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Author Topic: सुन्दरकाण्ड  (Read 5844 times)

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सुन्दरकाण्ड
« on: August 18, 2007, 04:07:45 AM »
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  • सुन्दरकाण्ड

    अथ तुलसीदास कृत रामचरितमानस सुन्दरकाण्ड ..
    श्रीगणेशाय नमः
    श्रीजानकीवल्लभोविजयते
    श्रीरामचरितमानस
    पञ्चम सोपान
    सुन्दरकाण्ड

    श्लोक
    शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
    ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदांतवेद्यं विभुम् .
    रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
    वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम् .. १ ..

    नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
    सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा .
    भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे
    कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च .. २ ..

    अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
    दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् .
    सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
    रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि .. ३ ..

    जामवंत के बचन सुहाए . सुनि हनुमंत हृदय अति भाए ..
    तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई . सहि दुख कंद मूल फल खाई .. १ ..
    जब लगि आवौं सीतहि देखी . होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी ..
    यह कह नाइ सबन्हि कहुँ माथा . चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा .. २ ..
    सिंधु तीर एक भूधर सुंदर . कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर ..
    बार बार रघुबीर सँभारी . तरकेउ पवनतनय बल भारी .. ३ ..
    जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता . चलेउ सो गा पाताल तुरंता ..
    जिमि अमोघ रघुपति कर बाना . एही भाँति चलेउ हनुमाना .. ४ ..
    जलनिधि रघुपति दूत बिचारी . तैं मैनाक होहि श्रमहारी .. ५ ..

    दोहा
    हनुमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम .
    राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ विश्राम .. १ ..

    जात पवनसुत देवन्ह देखा . जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा ..
    सुरसा नाम अहिन्ह कै माता . पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता .. १ ..
    आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा . सुनत बचन कह पवनकुमारा ..
    राम काजु करि फिरि मैं आवौं . सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं .. २ ..
    तब तव बदन पैठिहउँ आई . सत्य कहउँ मोहि जान दे माई ..
    कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना . ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना .. ३ ..
    जोजन भरि तिहिं बदनु पसारा . कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा ..
    सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ . तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ .. ४ ..
    जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा . तासु दून कपि रूप देखावा ..
    सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा . अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा .. ५ ..
    बदन पइठि पुनि बाहेर आवा . मागा बिदा ताहि सिरु नावा ..
    मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा . बुधि बल मरमु तोर मैं पावा .. ६ ..

    दोहा
    राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान .
    आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान .. २ ..

    निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई .. करि माया नभु के खग गहई ..
    जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं . जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं .. १ ..
    गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई . एहि बिधि सदा गगनचर खाई ..
    सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा . तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा .. २ ..
    ताहि मारि मारुतसुत बीरा . बारिधि पार गयउ मतिधीरा ..
    तहाँ जाइ देखी बन सोभा . गुंजत चंचरीक मधु लोभा .. ३ ..
    नाना तरु फल फूल सुहाए . खग मृग बृंद देखि मन भाए ..
    सैल बिसाल देखि एक आगें . ता पर धाइ चढ़ेउ भय त्यागें .. ४ ..
    उमा न कछु कपि कै अधिकाई .. प्रभु प्रताप जो कालहि खाई ..
    गिरि पर चढ़ि लंका तेहि देखी . कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी .. ५ ..
    अति उतंग जलनिधि चहु पासा . कनक कोटि कर परम प्रकासा .. ६ ..

    छंद
    कनक कोटि बिचित्र मणि कृत सुंदरायतना घना .
    चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहुबिधि बना ..
    गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गनै .
    बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै .. १ ..
    बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं .
    नर नाग सुर गंधर्व कन्या रूप मुनि मन मोहहीं ..
    कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं .
    नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं .. २ ..
    करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं .
    कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं ..
    एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही .
    रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही .. ३ ..

    दोहा
    पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार .
    अति लघु रूप धरौं निसि नगर करौं पइसार .. ३ ..

    मसक समान रूप कपि धरी . लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी ..
    नाम लंकिनी एक निसिचरी . सो कह चलेसि मोहि निंदरी .. १ ..
    जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा . मोर अहार जहाँ लगि चोरा ..
    मुठिका एक महा कपि हनी . रुधिर बमत धरनीं डनमनी .. २ ..
    पुनि संभारि उठी सो लंका . जोरि पानि कर बिनय ससंका ..
    जब रावनहि ब्रह्म कर दीन्हा . चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा .. ३..
    बिकल होसि तैं कपि कें मारे . तब जानेसु निसिचर संघारे ..
    तात मोर अति पुन्य बहूता . देखेउँ नयन राम कर दूता .. ४ ..

    दोहा
    तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग .
    तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग .. ४ ..

    प्रबिसि नगर कीजे सब काजा . हृदयँ राखि कोसलपुर राजा ..
    गरल सुधा रिपु करहिं मिताई . गोपद सिंधु अनल सितलाई .. १ ..
    गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही . राम कृपा करि चितवा जाही ..
    अति लघु रूप धरेउ हनुमाना . पैठा नगर सुमिरि भगवाना .. २ ..
    मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा . देखे जहँ तहँ अगनित जोधा ..
    गयउ दसानान मंदिर माहीं . अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं .. ३ ..
    सयन किएँ देखा कपि तेही . मंदिर महुँ न दीखि बैदेही ..
    भवन एक पुनि दीख सुहावा . हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा .. ४ ..

    दोहा
    रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ .
    नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराइ .. ५ ..

    लंका निसिचर निकर निवासा . इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा ..
    मन महुँ तरक करैं कपि लागा . तेहीं समय बिभीषनु जागा .. १ ..
    राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा . हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा ..
    एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी . साधु ते होइ न कारज हानी .. २ ..
    बिप्र रूप धरि बचन सुनाए . सुनत बिभीषन उठि तहँ आए ..
    करि प्रनाम पूँछी कुसलाई . बिप्र कहहु निज कथा बुझाई .. ३ ..
    की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई . मोरें हृदय प्रीति अति होई ..
    की तुम्ह रामु दीन अनुरागी . आयहु मोहि करन बड़भागी .. ४ ..

    दोहा
    तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम .
    सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम .. ६ ..

    सुनहु पवनसुत रहनि हमारी . जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी ..
    तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा . करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा .. १ ..
    तामस तनु कछु साधन नाहीं . प्रीति न पद सरोज मन माहीं ..
    अब मोहि भा भरोस हनुमंता . बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता .. २ ..
    जौं रघुबीर अनुग्रह कीन्हा . तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा ..
    सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती . करहिं सदा सेवक पर प्रीती .. ३ ..
    कहहु कवन मैं परम कुलीना . कपि चंचल सबहीं बिधि हीना ..
    प्रात लेइ जो नाम हमारा . तेहि दिन ताहि न मिले अहारा .. ४ ..

    दोहा
    अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर .
    कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर .. ७ ..

    जानतहूँ अस स्वामि बिसारी . फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी ..
    एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा . पावा अनिर्बाच्य विश्रामा .. १ ..
    पुनि सब कथा बिभीषन कही . जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही ..
    तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता . देखी चलेउँ जानकी माता .. २ ..
    जुगुति बिभीषन सकल सुनाई . चलेउ पवनसुत बिदा कराई ..
    करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ . बन असोक सीता रह जहवाँ .. ३ ..
    देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा . बैठेहिं बीति जात निसि जामा ..
    कृस तनु सीस जटा एक बेनी . जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी .. ४ ..

    दोहा
    निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन .
    परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन .. ८ ..

    तरु पल्लव महुँ रहा लुकाई . करइ बिचार करौं का भाई ..
    तेहि अवसर रावनु तहँ आवा . संग नारि बहु किएँ बनावा .. १ ..
    बहु बिधि खल सीतहि समुझावा . साम दान भय भेद देखावा ..
    कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी . मंदोदरी आदि सब रानी .. २ ..
    तव अनुचरीं करेउँ पन मोरा . एक बार बिलोकु मम ओरा ..
    तृन धरि ओट कहति बैदेही . सुमिरि अवधपति परम सनेही .. ३ ..
    सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा . कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा ..
    अस मन समुझु कहति जानकी . खल सुधि नहिं रघुबीर बान की .. ४ ..
    सठ सूनें हरि आनेहि मोही . अधम निलज्ज लाज नहिं तोही .. ५ ..

    दोहा
    आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान .
    परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन .. ९ ..

    सीता तैं मम कृत अपमाना . कटिहउँ तब सिर कठिन कृपाना ..
    नाहिं त सपदि मानु मम बानी . सुमुखि होति न त जीवन हानी .. १ ..
    स्याम सरोज दाम सम सुंदर . प्रभु भुज करि कर सम दसकंदर ..
    सो भुज कंठ कि तव असि घोरा . सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा .. २ ..
    चंद्रहास हरु मम परितापं . रघुपति बिरह अनल संजातं ..
    सीतल निसित बहसि बर धारा . कह सीता हरु मम दुख भारा .. ३ ..
    सुनत बचन पुनि मारन धावा . मयतनयाँ कहि नीति बुझावा ..
    कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई . सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई .. ४ ..
    मास दिवस महुँ कहा न माना . तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना .. ५ ..

    दोहा
    भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि बृंद .
    सीतहि त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मंद .. १० ..

    त्रिजटा नाम राच्छसी एका . राम चरन रति निपुन बिबेका ..
    सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना . सीतहि सेइ करहु हित अपना .. १ ..
    सपनें बानर लंका जारी . जातुधान सेना सब मारी ..
    खर आरूढ़ नगन दससीसा . मुंडित सिर खंडित भुज बीसा .. २ ..
    एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई . लंका मनहुँ बिभीषन पाई ..
    नगर फिरी रघुबीर दोहाई . तब प्रभु सीता बोलि पठाई .. ३ ..
    यह सपना मैं कहउँ पुकारी . होइहि सत्य गएँ दिन चारी ..
    तासु बचन सुनि ते सब डरीं . जनकसुता के चरनन्हि परीं .. ४ ..

    दोहा
    जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच .
    मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच .. ११ ..

    त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी . मातु बिपति संगिनि तैं मोरी ..
    तजौं देह करु बेगि उपाई . दुसह बिरहु अब नहिं सहि जाई .. १ ..
    आनि काठ रचु चिता बनाई . मातु अनल पुनि देहु लगाई ..
    सत्य करहि मम प्रीति सयानी . सुनै को श्रवन सूल सम बानी .. २ ..
    सुनत बचन पद गहि समुझाएसि . प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि ..
    निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी . अस कहि सो निज भवन सिधारी .. ३ ..
    कह सीता बिधि भा प्रतिकूला . मिलिहि न पावक मिटिहि न सूला ..
    देखिअत प्रगट गगन अंगारा . अवनि न आवत एकउ तारा .. ४ ..
    पावकमय ससि स्रवत न आगी . मानहुँ मोहि जानि हतभागी ..
    सुनहि बिनय मम बिटप असोका . सत्य नाम करु हरु मम सोका .. ५ ..
    नूतन किसलय अनल समाना . देहि अगिनि जनि करहि निदाना ..
    देखि परम बिरहाकुल सीता . सो छन कपिहि कलप सम बीता .. ६ ..

    दोहा
    कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब .
    जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ .. १२ ..

    तब देखी मुद्रिका मनोहर . राम नाम अंकित अति सुंदर ..
    चकित चितव मुदरी पहिचानी . हरष विषाद हृदयँ अकुलानी .. १ ..
    जीति को सकइ अजय रघुराई . माया तें असि रचि नहिं जाई ..
    सीता मन बिचार कर नाना . मधुर बचन बोलेउ हनुमाना .. २ ..
    रामचंद्र गुन बरनैं लागा . सुनतहिं सीता कर दुख भागा ..
    लागीं सुनैं श्रवन मन लाई . आदिहु तें सब कथा सुनाई .. ३ ..
    श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई . कही सो प्रगट होति किन भाई ..
    तब हनुमंत निकट चलि गयऊ . फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ .. ४ ..
    राम दूत मैं मातु जानकी . सत्य सपथ करुनानिधान की ..
    यह मुद्रिका मातु मैं आनी . दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी .. ५ ..
    नर बानरहि संग कहु कैसें . कही कथा भई संगति जैसें .. ६ ..

    दोहा
    कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास .
    जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास .. १३ ..

    हरिजन हानि प्रीति अति गाढ़ी . सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी ..
    बूड़त बिरह जलधि हनुमाना . भयहु तात मो कहुँ जलजाना .. १ ..
    अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी . अनुज सहित सुख भवन खरारी ..
    कोमलचित कृपाल रघुराई . कपि केहि हेतु धरी निठुराई .. २ ..
    सहज बानि सेवक सुख दायक . कबहुँक सुरति करत रघुनायक ..
    कबहुँ नयन मम सीतल ताता . होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता .. ३ ..
    बचनु न आव नयन भरे बारी . अहह नाथ हौं निपट बिसारी ..
    देखि परम बिरहाकुल सीता . बोला कपि मृदु बचन बिनीता .. ४ ..
    मातु कुसल प्रभु अनुज समेता . तव दुख दुखी सुकृपा निकेता ..
    जनि जननी मानहु जियँ ऊना . तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना .. ५ ..

    दोहा
    रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर .
    अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर .. १४ ..

    कहेउ राम बियोग तव सीता . मो कहुँ सकल भए बिपरीता ..
    नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू . कालनिसा सम निसि ससि भानू .. १ ..
    कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा . बारिद तपत तेल जनु बरिसा ..
    जे हित रहे करत तेइ पीरा . उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा .. २ ..
    कहेहू तें कछु दुख घटि होई . काहि कहौं यह जान न कोई ..
    तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा . जानत प्रिया एकु मनु मोरा .. ३ ..
    सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं . जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं ..
    प्रभु संदेसु सुनत बैदेही . मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही .. ४ ..
    कह कपि हृदयँ धीर धरु माता . सुमिरु राम सेवक सुखदाता ..
    उर आनहु रघुपति प्रभुताई . सुनि मम बचन तजहु कदराई .. ५ ..

    दोहा
    निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु .
    जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु .. १५ ..

    जौं रघुबीर होति सुधि पाई . करते नहिं बिलंबु रघुराई ..
    राम बान रबि उएँ जानकी . तम बरूथ कहँ जातुधान की .. १ ..
    अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई . प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई ..
    कछुक दिवस जननी धरु धीरा . कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा .. २ ..
    निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं . तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं ..
    हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना . जातुधान अति भट बलवाना .. ३ ..
    मोरें हृदय परम संदेहा . सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा ..
    कनक भूधराकार सरीरा . समर भयंकर अतिबल बीरा .. ४ ..
    सीता मन भरोस तब भयऊ . पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ .. ५ ..

    दोहा
    सुनु मात साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल .
    प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल .. १६ ..

    मन संतोष सुनत कपि बानी . भगति प्रताप तेज बल सानी ..
    आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना . होहु तात बल सील निधाना .. १ ..
    अजर अमर गुननिधि सुत होहू . करहुँ बहुत रघुनायक छोहू ..
    करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना . निर्भर प्रेम मगन हनुमाना .. २ ..
    बार बार नाएसि पद सीसा . बोला बचन जोरि कर कीसा ..
    अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता . आसिष तव अमोघ बिख्याता .. ३ ..
    सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा . लागि देखि सुंदर फल रूखा ..
    सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी . परम सुभट रजनीचर भारी .. ४ ..
    तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं . जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं .. ५ ..

    दोहा
    देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु .
    रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु .. १७ ..

    चलेउ नाइ सिर पैठेउ बागा . फल खाएसि तरु तौरैं लागा ..
    रहे तहां बहु भट रखवारे . कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे .. १ ..
    नाथ एक आवा कपि भारी . तेहिं असोक बाटिका उजारी ..
    खाएसि फल अरु बिटप उपारे . रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे .. २ ..
    सुनि रावन पठए भट नाना . तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना ..
    सब रजनीचर कपि संघारे . गए पुकारत कछु अधमारे .. ३ ..
    पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा . चला संग लै सुभट अपारा ..
    आवत देखि बिटप गहि तर्जा . ताहि निपाति महाधुनि गर्जा .. ४ ..

    दोहा
    कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि .
    कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि .. १८ ..

    सुनि सुत बध लंकेस रिसाना . पठएसि मेघनाद बलवाना ..
    मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही . देखिअ कपिहि कहाँ कर आही .. १ ..
    चला इंद्रजित अतुलित जोधा . बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा ..
    कपि देखा दारुन भट आवा . कटकटाइ गर्जा अरु धावा .. २ ..
    अति बिसाल तरु एक उपारा . बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा ..
    रहे महाभट ताके संगा . गहि गहि कपि मर्दइ निज अंगा .. ३ ..
    तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा . भिरे जुगल मानहुँ गजराजा ..
    मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई . ताहि एक छन मुरुछा आई .. ४ ..
    उठि बहोरि कीन्हसि बहु माया . जीति न जाइ प्रभंजन जाया .. ५ ..

    दोहा
    ब्रह्म अस्त्र तेहि साँधा कपि मन कीन्ह बिचार .
    जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार .. १९ ..

    ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहिं मारा . परतिहुँ बार कटकु संघारा ..
    तेहिं देखा कपि मुरुछित भयउ . नागपास बांधेसि लै गयउ .. १ ..
    जासु नाम जपि सुनहु भवानी . भव बंधन काटहिं नर ग्यानी ..
    तासु दूत कि बंध तरु आवा . प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा .. २ ..
    कपि बंधन सुनि निसिचर धाए . कौतुक लागि सभाँ सब आए ..
    दसमुख सभा दीखि कपि जाई . कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई .. ३ ..
    कर जोरें सुर दिसिप बिनीता . भृकुटि बिलोकत सकल सभीता ..
    देखि प्रताप न कपि मन संका . जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका .. ४ ..

    दोहा
    कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद .
    सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिषाद .. २० ..

    कह लंकेस कवन तैं कीसा . केहि कें बल घालेहि बन खीसा ..
    की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही . देखउँ अति असंक सठ तोही .. १ ..
    मारे निसिचर केहिं अपराधा . कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा ..
    सुनु रावन ब्रह्मांड निकाया . पाइ जासु बल बिरचित माया .. २ ..
    जाकें बल बिरंचि हरि ईसा . पालत सृजत हरत दससीसा ..
    जा बल सीस धरत सहसानन . अंडकोस समेत गिरि कानन .. ३ ..
    धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता . तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता ..
    हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा . तेहि समेत नृप दल मद गंजा .. ४ ..
    खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली . बधे सकल अतुलित बलसाली .. ५ ..

    दोहा
    जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि .
    तासु दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि .. २१ ..

    जानेउ मैं तुम्हारि प्रभुताई . सहसबाहु सन परी लराई ..
    समर बालि सन करि जसु पावा . सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा .. १ ..
    खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा . कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा ..
    सब कें देह परम प्रिय स्वामी . मारहिं मोहि कुमारग गामी .. २ ..
    जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे . तेहि पर बाँधेउँ तनयँ तुम्हारे ..
    मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा . कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा .. ३ ..
    बिनती करउँ जोरि कर रावन . सुनहु मान तजि मोर सिखावन ..
    देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी . भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी .. ४ ..
    जाकें डर अति काल डेराई . जो सुर असुर चराचर खाई ..
    तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै . मोरे कहें जानकी दीजै .. ५ ..

    दोहा
    प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि .
    गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि .. २२ ..

    राम चरन पंकज उर धरहू . लंकाँ अचल राज तुम्ह करहू ..
    रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयंका . तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका .. १ ..
    राम नाम बिनु गिरा न सोहा . देखु बिचारि त्यागि मद मोहा ..
    बसन हीन नहिं सोह सुरारी . सब भूषन भूषित बर नारी .. २ ..
    राम बिमुख संपति प्रभुताई . जाइ रही पाई बिनु पाई ..
    सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं . बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं .. ३ ..
    सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी . बिमुख राम त्राता नहिं कोपी ..
    संकर सहस बिष्नु अज तोही . सकहिं न राखि राम कर द्रोही .. ४ ..

    दोहा
    मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान .
    भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान .. २३ ..

    जदपि कही कपि अति हित बानी . भगति बिबेक बिरति नय सानी ..
    बोला बिहसि महा अभिमानी . मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी .. १ ..
    मृत्यु निकट आई खल तोही . लागेसि अधम सिखावन मोही ..
    उलटा होइहि कह हनुमाना . मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना .. २ ..
    सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना . बेगि न हरहु मूढ़ कर प्राना ..
    सुनत निसाचर मारन धाए . सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए .. ३ ..
    नाइ सीस करि बिनय बहूता . नीति बिरोधा न मारिअ दूता ..
    आन दंड कछु करिअ गोसाँई . सबहीं कहा मंत्र भल भाई .. ४ ..
    सुनत बिहसि बोला दसकंधर . अंग भंग करि पठइअ बंदर .. ५ ..

    दोहा
    कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ .
    तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ .. २४ ..

    पूँछ हीन बानर तहँ जाइहि . तब सठ निज नाथहि लइ आइहि ..
    जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बड़ाई . देखउँ मैं तिन्ह कै प्रभुताई .. १ ..
    बचन सुनत कपि मन मुसुकाना . भइ सहाय सारद मैं जाना ..
    जातुधान सुनि रावन बचना . लागे रचें मूढ़ सोइ रचना .. २ ..
    रहा न नगर बसन घृत तेला . बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला ..
    कौतुक कहँ आए पुरबासी . मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी .. ३ ..
    बाजहिं ढोल देहिं सब तारी . नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी ..
    पावक जरत देखि हनुमंता . भयउ परम लघुरूप तुरंता .. ४ ..
    निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारीं . भइँ सभीत निसाचर नारीं .. ५ ..

    दोहा
    हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास .
    अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास .. २५ ..

    देह बिसाल परम हरुआई . मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई ..
    जरइ नगर भा लोग बिहाला . झपट लपट बहु कोटि कराला .. १ ..
    तात मातु हा सुनिअ पुकारा . एहिं अवसर को हमहि उबारा ..
    हम जो कहा यह कपि नहिं होई . बानर रूप धरें सुर कोई .. २ ..
    साधु अवग्या कर फलु ऐसा . जरइ नगर अनाथ कर जैसा ..
    जारा नगर निमिष एक माहीं . एक बिभीषन कर गृह नाहीं .. ३ ..
    ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा . जरा न सो तेहि कारन गिरिजा ..
    उलटि पलटि लंका सब जारी . कूदि परा पुनि सिंधु मझारी .. ४ ..

    दोहा
    पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि .
    जनकसुता कें आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि .. २६ ..

    मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा . जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा ..
    चूड़ामनि उतारि तब दयऊ . हरष समेत पवनसुत लयऊ .. १ ..
    कहेहु तात अस मोर प्रनामा . सब प्रकार प्रभु पूरनकामा ..
    दीन दयाल बिरिदु सँभारी . हरहु नाथ मम संकट भारी .. २ ..
    तात सक्रसुत कथा सुनाएहु . बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु ..
    मास दिवस महुँ नाथ न आवा . तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा .. ३ ..
    कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना . तुम्हहू तात कहत अब जाना ..
    तोहि देखि सीतलि भइ छाती . पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती .. ४ ..

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    Re: सुन्दरकाण्ड
    « Reply #1 on: August 18, 2007, 04:10:19 AM »
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  • दोहा
    जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह .
    चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह .. २७ ..

    चलत महाधुनि गर्जेसि भारी . गर्भ स्रवहिं सुनि निसिचर नारी ..
    नाघि सिंधु एहि पारहि आवा . सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा .. १ ..
    हरषे सब बिलोकि हनुमाना . नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना ..
    मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा . कीन्हेसि रामचंद्र कर काजा .. २ ..
    मिले सकल अति भए सुखारी . तलफत मीन पाव जिमि बारी ..
    चले हरषि रघुनायक पासा . पूँछत कहत नवल इतिहासा .. ३ ..
    तब मधुबन भीतर सब आए . अंगद संमत मधु फल खाए ..
    रखवारे जब बरजन लागे मुष्टि प्रहार हनत सब भागे .. ४ ..

    दोहा
    जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज .
    सुन सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज .. २८ ..

    जौं न होति सीता सुधि पाई . मधुबन के फल सकहिं कि खाई ..
    एहि बिधि मन बिचार कर राजा . आइ गए कपि सहित समाजा .. १ ..
    आइ सबन्हि नावा पद सीसा . मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा ..
    पूँछी कुसल कुसल पद देखी . राम कृपाँ भा काजु बिसेषी .. २ ..
    नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना . राखे सकल कपिन्ह के प्राना ..
    सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ . कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ .. ३ ..
    राम कपिन्ह जब आवत देखा . किएँ काजु मन हरष बिसेषा ..
    फटिक सिला बैठे द्वौ भाई . परे सकल कपि चरनन्हि जाई .. ४ ..

    दोहा
    प्रीति सहित सब भेटे रघुपति करुना पुंज .
    पूँछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज .. २९..

    जामवंत कह सुनु रघुराया . जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया ..
    ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर . सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर .. १ ..
    सोइ बिजई बिनई गुन सागर . तासु सुजसु त्रैलोक उजागर ..
    प्रभु कीं कृपा भयउ सब काजू . जन्म हमार सुफल भा आजू .. २ ..
    नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी . सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी ..
    पवनतनय के चरित सुहाए . जामवंत रघुपतिहि सुनाए .. ३ ..
    सुनत कृपानिधि मन अति भाए . पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए ..
    कहहु तात केहि भाँति जानकी . रहति करति रच्छा स्वप्रान की .. ४ ..

    दोहा
    नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट .
    लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट .. ३० ..

    चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही . रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही ..
    नाथ जुगल लोचन भरि बारी . बचन कहे कछु जनककुमारी .. १ ..
    अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना . दीन बंधु प्रनतारति हरना ..
    मन क्रम बचन चरन अनुरागी . केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी .. २..
    अवगुन एक मोर मैं माना . बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना ..
    नाथ सो नयनन्हि को अपराधा . निसरत प्रान करहिं हठि बाधा .. ३ ..
    बिरह अगिनि तनु तूल समीरा . स्वास जरइ छन माहिं सरीरा ..
    नयन स्रवहिं जलु निज हित लागी . जरैं न पाव देह बिरहागी .. ४ ..
    सीता कै अति बिपति बिसाला . बिनहिं कहें भलि दीनदयाला .. ५ ..

    दोहा
    निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति .
    बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति .. ३१ ..

    सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना . भरि आए जल राजिव नयना ..
    बचन कायँ मन मम गति जाही . सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही .. १ ..
    कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई . जब तव सुमिरन भजन न होई ..
    केतिक बात प्रभु जातुधान की . रिपुहि जीति आनिबी जानकी .. २ ..
    सुनु कपि तोहि समान उपकारी . नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी ..
    प्रति उपकार करौं का तोरा . सनमुख होइ न सकत मन मोरा .. ३ ..
    सुनु सत तोहि उरिन मैं नाहीं . देखेउँ करि बिचार मन माहीं ..
    पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता . लोचन नीर पुलक अति गाता .. ४ ..

    दोहा
    सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत .
    चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत .. ३२ ..

    बार बार प्रभु चहइ उठावा . प्रेम मगन तेहि उठब न भावा ..
    प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा . सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा .. १ ..
    सावधान मन करि पुनि संकर . लागे कहन कथा अति सुंदर ..
    कपि उठाइ प्रभु हृदयँ लगावा . कर गहि परम निकट बैठावा .. २ ..
    कहु कपि रावन पालित लंका . केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका ..
    प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना . बोला बचन बिगत हनुमाना .. ३ ..
    साखामृग कै बड़ि मनुसाई . साखा तें साखा पर जाई ..
    नाघि सिंधु हाटकपुर जारा . निसिचर गन बिधि बिपिन उजारा .. ४ ..
    सो सब तव प्रताप रघुराई . नाथ न कछू मोरि प्रभुताई .. ५ ..

    दोहा
    ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल .
    तव प्रभावँ वड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल .. ३३ ..

    नाथ भगति अति सुखदायनी . देहु कृपा करि अनपायनी ..
    सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी . एवमस्तु तब कहेउ भवानी .. १ ..
    उमा राम सुभाउ जेहिं जाना . ताहि भजनु तजि भाव न आना ..
    यह संबाद जासु उर आवा . रघुपति चरन भगति सोइ पावा .. २ ..
    सुनि प्रभु बचन कहहिं कपि बृंदा . जय जय जय कृपाल सुखकंदा ..
    तब रघुपति कपिपतिहिं बोलावा . कहा चलैं कर करहु बनावा .. ३ ..
    अब बिलंबु केहि कारन कीजे . तुरत कपिन्ह कहुँ आयसु दीजे ..
    कौतुक देखि सुमन बहु बरषी . नभ तें भवन चले सुर हरषी .. ४ ..

    दोहा
    कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ .
    नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ .. ३४ ..

    प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा . गर्जहिं भालु महाबल कीसा ..
    देखी राम सकल कपि सेना . चितइ कृपा करि राजिव नैना .. १ ..
    राम कृपा बल पाइ कपिंदा . भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा ..
    हरषि राम तब कीन्ह पयाना . सगुन भए सुंदर सुभ नाना .. २ ..
    जासु सकल मंगलमय कीती . तासु पयान सगुन यह नीती ..
    प्रभु पयान जाना बैदेहीं . फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं .. ३ ..
    जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई . असगुन भयउ रावनहि सोई ..
    चला कटकु को बरनैं पारा . गर्जहिं बानर भालु अपारा .. ४ ..
    नख आयुध गिरि पादपधारी . चले गगन महि इच्छाचारी ..
    केहरिनाद भालु कपि करहीं . डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं .. ५ ..

    छंद
    चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे .
    मन हरष सब गंधर्ब सुर मुनि नाग किंनर दुख टरे ..
    कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं .
    जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं .. १ ..
    सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई .
    गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ट कठोर सो किमि सोहई ..
    रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी .
    जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी .. २ ..

    दोहा
    एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर .
    जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर .. ३५ ..

    उहाँ निसाचर रहहिं ससंका . जब तें जारि गयउ कपि लंका ..
    निज निज गृह सब करहिं बिचारा . नहिं निसिचर कुल केर उबारा .. १ ..
    जासु दूत बल बरनि न जाई . तेहि आएँ पुर कवन भलाई ..
    दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी . मंदोदरी अधिक अकुलानी .. २ ..
    रहसि जोरि कर पति पग लागी . बोली बचन नीति रस पागी ..
    कंत करष हरि सन परिहरहू . मोर कहा अति हित हियँ धरहू .. ३ ..
    समुझत जासु दूत कइ करनी . स्रवहिं गर्भ रजनीचर धरनी ..
    तासु नारि निज सचिव बोलाई . पठवहु कंत जो चहहु भलाई .. ४ ..
    तव कुल कमल बिपिन दुखदायई . सीता सीत निसा सम आई ..
    सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें . हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें .. ५ ..

    दोहा
    राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक .
    जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक .. ३६ ..

    श्रवन सुनि सठ ता करि बानी . बिहसा जगत बिदित अभिमानी ..
    सभय सुभाउ नारि कर साचा . मंगल महुँ भय मन अति काचा .. १ ..
    जों आवइ मर्कट कटकाई . जिअहिं बिचारे निसिचर खाई ..
    कंपहिं लोकप जाकीं त्रासा . तासु नारि सभीत बड़ि हासा .. २ ..
    अस कहि बिहसि ताहि उर लाई . चलेउ सभाँ ममता अधिकाई ..
    मंदोदरी हृदयँ कर चिंता . भयउ कंत पर बिधि बिपरीता .. ३ ..
    बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई . सिंधु पार सेना सब आई ..
    बूझेसि सचिव उचित मत कहेहू . ते सब हँसे मष्ट करि रहेहू .. ४ ..
    जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं . नर बानर केहि लेखे माहीं .. ५ ..

    दोहा
    सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस .
    राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास .. ३७ ..

    सोइ रावन कहुँ बनी सहाई . अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई ..
    अवसर जानि बिभीषनु आवा . भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा .. १ ..
    पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन . बोला बचन पाइ अनुसासन ..
    जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता . मति अनुरूप कहउँ हित ताता .. २ ..
    जो आपन चाहै कल्याना . सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना ..
    सो परनारि लिलार गोसाई . तजउ चउथि के चंद कि नाई .. ३ ..
    चौदह भुवन एक पति होई . भूतद्रोह तिष्टइ नहिं सोई ..
    गुन सागर नागर नर जोऊ . अलप लोभ भल कहइ न कोऊ .. ४ ..

    दोहा
    काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ .
    सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत .. ३८ ..

    तात राम नहिं नर भूपाला . भुवनेस्वर कालहु कर काला ..
    ब्रह्म अनामय अज भगवंता . ब्यापक अजित अनादि अनंता .. १ ..
    गो द्विज धेनु देव हितकारी . कृपा सिंधु मानुष तनुधारी ..
    जन रंजन भंजन खल ब्राता . बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता .. २ ..
    ताहि बयरु तजि नाइअ माथा . प्रनतारति भंजन रघुनाथा ..
    देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही . भजहु राम बिनु हेतु सनेही .. ३ ..
    सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा . बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा ..
    जासु नाम त्रय ताप नसावन . सोई प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन .. ४ ..

    दोहा
    बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस .
    परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस .. ३९ क ..
    मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात .
    तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात .. ३९ ख ..

    माल्यवंत अति सचिव सयाना . तासु बचन सुनि अति सुख माना ..
    तात अनुज तव नीति बिभूषन . सो उर धरहु जो कहत बिभीषन .. १ ..
    रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ . दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ ..
    माल्यवंत गृह गयउ बहोरी . कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी .. २ ..
    सुमति कुमति सब कें उर रहहीं . नाथ पुरान निगम अस कहहीं ..
    जहाँ सुमति तहँ संपति नाना . जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना .. ३ ..
    तव उर कुमति बसी बिपरीता . हित अनहित मानहु रिपु प्रीता ..
    कालराति निसिचर कुल केरी . तेहि सीता पर प्रीति घनेरी .. ४ ..

    दोहा
    तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार .
    सीत देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार .. ४० ..

    बुध पुरान श्रुति संमत बानी . कही बिभीषन नीति बखानी ..
    सुनत दसानन उठा रिसाई . खल तोहि निकट मृत्य अब आई .. १ ..
    जिअसि सदा सठ मोर जिआवा . रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा ..
    कहसि न खल अस को जग माहीं . भुज बल जाहि जिता मैं नाहीं .. २ ..
    मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती . सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती ..
    अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा . अनुज गहे पद बारहिं बारा .. ३ ..
    उमा संत कइ इहइ बड़ाई . मंद करत जो करइ भलाई ..
    तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा . रामु भजें हित नाथ तुम्हारा .. ४ ..
    सचिव संग लै नभ पथ गयऊ . सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ .. ५ ..

    दोहा
    रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि .
    मैं रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि .. ४१ ..

    अस कहि चला बिभीषनु जबहीं . आयूहीन भए सब तबहीं ..
    साधु अवग्या तुरत भवानी . कर कल्यान अखिल कै हानी .. १ ..
    रावन जबहिं बिभीषन त्यागा . भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा ..
    चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं . करत मनोरथ बहु मन माहीं .. २ ..
    देखिहउँ जाइ चरन जलजाता . अरुन मृदुल सेवक सुखदाता ..
    जे पद पसरि तरी रिषिनारी . दंड़क कानन पावनकारी .. ३ ..
    जे पद जनकसुताँ उर लाए . कपट कुरंग संग धर धाए ..
    हर उर सर सरोज पद जेई . अहोभाग्य मैं देखिहउँ तेई .. ४ ..

    दोहा
    जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ .
    ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ .. ४२ ..

    एहि बिधि करत सप्रेम बिचारा . आयउ सपदि सिंधु एहिं पारा ..
    कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा . जान कोउ रिपु दूत बिसेषा .. १ ..
    ताहि राखि कपीस पहिं आए . समाचार सब ताहि सुनाए ..
    कह सुग्रीव सुनहु रघुराई . आवा मिलन दसानन भाई .. २ ..
    कह प्रभु सखा बूझिऐ काहा . कहइ कपीस सुनहु नरनाहा ..
    जानि न जाइ निसाचर माया . कामरूप केहि कारन आया .. ३ ..
    भेद हमार लेन सठ आवा . राखिअ बाँधि मोहि अस भावा ..
    सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी . मम पन सरनागत भयहारी .. ४ ..
    सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना . सरनागत बच्छल भगवाना .. ५ ..

    दोहा
    सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि .
    ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि .. ४३ ..

    कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू . आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू ..
    सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं . जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं .. १ ..
    पापवंत कर सहज सुभाऊ . भजहु मोर तेहि भाव न काऊ ..
    जौं पै दुष्टहृदय सोइ होई . मोरें सनमुख आव कि सोई .. २ ..
    निर्मल मन जन सो मोहि पावा . मोहि कपट छल छिद्र न भावा ..
    भेद लेन पठवा दससीसा . तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा .. ३ ..
    जग महुँ सखा निसाचर जेते . लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते ..
    जो सभीत आवा सरनाईं . राखिहउँ ताहि प्रान की नाईं .. ४ ..

    दोहा
    उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत .
    जय कृपाल कहि कपि चले अंगद हनू समेत .. ४४ ..

    सादर तेहि आगें करि बानर . चले जहाँ रघुपति करुनाकर ..
    दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता . नयनानंद दान के दाता .. १ ..
    बहुरि राम छबिधाम बिलोकी . रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी ..
    भुज प्रलंब कंजारुन लोचन . स्यामल गात प्रनत भय मोचन .. २ ..
    सिंघ कंध आयत उर सोहा . आनन अमित मदन मन मोहा ..
    नयन नीर पुलकित अति गाता . मन धरि धीर कही मृदु बाता .. ३ ..
    नाथ दसानन कर मैं भ्राता . निसिचर बंस जनम सुरत्राता ..
    सहज पापप्रिय तामस देहा . जथा उलूकहि तम पर नेहा .. ४ ..

    दोहा
    श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर .
    त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर .. ४५ ..

    अस कहि करत दंडवत देखा . तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा ..
    दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा . भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा .. १ ..
    अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी . बोले बचन भगत भय हारी ..
    कहु लंकेस सहित परिवारा . कुसल कुठाहर बास तुम्हारा .. २ ..
    खल मंडलीं बसहु दिन राती . सखा धरम निबहइ केहि भाँती ..
    मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती . अति नय निपुन न भाव अनीती .. ३ ..
    बरु भल बास नरक कर ताता . दुष्ट संग जनि देइ बिधाता ..
    अब पद देखि कुसल रघुराया . जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया .. ४ ..

    दोहा
    तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम .
    जब लगि भजन न राम कहुँ सोक धाम तजि काम .. ४६ ..

    तब लगि हृदयँ बसत खल नाना . लोभ मोह मच्छर मद माना ..
    जब लगि उर न बसत रघुनाथा . धरें चाप सायक कटि भाथा .. १ ..
    ममता तरुन तमी अँधिआरी . राग द्वेष उलूक सुखकारी ..
    तब लगि बसति जीव मन माहीं . जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं .. २ ..
    अब मैं कुसल मिटे भय भारे . देखि राम पद कमल तुम्हारे ..
    तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला . ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला .. ३ ..
    मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ . सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ ..
    जासु रूप मुनि ध्यान न आवा . तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा .. ४ ..

    दोहा
    अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज .
    देखेउँ नयन बिरंचि सिव सेब्य जुगल पद कंज .. ४७ ..

    सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ . जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ ..
    जौं नर होइ चराचर द्रोही . आवौ सभय सरन तकि मोही .. १ ..
    तजि मद मोह कपट छल नाना . करउँ सद्य तेहि साधु समाना ..
    जननी जनक बंधु सुत दारा . तनु धनु भवन सुहृद परिवारा .. २ ..
    सब कै ममता ताग बटोरी . मम पद मनहि बाँध बरि डोरी ..
    समदरसी इच्छा कछु नाहीं . हरष सोक भय नहिं मन माहीं .. ३ ..
    अस सज्जन मम उर बस कैसें . लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें ..
    तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें . धरउँ देह नहिं आन निहोरें .. ४ ..

    दोहा
    सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम .
    ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम .. ४८ ..

    सुन लंकेस सकल गुन तोरें . तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें ..
    राम बचन सुनि बानर जूथा . सकल कहहिं जय कृपा बरूथा .. १ ..
    सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी . नहिं अघात श्रवनामृत जानी ..
    पद अंबुज गहि बारहिं बारा . हृदयँ समात न प्रेमु अपारा .. २ ..
    सुनहु देव सचराचर स्वामी . प्रनतपाल उर अंतरजामी ..
    उर कछु प्रथम बासना रही . प्रभु पद प्रीति सरित सो बही .. ३ ..
    अब कृपाल निज भगति पावनी . देहु सदा सिव मन भावनी ..
    एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा . मागा तुरत सिंधु कर नीरा .. ४ ..
    जदपि सखा तव इच्छा नाहीं . मोर दरसु अमोघ जग माहीं ..
    अस कहि राम तिलक तेहि सारा . सुमन वृष्टि नभ भई अपारा .. ५ ..

    दोहा
    रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड .
    जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखंड .. ४९ क ..
    जो संपति सिव रावनहि दीन्ह दिएँ दस माथ .
    सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्ह रघुनाथ .. ४९ ख ..

    अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना . ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना ..
    निज जन जानि ताहि अपनावा . प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा .. १ ..
    पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी . सर्बरूप सब रहित उदासी ..
    बोले बचन नीति प्रतिपालक . कारन मनुज दनुज कुल घालक .. २ ..
    सुनु कपीस लंकापति बीरा . केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा ..
    संकुल मकर उरग झष जाती . अति अगाध दुस्तर सब भाँती .. ३ ..
    कह लंकेस सुनहु रघुनायक . कोटि सिंधु सोषक तव सायक ..
    जद्यपि तदपि नीति असि गाई . बिनय करिअ सागर सन जाई .. ४ ..

    दोहा
    प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि .
    बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि .. ५० ..

    सखा कही तुम्ह नीकि उपाई . करिअ दैव जौं होइ सहाई ..
    मंत्र न यह लछिमन मन भावा . राम बचन सुनि अति दुख पावा .. १ ..
    नाथ दैव कर कवन भरोसा . सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा ..
    कादर मन कहुँ एक अधारा . दैव दैव आलसी पुकारा .. २ ..
    सुनत बिहसि बोले रघुबीरा . ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा ..
    अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई . सिंधि समीप गए रघुराई .. ३ ..
    प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई . बैठे पुनि तट दर्भ डसाई ..
    जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए . पाछें रावन दूत पठाए .. ४ ..

    दोहा
    सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह .
    प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह .. ५१ ..

    प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ . अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ ..
    रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने . सकल बाँधि कपीस पहिं आने .. १ ..
    कह सुग्रीव सुनहु सब बानर . अंग भंग करि पठवहु निसिचर ..
    सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए . बाँधि कटक चहु पास फिराए .. २ ..
    बहु प्रकार मारन कपि लागे . दीन पुकारत तदपि न त्यागे ..
    जो हमार हर नासा काना . तेहि कोसलाधीस कै आना .. ३ ..
    सुनि लछिमन सब निकट बोलाए . दया लागि हँसि तुरत छोड़ाए ..
    रावन कर दीजहु यह पाती . लछिमन बचन बाचु कुलघाती .. ४ ..

    दोहा
    कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार .
    सीता देइ मिलहु न त आवा कालु तुम्हार .. ५२ ..

    तुरत नाइ लछिमन पद माथा . चले दूत बरनत गुन गाता ..
    कहत राम जसु लंकाँ आए . रावन चरन सीस तिन्ह नाए .. १ ..
    बिहसि दसानन पूँछी बाता . कहसि न सुक आपनि कुसलाता ..
    पुनि कहु खबरि बिभीषन केरी . जाहि मृत्यु आई अति नेरी .. २ ..
    करत राज लंका सठ त्यागी . होइहि जव कर कीट अभागी ..
    पुनि कहु भालु कीस कटकाई . कठिन काल प्रेरित चलि आई .. ३ ..
    जिन्ह के जीवन कर रखवारा . भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा ..
    कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी . जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी .. ४ ..

    दोहा
    की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर .
    कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर .. ५३ ..

    नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें . मानहु कहा क्रोध तजि तैसें ..
    मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा . जातहिं राम तिलक तेहि सारा .. १ ..
    रावन दूत हमहि सुनि काना . कपिन्ह बाँधि दीन्हे दुख नाना ..
    श्रवन नासिका काटैं लागे . राम सपथ दीन्हें हम त्यागे .. २ ..
    पूँछिहु नाथ राम कटकाई . बदन कोटि सत बरनि न जाई ..
    नाना बरन भालु कपि धारी . बिकटानन बिसाल भयकारी .. ३ ..
    जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा . सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा ..
    अमित नाम भट कठिन कराला . अमित नाग बल बिपुल बिसाला .. ४ ..

    दोहा
    द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि .
    दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि .. ५४ ..

    ए कपि सब सुग्रीव समाना . इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना ..
    राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं . तृन समान त्रैलोकहि गनहीं .. १ ..
    अस मैं सुना श्रवन दसकंधर . पदुम अठारह जूथप बंदर ..
    नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं . जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं .. २ ..
    परम क्रोध मीजहिं सब हाथा . आयसु पै न देहिं रघुनाथा ..
    सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला . पूरहिं न त भरि कुधर बिसाला .. ३ ..
    मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा . ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा ..
    गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका . मानहुँ ग्रसन चहत हहिं लंका .. ४ ..

    दोहा
    सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम .
    रावन काल कोटि कहुँ जीति सकहिं संग्राम .. ५५ ..

    राम तेज बल बुधि बिपुलाई . सेष सहस सत सकहिं न गाई ..
    सक सर एक सोषि सत सागर . तव भ्रातहि पूँछेउ नय नागर .. १ ..
    तासु बचन सुनि सागर पाहीं . मागत पंथ कृपा मन माहीं ..
    सुनत बचन बिहसा दससीसा . जौं असि मति सहाय कृत कीसा .. २ ..
    सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई . सागर सन ठानी मचलाई ..
    मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई . रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई .. ३ ..
    सचिव सभीत बिभीषन जाकें . बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें ..
    सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी . समय बिचार पत्रिका काढ़ी .. ४ ..
    रामानुज दीन्ही यह पाती . नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती ..
    बिहसि बाम कर लीन्ही रावन . सचिव बोलि सठ लाग बचावन .. ५ ..


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    Re: सुन्दरकाण्ड
    « Reply #2 on: August 18, 2007, 04:10:33 AM »
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  • दोहा
    बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस .
    राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस .. ५६ क ..
    की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग .
    होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग .. ५६ ख ..

    सुनत सभय मन मुख मुसुकाई . कहत दसानन सबहि सुनाई ..
    भूमि परा कर गहत अकासा . लघु तापस कर बाग बिलासा .. १ ..
    कह सुक नाथ सत्य सब बानी . समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी ..
    सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा . नाथ राम सन तजहु बिरोधा .. २ ..
    अति कोमल रघुबीर सुभाऊ . जद्यपि अखिल लोक कर राऊ ..
    मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही . उर अपराध न एकउ धरही .. ३ ..
    जनकसुता रघुनाथहि दीजे . एतना कहा मोर प्रभु कीजे ..
    जब तेहि कहा देन बैदेही . चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही .. ४ ..
    नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ . कृपासिंधु रघुनायक जहाँ ..
    करि प्रनामु निज कथा सुनाई . राम कृपाँ आपनि गति पाई .. ५ ..
    रिषि अगस्ति कीं साप भवानी . राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी ..
    बंदि राम पद बारहिं बारा . मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा .. ६ ..

    दोहा
    बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति .
    बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति .. ५७ ..

    लछिमन बान सरासन आनू . सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू ..
    सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती . सहज कृपन सन सुंदर नीती .. १ ..
    ममता रत सन ग्यान कहानी . अति लोभी सन बिरति बखानी ..
    क्रोधिहि सम कामिहि हरि कथा . ऊसर बीज बएँ फल जथा .. २ ..
    अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा . यह मत लछिमन के मन भावा ..
    संधानेउ प्रभु बिसिख कराला . उठी उदधि उर अंतर ज्वाला .. ३ ..
    मकर उरग झष गन अकुलाने . जरत जंतु जलनिधि जब जाने ..
    कनक थार भरि मनि गन नाना . बिप्र रूप आयउ तजि माना .. ४ ..

    काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच .
    बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच .. ५८ ..

    सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे . छमहु नाथ सब अवगुन मेरे ..
    गगन समीर अनल जल धरनी . इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी .. १ ..
    तव प्रेरित मायाँ उपजाए . सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए ..
    प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई . सो तेहि भाँति रहें सुख लहई .. २ ..
    प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही . मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही ..
    ढोल गँवार सूद्र पसु नारी . सकल ताड़ना के अधिकारी .. ३ ..
    प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई . उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई ..
    प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई . करौं सो बेगि जो तुम्हहि सोहाई .. ४ ..

    दोहा
    सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ .
    जेहि बिधि उतरैं कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ .. ५९ ..

    नाथ नील नल कपि द्वौ भाई . लरिकाईं रिषि आसिष पाई .
    तिन्ह कें परस किएँ गिरि भारे . तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे .. १ ..
    मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई . करिहउँ बल अनुमान सहाई ..
    एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ . जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ .. २ ..
    एहिं सर मम उत्तर तट बासी . हतहु नाथ खल नर अघ रासी ..
    सुनि कृपाल सागर मन पीरा . तुरतहिं हरी राम रन धीरा .. ३ ..
    देखि राम बल पौरुष भारी . हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी ..
    सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा . चरन बंदि पाथोधि सिधावा .. ४ ..

    छंद
    निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ .
    यह चरित कलि मल हर जथामति दास तुलसी गाउअऊ ..
    सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना .
    तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना ..

    दोहा
    सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान .
    सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान .. ६० ..

    इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने
    पञ्चमः सोपानः समाप्तः .

    .. सियावर रामचन्द्र की जै ..

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    प्रथम सोपान बालकाण्ड
    श्री रामचरित मानस प्रथम सोपान बालकाण्ड
    -- गोस्वामी तुलसीदास

    ॥ श्री गणेशाय नमः ॥
    श्रीजानकीवल्लभो विजयते

    श्लोक
    वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि ।
    मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ ॥ १ ॥

    भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ ।
    याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाःस्वान्तःस्थमीश्वरम् ॥ २ ॥

    वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शङ्कररूपिणम् ।
    यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते ॥ ३ ॥

    सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ ।
    वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कबीश्वरकपीश्वरौ ॥ ४ ॥

    उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम् ।
    सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम् ॥ ५ ॥

    यन्मायावशवर्तिं विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
    यत्सत्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः ।
    यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
    वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम् ॥ ६ ॥

    नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्
    रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि ।
    स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा\-
    भाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति ॥ ७ ॥


    सो॰ जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन ।
    करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन ॥ १ ॥

    मूक होइ बाचाल पंगु चढइ गिरिबर गहन ।
    जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन ॥ २ ॥

    नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन ।
    करउ सो मम उर धाम सदा छीरसागर सयन ॥ ३ ॥

    कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुना अयन ।
    जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन ॥ ४ ॥

    बंदउ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि ।
    महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर ॥ ५ ॥

    बंदउ गुरु पद पदुम परागा । सुरुचि सुबास सरस अनुरागा ॥
    अमिय मूरिमय चूरन चारू । समन सकल भव रुज परिवारू ॥
    सुकृति संभु तन बिमल बिभूती । मंजुल मंगल मोद प्रसूती ॥
    जन मन मंजु मुकुर मल हरनी । किएँ तिलक गुन गन बस करनी ॥
    श्रीगुर पद नख मनि गन जोती । सुमिरत दिब्य द्रृष्टि हियँ होती ॥
    दलन मोह तम सो सप्रकासू । बड़े भाग उर आवइ जासू ॥
    उघरहिं बिमल बिलोचन ही के । मिटहिं दोष दुख भव रजनी के ॥
    सूझहिं राम चरित मनि मानिक । गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक ॥

    दो॰ जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान ।
    कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान ॥ १ ॥

    गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन । नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन ॥
    तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन । बरनउँ राम चरित भव मोचन ॥
    बंदउँ प्रथम महीसुर चरना । मोह जनित संसय सब हरना ॥
    सुजन समाज सकल गुन खानी । करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी ॥
    साधु चरित सुभ चरित कपासू । निरस बिसद गुनमय फल जासू ॥
    जो सहि दुख परछिद्र दुरावा । बंदनीय जेहिं जग जस पावा ॥
    मुद मंगलमय संत समाजू । जो जग जंगम तीरथराजू ॥
    राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा । सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा ॥
    बिधि निषेधमय कलि मल हरनी । करम कथा रबिनंदनि बरनी ॥
    हरि हर कथा बिराजति बेनी । सुनत सकल मुद मंगल देनी ॥
    बटु बिस्वास अचल निज धरमा । तीरथराज समाज सुकरमा ॥
    सबहिं सुलभ सब दिन सब देसा । सेवत सादर समन कलेसा ॥
    अकथ अलौकिक तीरथराऊ । देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ ॥

    दो॰ सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग ।
    लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग ॥ २ ॥

    मज्जन फल पेखिअ ततकाला । काक होहिं पिक बकउ मराला ॥
    सुनि आचरज करै जनि कोई । सतसंगति महिमा नहिं गोई ॥
    बालमीक नारद घटजोनी । निज निज मुखनि कही निज होनी ॥
    जलचर थलचर नभचर नाना । जे जड़ चेतन जीव जहाना ॥
    मति कीरति गति भूति भलाई । जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई ॥
    सो जानब सतसंग प्रभाऊ । लोकहुँ बेद न आन उपाऊ ॥
    बिनु सतसंग बिबेक न होई । राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ॥
    सतसंगत मुद मंगल मूला । सोइ फल सिधि सब साधन फूला ॥
    सठ सुधरहिं सतसंगति पाई । पारस परस कुधात सुहाई ॥
    बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं । फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं ॥
    बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी । कहत साधु महिमा सकुचानी ॥
    सो मो सन कहि जात न कैसें । साक बनिक मनि गुन गन जैसें ॥

    दो॰ बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ ।
    अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ ॥ ३(क) ॥

    संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु ।
    बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु ॥ ३(ख) ॥

    बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ । जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ ॥
    पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें । उजरें हरष बिषाद बसेरें ॥
    हरि हर जस राकेस राहु से । पर अकाज भट सहसबाहु से ॥
    जे पर दोष लखहिं सहसाखी । पर हित घृत जिन्ह के मन माखी ॥
    तेज कृसानु रोष महिषेसा । अघ अवगुन धन धनी धनेसा ॥
    उदय केत सम हित सबही के । कुंभकरन सम सोवत नीके ॥
    पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं । जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं ॥
    बंदउँ खल जस सेष सरोषा । सहस बदन बरनइ पर दोषा ॥
    पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना । पर अघ सुनइ सहस दस काना ॥
    बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही । संतत सुरानीक हित जेही ॥
    बचन बज्र जेहि सदा पिआरा । सहस नयन पर दोष निहारा ॥

    दो॰ उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति ।
    जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति ॥ ४ ॥

    मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा । तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा ॥
    बायस पलिअहिं अति अनुरागा । होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा ॥
    बंदउँ संत असज्जन चरना । दुखप्रद उभय बीच कछु बरना ॥
    बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं । मिलत एक दुख दारुन देहीं ॥
    उपजहिं एक संग जग माहीं । जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं ॥
    सुधा सुरा सम साधू असाधू । जनक एक जग जलधि अगाधू ॥
    भल अनभल निज निज करतूती । लहत सुजस अपलोक बिभूती ॥
    सुधा सुधाकर सुरसरि साधू । गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू ॥
    गुन अवगुन जानत सब कोई । जो जेहि भाव नीक तेहि सोई ॥

    दो॰ भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु ।
    सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु ॥ ५ ॥

    खल अघ अगुन साधू गुन गाहा । उभय अपार उदधि अवगाहा ॥
    तेहि तें कछु गुन दोष बखाने । संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने ॥
    भलेउ पोच सब बिधि उपजाए । गनि गुन दोष बेद बिलगाए ॥
    कहहिं बेद इतिहास पुराना । बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना ॥
    दुख सुख पाप पुन्य दिन राती । साधु असाधु सुजाति कुजाती ॥
    दानव देव ऊँच अरु नीचू । अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू ॥
    माया ब्रह्म जीव जगदीसा । लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा ॥
    कासी मग सुरसरि क्रमनासा । मरु मारव महिदेव गवासा ॥
    सरग नरक अनुराग बिरागा । निगमागम गुन दोष बिभागा ॥

    दो॰ जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार ।
    संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार ॥ ६ ॥

    अस बिबेक जब देइ बिधाता । तब तजि दोष गुनहिं मनु राता ॥
    काल सुभाउ करम बरिआई । भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाई ॥
    सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं । दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं ॥
    खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू । मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू ॥
    लखि सुबेष जग बंचक जेऊ । बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ ॥
    उधरहिं अंत न होइ निबाहू । कालनेमि जिमि रावन राहू ॥
    किएहुँ कुबेष साधु सनमानू । जिमि जग जामवंत हनुमानू ॥
    हानि कुसंग सुसंगति लाहू । लोकहुँ बेद बिदित सब काहू ॥
    गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा । कीचहिं मिलइ नीच जल संगा ॥
    साधु असाधु सदन सुक सारीं । सुमिरहिं राम देहिं गनि गारी ॥
    धूम कुसंगति कारिख होई । लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई ॥
    सोइ जल अनल अनिल संघाता । होइ जलद जग जीवन दाता ॥

    दो॰ ग्रह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग ।
    होहि कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग ॥ ७(क) ॥

    सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह ।
    ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह ॥ ७(ख) ॥

    जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि ।
    बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि ॥ ७(ग) ॥

    देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गंधर्ब ।
    बंदउँ किंनर रजनिचर कृपा करहु अब सर्ब ॥ ७(घ) ॥

    आकर चारि लाख चौरासी । जाति जीव जल थल नभ बासी ॥
    सीय राममय सब जग जानी । करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी ॥
    जानि कृपाकर किंकर मोहू । सब मिलि करहु छाड़ि छल छोहू ॥
    निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं । तातें बिनय करउँ सब पाही ॥
    करन चहउँ रघुपति गुन गाहा । लघु मति मोरि चरित अवगाहा ॥
    सूझ न एकउ अंग उपाऊ । मन मति रंक मनोरथ राऊ ॥
    मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी । चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी ॥
    छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई । सुनिहहिं बालबचन मन लाई ॥
    जौ बालक कह तोतरि बाता । सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता ॥
    हँसिहहि कूर कुटिल कुबिचारी । जे पर दूषन भूषनधारी ॥
    निज कवित केहि लाग न नीका । सरस होउ अथवा अति फीका ॥
    जे पर भनिति सुनत हरषाही । ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं ॥
    जग बहु नर सर सरि सम भाई । जे निज बाढ़ि बढ़हिं जल पाई ॥
    सज्जन सकृत सिंधु सम कोई । देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई ॥

    दो॰ भाग छोट अभिलाषु बड़ करउँ एक बिस्वास ।
    पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करहहिं उपहास ॥ ८ ॥

    खल परिहास होइ हित मोरा । काक कहहिं कलकंठ कठोरा ॥
    हंसहि बक दादुर चातकही । हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही ॥
    कबित रसिक न राम पद नेहू । तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू ॥
    भाषा भनिति भोरि मति मोरी । हँसिबे जोग हँसें नहिं खोरी ॥
    प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी । तिन्हहि कथा सुनि लागहि फीकी ॥
    हरि हर पद रति मति न कुतरकी । तिन्ह कहुँ मधुर कथा रघुवर की ॥
    राम भगति भूषित जियँ जानी । सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी ॥
    कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू । सकल कला सब बिद्या हीनू ॥
    आखर अरथ अलंकृति नाना । छंद प्रबंध अनेक बिधाना ॥
    भाव भेद रस भेद अपारा । कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा ॥
    कबित बिबेक एक नहिं मोरें । सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे ॥

    दो॰ भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक ।
    सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिवेक ॥ ९ ॥

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    Re: सुन्दरकाण्ड
    « Reply #4 on: August 18, 2007, 04:11:44 AM »
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  • एहि महँ रघुपति नाम उदारा । अति पावन पुरान श्रुति सारा ॥
    मंगल भवन अमंगल हारी । उमा सहित जेहि जपत पुरारी ॥
    भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ । राम नाम बिनु सोह न सोऊ ॥
    बिधुबदनी सब भाँति सँवारी । सोन न बसन बिना बर नारी ॥
    सब गुन रहित कुकबि कृत बानी । राम नाम जस अंकित जानी ॥
    सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही । मधुकर सरिस संत गुनग्राही ॥
    जदपि कबित रस एकउ नाही । राम प्रताप प्रकट एहि माहीं ॥
    सोइ भरोस मोरें मन आवा । केहिं न सुसंग बडप्पनु पावा ॥
    धूमउ तजइ सहज करुआई । अगरु प्रसंग सुगंध बसाई ॥
    भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी । राम कथा जग मंगल करनी ॥

    छं॰ मंगल करनि कलि मल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की ॥
    गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की ॥
    प्रभु सुजस संगति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी ॥
    भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी ॥

    दो॰ प्रिय लागिहि अति सबहि मम भनिति राम जस संग ।
    दारु बिचारु कि करइ कोउ बंदिअ मलय प्रसंग ॥ १०(क) ॥

    स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान ।
    गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान ॥ १०(ख) ॥

    मनि मानिक मुकुता छबि जैसी । अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी ॥
    नृप किरीट तरुनी तनु पाई । लहहिं सकल सोभा अधिकाई ॥
    तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं । उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं ॥
    भगति हेतु बिधि भवन बिहाई । सुमिरत सारद आवति धाई ॥
    राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ । सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ ॥
    कबि कोबिद अस हृदयँ बिचारी । गावहिं हरि जस कलि मल हारी ॥
    कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना । सिर धुनि गिरा लगत पछिताना ॥
    हृदय सिंधु मति सीप समाना । स्वाति सारदा कहहिं सुजाना ॥
    जौं बरषइ बर बारि बिचारू । होहिं कबित मुकुतामनि चारू ॥

    दो॰ जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग ।
    पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग ॥ ११ ॥

    जे जनमे कलिकाल कराला । करतब बायस बेष मराला ॥
    चलत कुपंथ बेद मग छाँड़े । कपट कलेवर कलि मल भाँड़ें ॥
    बंचक भगत कहाइ राम के । किंकर कंचन कोह काम के ॥
    तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी । धींग धरमध्वज धंधक धोरी ॥
    जौं अपने अवगुन सब कहऊँ । बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊँ ॥
    ताते मैं अति अलप बखाने । थोरे महुँ जानिहहिं सयाने ॥
    समुझि बिबिधि बिधि बिनती मोरी । कोउ न कथा सुनि देइहि खोरी ॥
    एतेहु पर करिहहिं जे असंका । मोहि ते अधिक ते जड़ मति रंका ॥
    कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ । मति अनुरूप राम गुन गावउँ ॥
    कहँ रघुपति के चरित अपारा । कहँ मति मोरि निरत संसारा ॥
    जेहिं मारुत गिरि मेरु उड़ाहीं । कहहु तूल केहि लेखे माहीं ॥
    समुझत अमित राम प्रभुताई । करत कथा मन अति कदराई ॥

    दो॰ सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान ।
    नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरंतर गान ॥ १२ ॥

    सब जानत प्रभु प्रभुता सोई । तदपि कहें बिनु रहा न कोई ॥
    तहाँ बेद अस कारन राखा । भजन प्रभाउ भाँति बहु भाषा ॥
    एक अनीह अरूप अनामा । अज सच्चिदानंद पर धामा ॥
    ब्यापक बिस्वरूप भगवाना । तेहिं धरि देह चरित कृत नाना ॥
    सो केवल भगतन हित लागी । परम कृपाल प्रनत अनुरागी ॥
    जेहि जन पर ममता अति छोहू । जेहिं करुना करि कीन्ह न कोहू ॥
    गई बहोर गरीब नेवाजू । सरल सबल साहिब रघुराजू ॥
    बुध बरनहिं हरि जस अस जानी । करहि पुनीत सुफल निज बानी ॥
    तेहिं बल मैं रघुपति गुन गाथा । कहिहउँ नाइ राम पद माथा ॥
    मुनिन्ह प्रथम हरि कीरति गाई । तेहिं मग चलत सुगम मोहि भाई ॥


    दो॰ अति अपार जे सरित बर जौं नृप सेतु कराहिं ।
    चढि पिपीलिकउ परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहिं ॥ १३ ॥

    एहि प्रकार बल मनहि देखाई । करिहउँ रघुपति कथा सुहाई ॥
    ब्यास आदि कबि पुंगव नाना । जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना ॥
    चरन कमल बंदउँ तिन्ह केरे । पुरवहुँ सकल मनोरथ मेरे ॥
    कलि के कबिन्ह करउँ परनामा । जिन्ह बरने रघुपति गुन ग्रामा ॥
    जे प्राकृत कबि परम सयाने । भाषाँ जिन्ह हरि चरित बखाने ॥
    भए जे अहहिं जे होइहहिं आगें । प्रनवउँ सबहिं कपट सब त्यागें ॥
    होहु प्रसन्न देहु बरदानू । साधु समाज भनिति सनमानू ॥
    जो प्रबंध बुध नहिं आदरहीं । सो श्रम बादि बाल कबि करहीं ॥
    कीरति भनिति भूति भलि सोई । सुरसरि सम सब कहँ हित होई ॥
    राम सुकीरति भनिति भदेसा । असमंजस अस मोहि अँदेसा ॥
    तुम्हरी कृपा सुलभ सोउ मोरे । सिअनि सुहावनि टाट पटोरे ॥

    दो॰ सरल कबित कीरति बिमल सोइ आदरहिं सुजान ।
    सहज बयर बिसराइ रिपु जो सुनि करहिं बखान ॥ १४(क) ॥

    सो न होइ बिनु बिमल मति मोहि मति बल अति थोर ।
    करहु कृपा हरि जस कहउँ पुनि पुनि करउँ निहोर ॥ १४(ख) ॥

    कबि कोबिद रघुबर चरित मानस मंजु मराल ।
    बाल बिनय सुनि सुरुचि लखि मोपर होहु कृपाल ॥ १४(ग) ॥


    सो॰ बंदउँ मुनि पद कंजु रामायन जेहिं निरमयउ ।
    सखर सुकोमल मंजु दोष रहित दूषन सहित ॥ १४(घ) ॥

    बंदउँ चारिउ बेद भव बारिधि बोहित सरिस ।
    जिन्हहि न सपनेहुँ खेद बरनत रघुबर बिसद जसु ॥ १४(ङ) ॥

    बंदउँ बिधि पद रेनु भव सागर जेहि कीन्ह जहँ ।
    संत सुधा ससि धेनु प्रगटे खल बिष बारुनी ॥ १४(च) ॥


    दो॰ बिबुध बिप्र बुध ग्रह चरन बंदि कहउँ कर जोरि ।
    होइ प्रसन्न पुरवहु सकल मंजु मनोरथ मोरि ॥ १४(छ) ॥

    पुनि बंदउँ सारद सुरसरिता । जुगल पुनीत मनोहर चरिता ॥
    मज्जन पान पाप हर एका । कहत सुनत एक हर अबिबेका ॥
    गुर पितु मातु महेस भवानी । प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी ॥
    सेवक स्वामि सखा सिय पी के । हित निरुपधि सब बिधि तुलसीके ॥
    कलि बिलोकि जग हित हर गिरिजा । साबर मंत्र जाल जिन्ह सिरिजा ॥
    अनमिल आखर अरथ न जापू । प्रगट प्रभाउ महेस प्रतापू ॥
    सो उमेस मोहि पर अनुकूला । करिहिं कथा मुद मंगल मूला ॥
    सुमिरि सिवा सिव पाइ पसाऊ । बरनउँ रामचरित चित चाऊ ॥
    भनिति मोरि सिव कृपाँ बिभाती । ससि समाज मिलि मनहुँ सुराती ॥
    जे एहि कथहि सनेह समेता । कहिहहिं सुनिहहिं समुझि सचेता ॥
    होइहहिं राम चरन अनुरागी । कलि मल रहित सुमंगल भागी ॥

    दो॰ सपनेहुँ साचेहुँ मोहि पर जौं हर गौरि पसाउ ।
    तौ फुर होउ जो कहेउँ सब भाषा भनिति प्रभाउ ॥ १५ ॥

    बंदउँ अवध पुरी अति पावनि । सरजू सरि कलि कलुष नसावनि ॥
    प्रनवउँ पुर नर नारि बहोरी । ममता जिन्ह पर प्रभुहि न थोरी ॥
    सिय निंदक अघ ओघ नसाए । लोक बिसोक बनाइ बसाए ॥
    बंदउँ कौसल्या दिसि प्राची । कीरति जासु सकल जग माची ॥
    प्रगटेउ जहँ रघुपति ससि चारू । बिस्व सुखद खल कमल तुसारू ॥
    दसरथ राउ सहित सब रानी । सुकृत सुमंगल मूरति मानी ॥
    करउँ प्रनाम करम मन बानी । करहु कृपा सुत सेवक जानी ॥
    जिन्हहि बिरचि बड़ भयउ बिधाता । महिमा अवधि राम पितु माता ॥

    सो॰ बंदउँ अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद ।
    बिछुरत दीनदयाल प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ ॥ १६ ॥

    प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू । जाहि राम पद गूढ़ सनेहू ॥
    जोग भोग महँ राखेउ गोई । राम बिलोकत प्रगटेउ सोई ॥
    प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना । जासु नेम ब्रत जाइ न बरना ॥
    राम चरन पंकज मन जासू । लुबुध मधुप इव तजइ न पासू ॥
    बंदउँ लछिमन पद जलजाता । सीतल सुभग भगत सुख दाता ॥
    रघुपति कीरति बिमल पताका । दंड समान भयउ जस जाका ॥
    सेष सहस्त्रसीस जग कारन । जो अवतरेउ भूमि भय टारन ॥
    सदा सो सानुकूल रह मो पर । कृपासिंधु सौमित्रि गुनाकर ॥
    रिपुसूदन पद कमल नमामी । सूर सुसील भरत अनुगामी ॥
    महावीर बिनवउँ हनुमाना । राम जासु जस आप बखाना ॥

    सो॰ प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानधन ।
    जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर ॥ १७ ॥

    कपिपति रीछ निसाचर राजा । अंगदादि जे कीस समाजा ॥
    बंदउँ सब के चरन सुहाए । अधम सरीर राम जिन्ह पाए ॥
    रघुपति चरन उपासक जेते । खग मृग सुर नर असुर समेते ॥
    बंदउँ पद सरोज सब केरे । जे बिनु काम राम के चेरे ॥
    सुक सनकादि भगत मुनि नारद । जे मुनिबर बिग्यान बिसारद ॥
    प्रनवउँ सबहिं धरनि धरि सीसा । करहु कृपा जन जानि मुनीसा ॥
    जनकसुता जग जननि जानकी । अतिसय प्रिय करुना निधान की ॥
    ताके जुग पद कमल मनावउँ । जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ ॥
    पुनि मन बचन कर्म रघुनायक । चरन कमल बंदउँ सब लायक ॥
    राजिवनयन धरें धनु सायक । भगत बिपति भंजन सुख दायक ॥

    दो॰ गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न ।
    बदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न ॥ १८ ॥

    बंदउँ नाम राम रघुवर को । हेतु कृसानु भानु हिमकर को ॥
    बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो । अगुन अनूपम गुन निधान सो ॥
    महामंत्र जोइ जपत महेसू । कासीं मुकुति हेतु उपदेसू ॥
    महिमा जासु जान गनराउ । प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ ॥
    जान आदिकबि नाम प्रतापू । भयउ सुद्ध करि उलटा जापू ॥
    सहस नाम सम सुनि सिव बानी । जपि जेई पिय संग भवानी ॥
    हरषे हेतु हेरि हर ही को । किय भूषन तिय भूषन ती को ॥
    नाम प्रभाउ जान सिव नीको । कालकूट फलु दीन्ह अमी को ॥

    दो॰ बरषा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास ॥
    राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास ॥ १९ ॥

    आखर मधुर मनोहर दोऊ । बरन बिलोचन जन जिय जोऊ ॥
    सुमिरत सुलभ सुखद सब काहू । लोक लाहु परलोक निबाहू ॥
    कहत सुनत सुमिरत सुठि नीके । राम लखन सम प्रिय तुलसी के ॥
    बरनत बरन प्रीति बिलगाती । ब्रह्म जीव सम सहज सँघाती ॥
    नर नारायन सरिस सुभ्राता । जग पालक बिसेषि जन त्राता ॥
    भगति सुतिय कल करन बिभूषन । जग हित हेतु बिमल बिधु पूषन ।
    स्वाद तोष सम सुगति सुधा के । कमठ सेष सम धर बसुधा के ॥
    जन मन मंजु कंज मधुकर से । जीह जसोमति हरि हलधर से ॥

    दो॰ एकु छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ ।
    तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दोउ ॥ २० ॥

    समुझत सरिस नाम अरु नामी । प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी ॥
    नाम रूप दुइ ईस उपाधी । अकथ अनादि सुसामुझि साधी ॥
    को बड़ छोट कहत अपराधू । सुनि गुन भेद समुझिहहिं साधू ॥
    देखिअहिं रूप नाम आधीना । रूप ग्यान नहिं नाम बिहीना ॥
    रूप बिसेष नाम बिनु जानें । करतल गत न परहिं पहिचानें ॥
    सुमिरिअ नाम रूप बिनु देखें । आवत हृदयँ सनेह बिसेषें ॥
    नाम रूप गति अकथ कहानी । समुझत सुखद न परति बखानी ॥
    अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी । उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी ॥

    दो॰ राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरी द्वार ।
    तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर ॥ २१ ॥

    नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी । बिरति बिरंचि प्रपंच बियोगी ॥
    ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपा । अकथ अनामय नाम न रूपा ॥
    जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ । नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ ॥
    साधक नाम जपहिं लय लाएँ । होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ ॥
    जपहिं नामु जन आरत भारी । मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी ॥
    राम भगत जग चारि प्रकारा । सुकृती चारिउ अनघ उदारा ॥
    चहू चतुर कहुँ नाम अधारा । ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा ॥
    चहुँ जुग चहुँ श्रुति ना प्रभाऊ । कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ ॥

    दो॰ सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन ।
    नाम सुप्रेम पियूष हद तिन्हहुँ किए मन मीन ॥ २२ ॥

    अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा । अकथ अगाध अनादि अनूपा ॥
    मोरें मत बड़ नामु दुहू तें । किए जेहिं जुग निज बस निज बूतें ॥
    प्रोढ़ि सुजन जनि जानहिं जन की । कहउँ प्रतीति प्रीति रुचि मन की ॥
    एकु दारुगत देखिअ एकू । पावक सम जुग ब्रह्म बिबेकू ॥
    उभय अगम जुग सुगम नाम तें । कहेउँ नामु बड़ ब्रह्म राम तें ॥
    ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी । सत चेतन धन आनँद रासी ॥
    अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी । सकल जीव जग दीन दुखारी ॥
    नाम निरूपन नाम जतन तें । सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें ॥

    दो॰ निरगुन तें एहि भाँति बड़ नाम प्रभाउ अपार ।
    कहउँ नामु बड़ राम तें निज बिचार अनुसार ॥ २३ ॥

    राम भगत हित नर तनु धारी । सहि संकट किए साधु सुखारी ॥
    नामु सप्रेम जपत अनयासा । भगत होहिं मुद मंगल बासा ॥
    राम एक तापस तिय तारी । नाम कोटि खल कुमति सुधारी ॥
    रिषि हित राम सुकेतुसुता की । सहित सेन सुत कीन्ह बिबाकी ॥
    सहित दोष दुख दास दुरासा । दलइ नामु जिमि रबि निसि नासा ॥
    भंजेउ राम आपु भव चापू । भव भय भंजन नाम प्रतापू ॥
    दंडक बनु प्रभु कीन्ह सुहावन । जन मन अमित नाम किए पावन ॥ ।
    निसिचर निकर दले रघुनंदन । नामु सकल कलि कलुष निकंदन ॥

    दो॰ सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ ।
    नाम उधारे अमित खल बेद बिदित गुन गाथ ॥ २४ ॥

    राम सुकंठ बिभीषन दोऊ । राखे सरन जान सबु कोऊ ॥
    नाम गरीब अनेक नेवाजे । लोक बेद बर बिरिद बिराजे ॥
    राम भालु कपि कटकु बटोरा । सेतु हेतु श्रमु कीन्ह न थोरा ॥
    नामु लेत भवसिंधु सुखाहीं । करहु बिचारु सुजन मन माहीं ॥
    राम सकुल रन रावनु मारा । सीय सहित निज पुर पगु धारा ॥
    राजा रामु अवध रजधानी । गावत गुन सुर मुनि बर बानी ॥
    सेवक सुमिरत नामु सप्रीती । बिनु श्रम प्रबल मोह दलु जीती ॥
    फिरत सनेहँ मगन सुख अपनें । नाम प्रसाद सोच नहिं सपनें ॥

    दो॰ ब्रह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि ।
    रामचरित सत कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि ॥ २५ ॥

    मासपारायण, पहला विश्राम
    नाम प्रसाद संभु अबिनासी। साजु अमंगल मंगल रासी ॥
    सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी । नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी ॥
    नारद जानेउ नाम प्रतापू । जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू ॥
    नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू । भगत सिरोमनि भे प्रहलादू ॥
    ध्रुवँ सगलानि जपेउ हरि नाऊँ । पायउ अचल अनूपम ठाऊँ ॥
    सुमिरि पवनसुत पावन नामू । अपने बस करि राखे रामू ॥
    अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ । भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ ॥
    कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई । रामु न सकहिं नाम गुन गाई ॥

    दो॰ नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु ।
    जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु ॥ २६ ॥

    चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका । भए नाम जपि जीव बिसोका ॥
    बेद पुरान संत मत एहू । सकल सुकृत फल राम सनेहू ॥
    ध्यानु प्रथम जुग मखबिधि दूजें । द्वापर परितोषत प्रभु पूजें ॥
    कलि केवल मल मूल मलीना । पाप पयोनिधि जन जन मीना ॥
    नाम कामतरु काल कराला । सुमिरत समन सकल जग जाला ॥
    राम नाम कलि अभिमत दाता । हित परलोक लोक पितु माता ॥
    नहिं कलि करम न भगति बिबेकू । राम नाम अवलंबन एकू ॥
    कालनेमि कलि कपट निधानू । नाम सुमति समरथ हनुमानू ॥

    दो॰ राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल ।
    जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल ॥ २७ ॥

    भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ । नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ ॥
    सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा । करउँ नाइ रघुनाथहि माथा ॥
    मोरि सुधारिहि सो सब भाँती । जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती ॥
    राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो । निज दिसि दैखि दयानिधि पोसो ॥
    लोकहुँ बेद सुसाहिब रीतीं । बिनय सुनत पहिचानत प्रीती ॥
    गनी गरीब ग्रामनर नागर । पंडित मूढ़ मलीन उजागर ॥
    सुकबि कुकबि निज मति अनुहारी । नृपहि सराहत सब नर नारी ॥
    साधु सुजान सुसील नृपाला । ईस अंस भव परम कृपाला ॥
    सुनि सनमानहिं सबहि सुबानी । भनिति भगति नति गति पहिचानी ॥
    यह प्राकृत महिपाल सुभाऊ । जान सिरोमनि कोसलराऊ ॥
    रीझत राम सनेह निसोतें । को जग मंद मलिनमति मोतें ॥

    दो॰ सठ सेवक की प्रीति रुचि रखिहहिं राम कृपालु ।
    उपल किए जलजान जेहिं सचिव सुमति कपि भालु ॥ २८(क) ॥

    हौहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास ।
    साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास ॥ २८(ख) ॥

    अति बड़ि मोरि ढिठाई खोरी । सुनि अघ नरकहुँ नाक सकोरी ॥
    समुझि सहम मोहि अपडर अपनें । सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें ॥
    सुनि अवलोकि सुचित चख चाही । भगति मोरि मति स्वामि सराही ॥
    कहत नसाइ होइ हियँ नीकी । रीझत राम जानि जन जी की ॥
    रहति न प्रभु चित चूक किए की । करत सुरति सय बार हिए की ॥
    जेहिं अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली । फिरि सुकंठ सोइ कीन्ह कुचाली ॥
    सोइ करतूति बिभीषन केरी । सपनेहुँ सो न राम हियँ हेरी ॥
    ते भरतहि भेंटत सनमाने । राजसभाँ रघुबीर बखाने ॥

    दो॰ प्रभु तरु तर कपि डार पर ते किए आपु समान ॥
    तुलसी कहूँ न राम से साहिब सीलनिधान ॥ २९(क) ॥

    राम निकाईं रावरी है सबही को नीक ।
    जों यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक ॥ २९(ख) ॥

    एहि बिधि निज गुन दोष कहि सबहि बहुरि सिरु नाइ ।
    बरनउँ रघुबर बिसद जसु सुनि कलि कलुष नसाइ ॥ २९(ग) ॥

    जागबलिक जो कथा सुहाई । भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई ॥
    कहिहउँ सोइ संबाद बखानी । सुनहुँ सकल सज्जन सुखु मानी ॥
    संभु कीन्ह यह चरित सुहावा । बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा ॥
    सोइ सिव कागभुसुंडिहि दीन्हा । राम भगत अधिकारी चीन्हा ॥
    तेहि सन जागबलिक पुनि पावा । तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा ॥
    ते श्रोता बकता समसीला । सवँदरसी जानहिं हरिलीला ॥
    जानहिं तीनि काल निज ग्याना । करतल गत आमलक समाना ॥
    औरउ जे हरिभगत सुजाना । कहहिं सुनहिं समुझहिं बिधि नाना ॥


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    Re: सुन्दरकाण्ड
    « Reply #5 on: August 18, 2007, 04:12:23 AM »
  • Publish
  • दो॰ मै पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत ।
    समुझी नहि तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत ॥ ३०(क) ॥

    श्रोता बकता ग्याननिधि कथा राम कै गूढ़ ।
    किमि समुझौं मै जीव जड़ कलि मल ग्रसित बिमूढ़ ॥ ३०(ख)

    तदपि कही गुर बारहिं बारा । समुझि परी कछु मति अनुसारा ॥
    भाषाबद्ध करबि मैं सोई । मोरें मन प्रबोध जेहिं होई ॥
    जस कछु बुधि बिबेक बल मेरें । तस कहिहउँ हियँ हरि के प्रेरें ॥
    निज संदेह मोह भ्रम हरनी । करउँ कथा भव सरिता तरनी ॥
    बुध बिश्राम सकल जन रंजनि । रामकथा कलि कलुष बिभंजनि ॥
    रामकथा कलि पंनग भरनी । पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी ॥
    रामकथा कलि कामद गाई । सुजन सजीवनि मूरि सुहाई ॥
    सोइ बसुधातल सुधा तरंगिनि । भय भंजनि भ्रम भेक भुअंगिनि ॥
    असुर सेन सम नरक निकंदिनि । साधु बिबुध कुल हित गिरिनंदिनि ॥
    संत समाज पयोधि रमा सी । बिस्व भार भर अचल छमा सी ॥
    जम गन मुहँ मसि जग जमुना सी । जीवन मुकुति हेतु जनु कासी ॥
    रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी । तुलसिदास हित हियँ हुलसी सी ॥
    सिवप्रय मेकल सैल सुता सी । सकल सिद्धि सुख संपति रासी ॥
    सदगुन सुरगन अंब अदिति सी । रघुबर भगति प्रेम परमिति सी ॥

    दो॰ राम कथा मंदाकिनी चित्रकूट चित चारु ।
    तुलसी सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु ॥ ३१ ॥

    राम चरित चिंतामनि चारू । संत सुमति तिय सुभग सिंगारू ॥
    जग मंगल गुन ग्राम राम के । दानि मुकुति धन धरम धाम के ॥
    सदगुर ग्यान बिराग जोग के । बिबुध बैद भव भीम रोग के ॥
    जननि जनक सिय राम प्रेम के । बीज सकल ब्रत धरम नेम के ॥
    समन पाप संताप सोक के । प्रिय पालक परलोक लोक के ॥
    सचिव सुभट भूपति बिचार के । कुंभज लोभ उदधि अपार के ॥
    काम कोह कलिमल करिगन के । केहरि सावक जन मन बन के ॥
    अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के । कामद घन दारिद दवारि के ॥
    मंत्र महामनि बिषय ब्याल के । मेटत कठिन कुअंक भाल के ॥
    हरन मोह तम दिनकर कर से । सेवक सालि पाल जलधर से ॥
    अभिमत दानि देवतरु बर से । सेवत सुलभ सुखद हरि हर से ॥
    सुकबि सरद नभ मन उडगन से । रामभगत जन जीवन धन से ॥
    सकल सुकृत फल भूरि भोग से । जग हित निरुपधि साधु लोग से ॥
    सेवक मन मानस मराल से । पावक गंग तंरग माल से ॥

    दो॰ कुपथ कुतरक कुचालि कलि कपट दंभ पाषंड ।
    दहन राम गुन ग्राम जिमि इंधन अनल प्रचंड ॥ ३२(क) ॥

    रामचरित राकेस कर सरिस सुखद सब काहु ।
    सज्जन कुमुद चकोर चित हित बिसेषि बड़ लाहु ॥ ३२(ख) ॥

    कीन्हि प्रस्न जेहि भाँति भवानी । जेहि बिधि संकर कहा बखानी ॥
    सो सब हेतु कहब मैं गाई । कथाप्रबंध बिचित्र बनाई ॥
    जेहि यह कथा सुनी नहिं होई । जनि आचरजु करैं सुनि सोई ॥
    कथा अलौकिक सुनहिं जे ग्यानी । नहिं आचरजु करहिं अस जानी ॥
    रामकथा कै मिति जग नाहीं । असि प्रतीति तिन्ह के मन माहीं ॥
    नाना भाँति राम अवतारा । रामायन सत कोटि अपारा ॥
    कलपभेद हरिचरित सुहाए । भाँति अनेक मुनीसन्ह गाए ॥
    करिअ न संसय अस उर आनी । सुनिअ कथा सारद रति मानी ॥

    दो॰ राम अनंत अनंत गुन अमित कथा बिस्तार ।
    सुनि आचरजु न मानिहहिं जिन्ह कें बिमल बिचार ॥ ३३ ॥

    एहि बिधि सब संसय करि दूरी । सिर धरि गुर पद पंकज धूरी ॥
    पुनि सबही बिनवउँ कर जोरी । करत कथा जेहिं लाग न खोरी ॥
    सादर सिवहि नाइ अब माथा । बरनउँ बिसद राम गुन गाथा ॥
    संबत सोरह सै एकतीसा । करउँ कथा हरि पद धरि सीसा ॥
    नौमी भौम बार मधु मासा । अवधपुरीं यह चरित प्रकासा ॥
    जेहि दिन राम जनम श्रुति गावहिं । तीरथ सकल तहाँ चलि आवहिं ॥
    असुर नाग खग नर मुनि देवा । आइ करहिं रघुनायक सेवा ॥
    जन्म महोत्सव रचहिं सुजाना । करहिं राम कल कीरति गाना ॥

    दो॰ मज्जहि सज्जन बृंद बहु पावन सरजू नीर ।
    जपहिं राम धरि ध्यान उर सुंदर स्याम सरीर ॥ ३४ ॥

    दरस परस मज्जन अरु पाना । हरइ पाप कह बेद पुराना ॥
    नदी पुनीत अमित महिमा अति । कहि न सकइ सारद बिमलमति ॥
    राम धामदा पुरी सुहावनि । लोक समस्त बिदित अति पावनि ॥
    चारि खानि जग जीव अपारा । अवध तजे तनु नहि संसारा ॥
    सब बिधि पुरी मनोहर जानी । सकल सिद्धिप्रद मंगल खानी ॥
    बिमल कथा कर कीन्ह अरंभा । सुनत नसाहिं काम मद दंभा ॥
    रामचरितमानस एहि नामा । सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा ॥
    मन करि विषय अनल बन जरई । होइ सुखी जौ एहिं सर परई ॥
    रामचरितमानस मुनि भावन । बिरचेउ संभु सुहावन पावन ॥
    त्रिबिध दोष दुख दारिद दावन । कलि कुचालि कुलि कलुष नसावन ॥
    रचि महेस निज मानस राखा । पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा ॥
    तातें रामचरितमानस बर । धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर ॥
    कहउँ कथा सोइ सुखद सुहाई । सादर सुनहु सुजन मन लाई ॥

    दो॰ जस मानस जेहि बिधि भयउ जग प्रचार जेहि हेतु ।
    अब सोइ कहउँ प्रसंग सब सुमिरि उमा बृषकेतु ॥ ३५ ॥

    संभु प्रसाद सुमति हियँ हुलसी । रामचरितमानस कबि तुलसी ॥
    करइ मनोहर मति अनुहारी । सुजन सुचित सुनि लेहु सुधारी ॥
    सुमति भूमि थल हृदय अगाधू । बेद पुरान उदधि घन साधू ॥
    बरषहिं राम सुजस बर बारी । मधुर मनोहर मंगलकारी ॥
    लीला सगुन जो कहहिं बखानी । सोइ स्वच्छता करइ मल हानी ॥
    प्रेम भगति जो बरनि न जाई । सोइ मधुरता सुसीतलताई ॥
    सो जल सुकृत सालि हित होई । राम भगत जन जीवन सोई ॥
    मेधा महि गत सो जल पावन । सकिलि श्रवन मग चलेउ सुहावन ॥
    भरेउ सुमानस सुथल थिराना । सुखद सीत रुचि चारु चिराना ॥

    दो॰ सुठि सुंदर संबाद बर बिरचे बुद्धि बिचारि ।
    तेइ एहि पावन सुभग सर घाट मनोहर चारि ॥ ३६ ॥

    सप्त प्रबन्ध सुभग सोपाना । ग्यान नयन निरखत मन माना ॥
    रघुपति महिमा अगुन अबाधा । बरनब सोइ बर बारि अगाधा ॥
    राम सीय जस सलिल सुधासम । उपमा बीचि बिलास मनोरम ॥
    पुरइनि सघन चारु चौपाई । जुगुति मंजु मनि सीप सुहाई ॥
    छंद सोरठा सुंदर दोहा । सोइ बहुरंग कमल कुल सोहा ॥
    अरथ अनूप सुमाव सुभासा । सोइ पराग मकरंद सुबासा ॥
    सुकृत पुंज मंजुल अलि माला । ग्यान बिराग बिचार मराला ॥
    धुनि अवरेब कबित गुन जाती । मीन मनोहर ते बहुभाँती ॥
    अरथ धरम कामादिक चारी । कहब ग्यान बिग्यान बिचारी ॥
    नव रस जप तप जोग बिरागा । ते सब जलचर चारु तड़ागा ॥
    सुकृती साधु नाम गुन गाना । ते बिचित्र जल बिहग समाना ॥
    संतसभा चहुँ दिसि अवँराई । श्रद्धा रितु बसंत सम गाई ॥
    भगति निरुपन बिबिध बिधाना । छमा दया दम लता बिताना ॥
    सम जम नियम फूल फल ग्याना । हरि पत रति रस बेद बखाना ॥
    औरउ कथा अनेक प्रसंगा । तेइ सुक पिक बहुबरन बिहंगा ॥

    दो॰ पुलक बाटिका बाग बन सुख सुबिहंग बिहारु ।
    माली सुमन सनेह जल सींचत लोचन चारु ॥ ३७ ॥

    जे गावहिं यह चरित सँभारे । तेइ एहि ताल चतुर रखवारे ॥
    सदा सुनहिं सादर नर नारी । तेइ सुरबर मानस अधिकारी ॥
    अति खल जे बिषई बग कागा । एहिं सर निकट न जाहिं अभागा ॥
    संबुक भेक सेवार समाना । इहाँ न बिषय कथा रस नाना ॥
    तेहि कारन आवत हियँ हारे । कामी काक बलाक बिचारे ॥
    आवत एहिं सर अति कठिनाई । राम कृपा बिनु आइ न जाई ॥
    कठिन कुसंग कुपंथ कराला । तिन्ह के बचन बाघ हरि ब्याला ॥
    गृह कारज नाना जंजाला । ते अति दुर्गम सैल बिसाला ॥
    बन बहु बिषम मोह मद माना । नदीं कुतर्क भयंकर नाना ॥

    दो॰ जे श्रद्धा संबल रहित नहि संतन्ह कर साथ ।
    तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ ॥ ३८ ॥

    जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई । जातहिं नींद जुड़ाई होई ॥
    जड़ता जाड़ बिषम उर लागा । गएहुँ न मज्जन पाव अभागा ॥
    करि न जाइ सर मज्जन पाना । फिरि आवइ समेत अभिमाना ॥
    जौं बहोरि कोउ पूछन आवा । सर निंदा करि ताहि बुझावा ॥
    सकल बिघ्न ब्यापहि नहिं तेही । राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही ॥
    सोइ सादर सर मज्जनु करई । महा घोर त्रयताप न जरई ॥
    ते नर यह सर तजहिं न काऊ । जिन्ह के राम चरन भल भाऊ ॥
    जो नहाइ चह एहिं सर भाई । सो सतसंग करउ मन लाई ॥
    अस मानस मानस चख चाही । भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही ॥
    भयउ हृदयँ आनंद उछाहू । उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू ॥
    चली सुभग कबिता सरिता सो । राम बिमल जस जल भरिता सो ॥
    सरजू नाम सुमंगल मूला । लोक बेद मत मंजुल कूला ॥
    नदी पुनीत सुमानस नंदिनि । कलिमल तृन तरु मूल निकंदिनि ॥

    दो॰ श्रोता त्रिबिध समाज पुर ग्राम नगर दुहुँ कूल ।
    संतसभा अनुपम अवध सकल सुमंगल मूल ॥ ३९ ॥

    रामभगति सुरसरितहि जाई । मिली सुकीरति सरजु सुहाई ॥
    सानुज राम समर जसु पावन । मिलेउ महानदु सोन सुहावन ॥
    जुग बिच भगति देवधुनि धारा । सोहति सहित सुबिरति बिचारा ॥
    त्रिबिध ताप त्रासक तिमुहानी । राम सरुप सिंधु समुहानी ॥
    मानस मूल मिली सुरसरिही । सुनत सुजन मन पावन करिही ॥
    बिच बिच कथा बिचित्र बिभागा । जनु सरि तीर तीर बन बागा ॥
    उमा महेस बिबाह बराती । ते जलचर अगनित बहुभाँती ॥
    रघुबर जनम अनंद बधाई । भवँर तरंग मनोहरताई ॥

    दो॰ बालचरित चहु बंधु के बनज बिपुल बहुरंग ।
    नृप रानी परिजन सुकृत मधुकर बारिबिहंग ॥ ४० ॥

    सीय स्वयंबर कथा सुहाई । सरित सुहावनि सो छबि छाई ॥
    नदी नाव पटु प्रस्न अनेका । केवट कुसल उतर सबिबेका ॥
    सुनि अनुकथन परस्पर होई । पथिक समाज सोह सरि सोई ॥
    घोर धार भृगुनाथ रिसानी । घाट सुबद्ध राम बर बानी ॥
    सानुज राम बिबाह उछाहू । सो सुभ उमग सुखद सब काहू ॥
    कहत सुनत हरषहिं पुलकाहीं । ते सुकृती मन मुदित नहाहीं ॥
    राम तिलक हित मंगल साजा । परब जोग जनु जुरे समाजा ॥
    काई कुमति केकई केरी । परी जासु फल बिपति घनेरी ॥

    दो॰ समन अमित उतपात सब भरतचरित जपजाग ।
    कलि अघ खल अवगुन कथन ते जलमल बग काग ॥ ४१ ॥

    कीरति सरित छहूँ रितु रूरी । समय सुहावनि पावनि भूरी ॥
    हिम हिमसैलसुता सिव ब्याहू । सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू ॥
    बरनब राम बिबाह समाजू । सो मुद मंगलमय रितुराजू ॥
    ग्रीषम दुसह राम बनगवनू । पंथकथा खर आतप पवनू ॥
    बरषा घोर निसाचर रारी । सुरकुल सालि सुमंगलकारी ॥
    राम राज सुख बिनय बड़ाई । बिसद सुखद सोइ सरद सुहाई ॥
    सती सिरोमनि सिय गुनगाथा । सोइ गुन अमल अनूपम पाथा ॥
    भरत सुभाउ सुसीतलताई । सदा एकरस बरनि न जाई ॥

    दो॰ अवलोकनि बोलनि मिलनि प्रीति परसपर हास ।
    भायप भलि चहु बंधु की जल माधुरी सुबास ॥ ४२ ॥

    आरति बिनय दीनता मोरी । लघुता ललित सुबारि न थोरी ॥
    अदभुत सलिल सुनत गुनकारी । आस पिआस मनोमल हारी ॥
    राम सुप्रेमहि पोषत पानी । हरत सकल कलि कलुष गलानौ ॥
    भव श्रम सोषक तोषक तोषा । समन दुरित दुख दारिद दोषा ॥
    काम कोह मद मोह नसावन । बिमल बिबेक बिराग बढ़ावन ॥
    सादर मज्जन पान किए तें । मिटहिं पाप परिताप हिए तें ॥
    जिन्ह एहि बारि न मानस धोए । ते कायर कलिकाल बिगोए ॥
    तृषित निरखि रबि कर भव बारी । फिरिहहि मृग जिमि जीव दुखारी ॥

    दो॰ मति अनुहारि सुबारि गुन गनि मन अन्हवाइ ।
    सुमिरि भवानी संकरहि कह कबि कथा सुहाइ ॥ ४३(क) ॥

    अब रघुपति पद पंकरुह हियँ धरि पाइ प्रसाद ।
    कहउँ जुगल मुनिबर्ज कर मिलन सुभग संबाद ॥ ४३(ख) ॥

    भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा । तिन्हहि राम पद अति अनुरागा ॥
    तापस सम दम दया निधाना । परमारथ पथ परम सुजाना ॥
    माघ मकरगत रबि जब होई । तीरथपतिहिं आव सब कोई ॥
    देव दनुज किंनर नर श्रेनी । सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं ॥
    पूजहि माधव पद जलजाता । परसि अखय बटु हरषहिं गाता ॥
    भरद्वाज आश्रम अति पावन । परम रम्य मुनिबर मन भावन ॥
    तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा । जाहिं जे मज्जन तीरथराजा ॥
    मज्जहिं प्रात समेत उछाहा । कहहिं परसपर हरि गुन गाहा ॥

    दो॰ ब्रह्म निरूपम धरम बिधि बरनहिं तत्त्व बिभाग ।

    कहहिं भगति भगवंत कै संजुत ग्यान बिराग ॥ ४४ ॥

    एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं । पुनि सब निज निज आश्रम जाहीं ॥
    प्रति संबत अति होइ अनंदा । मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृंदा ॥
    एक बार भरि मकर नहाए । सब मुनीस आश्रमन्ह सिधाए ॥
    जगबालिक मुनि परम बिबेकी । भरव्दाज राखे पद टेकी ॥
    सादर चरन सरोज पखारे । अति पुनीत आसन बैठारे ॥
    करि पूजा मुनि सुजस बखानी । बोले अति पुनीत मृदु बानी ॥
    नाथ एक संसउ बड़ मोरें । करगत बेदतत्व सबु तोरें ॥
    कहत सो मोहि लागत भय लाजा । जौ न कहउँ बड़ होइ अकाजा ॥

    दो॰ संत कहहि असि नीति प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव ।
    होइ न बिमल बिबेक उर गुर सन किएँ दुराव ॥ ४५ ॥

    अस बिचारि प्रगटउँ निज मोहू । हरहु नाथ करि जन पर छोहू ॥
    रास नाम कर अमित प्रभावा । संत पुरान उपनिषद गावा ॥
    संतत जपत संभु अबिनासी । सिव भगवान ग्यान गुन रासी ॥
    आकर चारि जीव जग अहहीं । कासीं मरत परम पद लहहीं ॥
    सोपि राम महिमा मुनिराया । सिव उपदेसु करत करि दाया ॥
    रामु कवन प्रभु पूछउँ तोही । कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही ॥
    एक राम अवधेस कुमारा । तिन्ह कर चरित बिदित संसारा ॥
    नारि बिरहँ दुखु लहेउ अपारा । भयहु रोषु रन रावनु मारा ॥

    दो॰ प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि ।
    सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि ॥ ४६ ॥

    जैसे मिटै मोर भ्रम भारी । कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी ॥
    जागबलिक बोले मुसुकाई । तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई ॥
    राममगत तुम्ह मन क्रम बानी । चतुराई तुम्हारी मैं जानी ॥
    चाहहु सुनै राम गुन गूढ़ा । कीन्हिहु प्रस्न मनहुँ अति मूढ़ा ॥
    तात सुनहु सादर मनु लाई । कहउँ राम कै कथा सुहाई ॥
    महामोहु महिषेसु बिसाला । रामकथा कालिका कराला ॥
    रामकथा ससि किरन समाना । संत चकोर करहिं जेहि पाना ॥
    ऐसेइ संसय कीन्ह भवानी । महादेव तब कहा बखानी ॥

    दो॰ कहउँ सो मति अनुहारि अब उमा संभु संबाद ।
    भयउ समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद ॥ ४७ ॥

    एक बार त्रेता जुग माहीं । संभु गए कुंभज रिषि पाहीं ॥
    संग सती जगजननि भवानी । पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी ॥
    रामकथा मुनीबर्ज बखानी । सुनी महेस परम सुखु मानी ॥
    रिषि पूछी हरिभगति सुहाई । कही संभु अधिकारी पाई ॥
    कहत सुनत रघुपति गुन गाथा । कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा ॥
    मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी । चले भवन सँग दच्छकुमारी ॥
    तेहि अवसर भंजन महिभारा । हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा ॥
    पिता बचन तजि राजु उदासी । दंडक बन बिचरत अबिनासी ॥

    दो॰ ह्दयँ बिचारत जात हर केहि बिधि दरसनु होइ ।
    गुप्त रुप अवतरेउ प्रभु गएँ जान सबु कोइ ॥ ४८(क) ॥


    सो॰ संकर उर अति छोभु सती न जानहिं मरमु सोइ ॥
    तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची ॥ ४८(ख) ॥

    रावन मरन मनुज कर जाचा । प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा ॥
    जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा । करत बिचारु न बनत बनावा ॥
    एहि बिधि भए सोचबस ईसा । तेहि समय जाइ दससीसा ॥
    लीन्ह नीच मारीचहि संगा । भयउ तुरत सोइ कपट कुरंगा ॥
    करि छलु मूढ़ हरी बैदेही । प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही ॥
    मृग बधि बन्धु सहित हरि आए । आश्रमु देखि नयन जल छाए ॥
    बिरह बिकल नर इव रघुराई । खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई ॥
    कबहूँ जोग बियोग न जाकें । देखा प्रगट बिरह दुख ताकें ॥

    दो॰ अति विचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान ।
    जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन ॥ ४९ ॥

    संभु समय तेहि रामहि देखा । उपजा हियँ अति हरपु बिसेषा ॥
    भरि लोचन छबिसिंधु निहारी । कुसमय जानिन कीन्हि चिन्हारी ॥
    जय सच्चिदानंद जग पावन । अस कहि चलेउ मनोज नसावन ॥
    चले जात सिव सती समेता । पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता ॥
    सतीं सो दसा संभु कै देखी । उर उपजा संदेहु बिसेषी ॥
    संकरु जगतबंद्य जगदीसा । सुर नर मुनि सब नावत सीसा ॥
    तिन्ह नृपसुतहि नह परनामा । कहि सच्चिदानंद परधमा ॥
    भए मगन छबि तासु बिलोकी । अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी ॥

    दो॰ ब्रह्म जो व्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद ।

    सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत वेद ॥ ५० ॥

    बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी । सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी ॥
    खोजइ सो कि अग्य इव नारी । ग्यानधाम श्रीपति असुरारी ॥
    संभुगिरा पुनि मृषा न होई । सिव सर्बग्य जान सबु कोई ॥
    अस संसय मन भयउ अपारा । होई न हृदयँ प्रबोध प्रचारा ॥
    जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी । हर अंतरजामी सब जानी ॥
    सुनहि सती तव नारि सुभाऊ । संसय अस न धरिअ उर काऊ ॥
    जासु कथा कुभंज रिषि गाई । भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई ॥
    सोउ मम इष्टदेव रघुबीरा । सेवत जाहि सदा मुनि धीरा ॥

    छं॰ मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं ।
    कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं ॥
    सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी ।
    अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनि ॥

    सो॰ लाग न उर उपदेसु जदपि कहेउ सिवँ बार बहु ।
    बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ ॥ ५१ ॥

    जौं तुम्हरें मन अति संदेहू । तौ किन जाइ परीछा लेहू ॥
    तब लगि बैठ अहउँ बटछाहिं । जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाही ॥
    जैसें जाइ मोह भ्रम भारी । करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी ॥
    चलीं सती सिव आयसु पाई । करहिं बिचारु करौं का भाई ॥
    इहाँ संभु अस मन अनुमाना । दच्छसुता कहुँ नहिं कल्याना ॥
    मोरेहु कहें न संसय जाहीं । बिधी बिपरीत भलाई नाहीं ॥
    होइहि सोइ जो राम रचि राखा । को करि तर्क बढ़ावै साखा ॥
    अस कहि लगे जपन हरिनामा । गई सती जहँ प्रभु सुखधामा ॥

    दो॰ पुनि पुनि हृदयँ विचारु करि धरि सीता कर रुप ।
    आगें होइ चलि पंथ तेहि जेहिं आवत नरभूप ॥ ५२ ॥

    लछिमन दीख उमाकृत बेषा चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा ॥
    कहि न सकत कछु अति गंभीरा । प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा ॥
    सती कपटु जानेउ सुरस्वामी । सबदरसी सब अंतरजामी ॥
    सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना । सोइ सरबग्य रामु भगवाना ॥
    सती कीन्ह चह तहँहुँ दुराऊ । देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ ॥
    निज माया बलु हृदयँ बखानी । बोले बिहसि रामु मृदु बानी ॥
    जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू । पिता समेत लीन्ह निज नामू ॥
    कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू । बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू ॥

    दो॰ राम बचन मृदु गूढ़ सुनि उपजा अति संकोचु ।
    सती सभीत महेस पहिं चलीं हृदयँ बड़ सोचु ॥ ५३ ॥

    मैं संकर कर कहा न माना । निज अग्यानु राम पर आना ॥
    जाइ उतरु अब देहउँ काहा । उर उपजा अति दारुन दाहा ॥
    जाना राम सतीं दुखु पावा । निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा ॥
    सतीं दीख कौतुकु मग जाता । आगें रामु सहित श्री भ्राता ॥
    फिरि चितवा पाछें प्रभु देखा । सहित बंधु सिय सुंदर वेषा ॥
    जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना । सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना ॥
    देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका । अमित प्रभाउ एक तें एका ॥
    बंदत चरन करत प्रभु सेवा । बिबिध बेष देखे सब देवा ॥

    दो॰ सती बिधात्री इंदिरा देखीं अमित अनूप ।
    जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप ॥ ५४ ॥

    देखे जहँ तहँ रघुपति जेते । सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते ॥
    जीव चराचर जो संसारा । देखे सकल अनेक प्रकारा ॥
    पूजहिं प्रभुहि देव बहु बेषा । राम रूप दूसर नहिं देखा ॥
    अवलोके रघुपति बहुतेरे । सीता सहित न बेष घनेरे ॥
    सोइ रघुबर सोइ लछिमनु सीता । देखि सती अति भई सभीता ॥
    हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं । नयन मूदि बैठीं मग माहीं ॥
    बहुरि बिलोकेउ नयन उघारी । कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी ॥
    पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा । चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा ॥

    दो॰ गई समीप महेस तब हँसि पूछी कुसलात ।
    लीन्ही परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात ॥ ५५ ॥

    मासपारायण, दूसरा विश्राम
    सतीं समुझि रघुबीर प्रभाऊ । भय बस सिव सन कीन्ह दुराऊ ॥
    कछु न परीछा लीन्हि गोसाई । कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाई ॥
    जो तुम्ह कहा सो मृषा न होई । मोरें मन प्रतीति अति सोई ॥
    तब संकर देखेउ धरि ध्याना । सतीं जो कीन्ह चरित सब जाना ॥
    बहुरि राममायहि सिरु नावा । प्रेरि सतिहि जेहिं झूँठ कहावा ॥
    हरि इच्छा भावी बलवाना । हृदयँ बिचारत संभु सुजाना ॥
    सतीं कीन्ह सीता कर बेषा । सिव उर भयउ बिषाद बिसेषा ॥
    जौं अब करउँ सती सन प्रीती । मिटइ भगति पथु होइ अनीती ॥

    दो॰ परम पुनीत न जाइ तजि किएँ प्रेम बड़ पापु ।
    प्रगटि न कहत महेसु कछु हृदयँ अधिक संतापु ॥ ५६ ॥

    तब संकर प्रभु पद सिरु नावा । सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा ॥
    एहिं तन सतिहि भेट मोहि नाहीं । सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं ॥
    अस बिचारि संकरु मतिधीरा । चले भवन सुमिरत रघुबीरा ॥
    चलत गगन भै गिरा सुहाई । जय महेस भलि भगति दृढ़ाई ॥
    अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना । रामभगत समरथ भगवाना ॥
    सुनि नभगिरा सती उर सोचा । पूछा सिवहि समेत सकोचा ॥
    कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला । सत्यधाम प्रभु दीनदयाला ॥
    जदपि सतीं पूछा बहु भाँती । तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती ॥

    दो॰ सतीं हृदय अनुमान किय सबु जानेउ सर्बग्य ।
    कीन्ह कपटु मैं संभु सन नारि सहज जड़ अग्य ॥ ५७क ॥

    हृदयँ सोचु समुझत निज करनी । चिंता अमित जाइ नहि बरनी ॥
    कृपासिंधु सिव परम अगाधा । प्रगट न कहेउ मोर अपराधा ॥
    संकर रुख अवलोकि भवानी । प्रभु मोहि तजेउ हृदयँ अकुलानी ॥
    निज अघ समुझि न कछु कहि जाई । तपइ अवाँ इव उर अधिकाई ॥
    सतिहि ससोच जानि बृषकेतू । कहीं कथा सुंदर सुख हेतू ॥
    बरनत पंथ बिबिध इतिहासा । बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा ॥
    तहँ पुनि संभु समुझि पन आपन । बैठे बट तर करि कमलासन ॥
    संकर सहज सरुप सम्हारा । लागि समाधि अखंड अपारा ॥

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    Re: सुन्दरकाण्ड
    « Reply #6 on: August 18, 2007, 04:13:32 AM »
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