछा, "यह काव्य किसने लिखा है और इसमें कितने श्‍लोक हैं?"

यह सुनकर उन मुनिकुमारों ने बताया, "महर्षि वाल्मीकि ने इस महाकाव्य की रचना की है। इसमें चौबीस हजार श्‍लोक और एक सौ उपाख्यान हैं। इसमें कुल पाँच सर्ग और छः काण्ड हैं। इसके अतिरिक्‍त उत्तरकाण्ड इसका सातवाँ काण्ड है। आपका चरित्र ही इस महाकाव्य का विषय है।" यह सुनकर रघुनाथ जी ने यज्ञ समाप्त होने के पश्‍चात् सम्पूर्ण महाकाव्य सुनने की इच्छा प्रकट की। इस काव्य-कथा को सुनकर उन्हें पता चला कि कुश और लव सीता के ही सुपुत्र हैं।