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Author Topic: श्री हरिवंश पुराण - वंश परम्परा को आगे बढ़ाने वाला है  (Read 148479 times)

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Offline JR

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श्री हरिवंश पुराण महात्म्य

मानव जीवन के लिये उपयोगी इस ग्रन्थ का पाठ करने से पूर्व महर्षि वेद व्यास भगवान श्रीकृ,ण, पाण्डुपुत्र अर्जुन एवं ज्ञान की देवी सरस्वती का ध्यान करे ।

सनातन धर्म के रचियता महर्षि वेद व्यास जिन्होंने इस पुराण की कथा क वर्णन किया, उनके चरण कमलों में सादर वन्दन ।  अज्ञान के तिमिर में यह प्रकाश ज्योतिरुप सबका कल्याण करे  ।  मैं उन गुरुदेव को नमस्कार करता हूँ ।  यह अखण्ड मंगलाकार चराचर विश्व जिस परमपिता परमात्मा से व्याप्त है ।  मैं उनके नमस्कार करता हूँ ।  उनका साक्षात दर्शन कराने वाले गुरुदेव को नमस्कार करता हूँ ।  ज्ञानियों ने हरिवंश पुराण को ब्रहृ, विष्णु, शिव का रुप कहा है ।  यह सनातन शब्द ब्रहमय है ।  इसका पारायण करने वाला मोक्ष प्राप्त करता है ।  जैसे सूर्योदय के होने प अन्धकार का नाश हो जाता है,  इसी प्रकार हरिवंश के पठन पाठन, क्षवण से मन, वाणी और देह द्घावरा किये गए सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते है ।   जो फल अठारह पुराणों के क्षवण से प्राप्त होता है, उतना फल विष्णु भक्त को हरिवंस पुराण के सुनने से मिलता है, इसमें संदेह नहीं है ।  इसे पढ़ने और सुनने वाले स्त्री, पुरुष, बालक, विष्णुधाम प्राप्त करते है ।

पुत्रांकाक्षी स्त्री-पुरुष इसे अवश्य सुने ।

विधिपूर्वक हरिवंश पुराण का पठन-पाठन, सन्तान गोपाल स्तोत्र का एकवर्षीय पाठ अवश्य पुत्ररत्न प्रदान करता है ।

जो पुरुष या स्त्री चन्द्रमा, सूर्य, गुरु, गुरुधाम, अग्नि की ओर मुख करके मलमूत्र त्याग करता है वह नपुंसक, बांझ होता है ।  अकारण फल-फूल तोड़ने वाला, सन्तान क्षय को प्राप्त होता है ।  परस्त्री गमन, बिना पत्नी बनाये क्वांरी कन्या का शीलहरण करने वाला वृद्घावस्था में घोर दुःख पाता है ।  व्यभिचारिणी स्त्री बुढ़ापे में गल-गलकर मरती है ।  निन्दनीय र घृणित कर्मी महाशोक को प्राप्त होता है ।  अतएव श्री हरिवंश पुराण का पारायण कर वह अपना दुख हल्का कर सकता है ।  हरिवंश पुराण के श्रवण, पाठने से वह दोष दूर हो सकता है ।



« Last Edit: June 27, 2008, 01:52:01 PM by adwaita »
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Offline v2birit

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हरिवंश पुराण is primarily Krishna Charitra. Reading it is great. Preferably one should read it in one's own mother tongue. Reading it, one admires the Lord & becomes like the Lord himself.   

|| Om Sai Ram ||






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नैमिषारण्य का सत्संग

धर्म भूमि नैमिषारण्य में सभी संतों का समागम हुआ ।  आर्यावत के मुनि, विद्वान, शास्त्रों के ज्ञाता उपस्थित थे ।  महामुनि और सभी शास्त्रों में पारंगत शौनक जी ने वहां उपस्थित सूतजी से कहा, हे सूतजी, आपने हमें अत्यन्त श्रेष्ठ तथा आख्यान सुनाये है ।  हम आपके आभारी है, कि आपके द्वारा हमें अनेक भरतवंशी राजाओं, देवताओं, दानवों, गंधर्वों, सर्पों, राक्षसों, दैत्यों, सिद्वों, यक्षों के अदभुत कर्मों तथा धर्म का पालन करने वाले अत्यन्त श्रेष्ठ जीवन और चरित्रों का वर्णन प्राप्त हुआ ।  आपकी मधुर वाणी से हमने अनेक पुराण भी सुनें ।  आपकी सुधामय वाणी बड़ा सुख देने वाली है ।  शौनक जी की इस बात का समर्थन वहां उपस्थित सभी लोगों ने हर्ष ध्वनि के साथ किया ।  शौनक जी बोले, हे मुनिवर आपने कुरुवंशियों की सारी कथा कही, पर वृष्णि और अंधक वंशों के बारे में कुछ नहीं बतलाया ।  आप कृपापूर्वक इन सबका विवरण सुनायें ।

इस पर सूतजी अत्यन्त प्रसन्नता के साथ बोले, मुनिवरो, व्यास जी के शिष्य धर्मात्मा जनमेजय ने जो प्रश्न वृष्णि वंश के बारे में किये थे, उन्हीं के अनुसार वृष्णि वंश की कथा मैं आप सबको सुनाता हूँ ।  अत्यन्त मेधावी तेजस्वी भरतंवशी राजा जनमेजय ने भरतवंश के इतिहास को पूर्णरुप से श्रवण कर वैशम्पायन से ज्ञान प्राप्त किया था, वही वृतान्त आप लोगों को सुनाता हूँ ।

पुराणों को श्रवण करने से प्रतीत होता है, पांडव और वृष्णि वंशियों का कुल एक ही था ।  वंशावलि वर्णन में निपुण तथा प्रत्यक्षदर्शी वैशम्पायन ने राजा जनमेजय को बतलाया, जो अव्यक्त कारण, नित्य सदस दामक एवं प्रधान पुरुष है,  उसी से इस ईश्वरमय जगत की उत्पत्ति हुई है ।  उसी अव्यक्त पुरुष को अभि्न तेज सम्पन्न, सब जीवों का सृष्टा और नारायण-परायण समझो ।  उसी महान ब्रहृ से अहंकार उत्पन्न हुआ ।  सूक्ष्म जीवों से पंचतत्व और जरायुज आदि चार प्रकार के जीवों की उत्पत्ति हुई ।  इसी को सनातन सृष्टि कहते है ।

भगवान ने सूक्ष्म भूतों को प्रकट कर अनेक प्रकार की भौतिक प्रजा उत्पन्न करने के विचार से, सबसे पहले जल का निर्माण किया ।  फिर उसमें अपना वीर्य डाला ।  जल को नीर कहा गया है, यह जल नीर की उत्पत्ति का कारण है, इसी कारण नर के जनक भगवान को नारायण कहा गया है ।  भगवान द्वारा जल में डाला गया वीर्य हिरण्य वर्ण का अंड हो गया ।  इस अंड से स्वंयभू ब्रह- की उत्पत्ति हुई ।  अण्ड में एक वर्ष रहकर ब्रहृ ने उसके दो खंड कर दिये ।  एक खंड पृख्वी और दूसरा खंड देवलोक ।

दोनों खंड़ो के अंतराल में आकाश की रचना कर पृथ्वी को जल पर स्थापित किया ।  तब सूर्य और दस दिशाएं बनायी गयी ।  उसी अंड से उन्होंने काल, मन, वचन, काम, क्रोध एवं अनुराग की सृष्टि की ।  सप्तऋषियों को प्रकट किया ।  परम क्रोधी रुद्र को उत्पन्न कर मारीचि आदि के पूर्वज सनत कुमार को जन्म दिया ।  विघुत, वज्रमेघ रोहित, इन्द्रधनुष तथा गगनचर खगों का निर्माण किया ।  वेदों की रचना की ।

अन्यान्य अंगों से अनेक प्रकार के प्राणी उत्पन्न किए ।  वशिष्ठ नामक प्रजापति भी बनाया, पर यह सब मन से उत्पन्न होने के कारण उनकी प्रजा में वृद्वि नहीं हो रही थी ।  अतएव तब ब्रहृ ने अपनी देव के दो भाग किए ।  एक को पुरुष बनाया, दूसरे को स्त्री ।  इस प्रकार भगवान ने विराट रचना की ।  विराट ने पुरुष को रचा ।  यह पुरुष मनु था ।  मनु ने मनवंतर का क्रम चलाया ।  योनिज सृष्टि में स्त्री संज्ञक द्वारा दूसरा अंतर उपस्थित हो गया ।  इसी कारण मनवंतर शब्द चल पड़ा ।  इस प्रकार योनिज अनोयिज दोनों प्रकार की सृष्टि हुई ।  शतरुपा अयोनिजा कन्या विराट की पत्नी बनी ।  शतरुपा ने विराट पुरुष के द्वारा वीर नामक पुत्र उत्पन्न किया ।
« Last Edit: May 07, 2008, 01:25:55 AM by Jyoti Ravi Verma »
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उससे विप्रवत् और उत्तानपाद नामक दो पुत्र, काम्या नामक एक पुत्री उत्पन्न हुई ।  काम्या के चार पुत्र सम्राट, रुक्षि, विराट और प्रभु हुए ।  उत्तानपाद ने चार पुत्र उत्पपन्न किए ।  ध्रुव, कीर्तिमान, शिव और अस्वपति ।  ध्रुव ने घोर तपस्या की ।  ब्रहृ ने उन्हें उच्च लोक प्रदान किया ।  धुव्र के तीन पुत्र हुए ।  कालान्तर में इसी वंश में वेन हुआ ।  वह देवताओं का द्रोही निकला ।  तब मुनियों ने उसकी दक्षिण भुजा कर मंथन का पृथृ नामक पुत्र को जन्म दिया ।  पृथू राजसूय यज्ञ का अनुष्टान करने वाला पहला राजा हुआ ।  पृथू राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान करने वाला पहला राजा हुआ ।  पृथू ने प्राणियों को, जीवन दान देने के उद्देश्य से देवता, दानव, गंंधर्व, अप्सरा, सर्प, यज्ञ, लता, पर्वतादि से मिलकर सबको बछड़ा बनाकर पृथ्वी का दोहन किया ।  तब पृथ्वी ने अन्नादि दुग्ध प्रदान किया, तो सबकी जीविका का साधन बनी ।  आगे चलकर इसी पृथू वंश के प्रचेता की उदासीनता के कारण पृथ्वी वृक्ष-विहीन हो गई ।  तब वृक्षों के अधिपति सोम ने प्रजापति का सहारा लिया ।  तब चन्द्रमा के अंश से दक्ष प्रजापति उत्पन्न हुए ।  दक्ष प्रजापति ने चन्द्रवंश का विस्तार किया ।

मुनिवरों दक्ष प्रजापति के समय से मैथुनी सृष्टि प्रारम्भ हो गयी ।  इसमें नारद ने बाधा डाली ।  दक्ष प्रजापति ने उनको शाप देकर भस्म कर दिया ।  तब देवताओं के अनुरोध पर ब्रहृ ने दक्ष प्रजापति से एक कन्या लेकर नारद को पुनर्जन्म दिया ।  दक्ष प्रजापति का वंश बढ़ता गया ।  बहुत काल बाद दिति के गर्भ से कश्यप ने अत्यन्त बलवान पुत्र उत्पन्न किए ।  उनके नाम हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष थे ।  प्रहलाद हिरण्यकशिपु का ही पुत्र था ।

सूतजी बोले, आगे चलकर ब्रहृ ने चन्द्रमा को ब्राहणो, नक्षत्रो, ग्रहो, यज्ञों और तपस्याओं का अधिपति बनाया ।  वरुण को जल का, कुबेर को धन का, वृहस्पति को सम्पूर्ण विश्वका अधिपति नियुक्त किया ।  भृगुवंशियों के अधिपति शुक्राचार्य बने ।  आदित्यों के विष्णु, वसुओं के अधिपति अग्नि बनाये गये ।  प्रजापतियों के दक्ष, दैत्यों के प्रहलाद, मरुतों के इन्द्र, पितरों के सूर्यपुत्र यम, रुद्रों के भगवान शिव और षोडष मात्रिकाओं, व्रती, मंत्री, गौत्रों, यक्षो, राक्षसों, राजाओ, साध्यों के अधिपति भगवान विष्णु बनाये गये ।

मुनिवरों, इसी प3कार विप्रचित दानवों के, शिव भूत-प्रेत, पिशाचों के, हिमवान पर्वतों के, समुद्र नदियों के, अशरीरी प्राणियों के और शब्दों के वायु, गंधर्वों के चित्ररथ, नागों के वासुकि, सर्पों के तक्षक, हाथियों के ऐरावत, घोड़ों के उच्चैक्षवा, पक्षियों के गरुड़, मृगों के सिंह, गौवों के वृषभ, वृत्रों के पीपल, गंधर्वों, अप्सराओं के कामदेव और ऋतु, मास, पक्ष, दिन, रात, मुहूर्त, कला, काष्ण, ऋतु, अयन, योग, गणित का अधिपति संवत्सर को बनाया ।  इस प्रकार का कार्य विभाजन कर तब ब्रहजी ने दिगपालों की नियुक्ति की ।  सूतजी बोले, मुनिवरों तब ब्रहृ ने सुधन्वा को पूर्व का, शंखपदम् को दक्षिण का, अच्युत केतुमान को पश्चिम का, हिरण्यरोमा को उत्तर का दिग्पाल बनाकर सबको पृथु के अधीन कर दिया ।  तब शौनक जी बोले, सूतजी, वेन तो महादुरात्मा था, तब उसका पुत्र पृथृ क्योंकर इतना प्रतापी हुआ ।
« Last Edit: May 07, 2008, 01:26:47 AM by Jyoti Ravi Verma »
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शौनक जी की इस जिज्ञासा पर सूतजी बोले, हां मुनिवरों ।  मृत्यु सुता सुनीता के गर्भ से उत्पन्न वेन दुराचारी था ।  उसने यज्ञ-हवन बन्द कराकर देवताओं के सारे कार्य रोक दिये ।  उसने अपने को ही एकमात्र देवता बतलाया ।  उसे मरीचि आदि मुनियों ने भी समझाया ।  वेन न माना, वह अपनी जिद पर था ।  तब मुनियों ने उसे पकड़कर उसकी जांघ का मंथन किया ।  वेन बहुत छटपटाया ।  उसकी जांघ से एक बौना और काले रंग का पुरुष उत्पन्न हुआ ।  वह खड़ा ही रहा ।  तब मुनि ने उसे निषीद कहा (बैठ जाओ) इसी निषीद शब्द के कारण यह निषादवंश का आदिपुरुष बना ।  तब मुनियों ने वेन की दक्षिण भुजा को मथा ।  उससे पृथृ का जन्म हुआ ।  तब वेन नरक में चला गया ।  पृथू अत्यन्त धर्मात्मा और प्रतापी राजा बना ।  उसके यज्ञ कुंड से सूत, मागध उत्पन्न हुए ।  तब पृथू ने सूत को अनूप प्रदेश और मागधा को मगध प्रदेश का शासक बनाया ।  इतना सब करने के उपरान्त पृथु ने पृथ्वी को रहने योग्य बनाया ।  राजा पुथु के इसी कार्य के कारण यह भूमंडल उनके नाम पर ही पृथ्वी कहलाता था ।  हे मुनिवरों राजा पृथ ने भूमि समतल की ।  पर्वतों को जन्म दिया ।  उन्होंने पृथ्वी का दोहन कर उसे रहने योग्य बनाया ।  इसके बाद असुरों, नागों, यक्षो, राक्षसों, गंधर्वो, अप्सराओं, पर्वतों, वृक्षों ने पृथ्वी का दोहन किया ।  पृथ्वी का विस्तार समुद्र तक हो गया ।  एक समय वह मधुकैटभ के मद में व्याप्त हो गयी थी ।  अतएव पृथ्वी का नाम मेदिनी भी हो गया ।  इस प्रकार दोहन के हो जाने के उपरान्त पृथ्वी योग्य हो गयी ।

सूतजी इतना कहकर मौन हो गए ।  तब शौनक जी ने उससे मन्वन्तर के विषय में प्रश्न किया ।  सूतजी ने सम्पूर्ण मनुओं और मन्वन्तर की कथा सुनायी ।  फिर सूर्य, संन्ध्या की छाया, यज्ञ के जन्म का विवरण दिया ।  सूत जी बोले, मुनिवरो ।  वैवस्वत मनु के वंशजों ने महाविशालकाय दानव धुन्ध का वध कर पृथ्वी का उद्वार कियग ।  राजा कुशलाश्व के जन्म में महर्ष गालब का जन्म हुआ ।  विश्वामित्र की भार्या ने इनको जन्म दिया था ।  सत्यव्रत ने गालब को विश्वामित्र की भार्या से खरीद लिया था ।  बाद में सत्यव्रत महर्ष वशिष्ठ के शाप के कारण त्रिशंकु कहलाये ।  विश्वामित्र को जब यह ज्ञात हुआ, तब उन्होंने त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेज दिया ।  कंकय नरेश की कन्या सत्यरथा त्रिशंकु की पत्नी थी ।  उसने हरिश्चन्द्र को जन्म दिया और हरिशचन्द्र से रोहित उत्पन्न हुए ।  तत्पश्चात राजा सगर का आगमन हुआ ।  पर्याप्त अन्तराल के बाद सूर्यवंश ने विकास पाया ।  यशस्वी भागीरथ पवित्र गंगा को पृथ्वी पर ले आये ।  इस प्रकार हे मुनिवरों, परम-पिता व्रहृ के द्वारा निर्मित सृष्टि बराबर बढ़ती गयी ।  धर्म, अधर्म का संघर्ष होता रहा ।  समय-समय पर ब्रहृ के आदेश से भगवान विष्णु अवतार लेकर पृथ्वी पर धर्म की स्थापना करते रहे ।  मुनिवरों ।  इन अवतारों की कथा बड़ी रोचकहै ।  परम पिता परमात्मा ब्रहृ ने सदा पृथ्वी पर कृपादृष्टि रखी है ।  इस कारण मुनिवरों, हम उन्हीं के अंश है ।  उनकी ही कृपा से हम इस नैमिषारण्य में समागम कर रहे है ।

« Last Edit: May 07, 2008, 01:27:12 AM by Jyoti Ravi Verma »
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Offline JR

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सूत जी का यह कथन सुनकर उपस्थित मुनिगण गदगद हो गये ।  सूतजी का कथन सर्वथा सत्य था ।  तब शौनक जी बोले, हे मुनि श्रेष्ठ, हमारे ज्ञान वर्धन के लिये कृपापूर्वक आपने ब्रहृ द्वारा हरि (विष्णु) के अवतारों की बात कही है ।  अतएव विष्णु के यह सब अवतार हरिवंश कहलाये ।  आप हमें हरिवंश-पुराण सुनाने की कृपा करें ।

शौनक जी के इस प्रश्न पर सूतजी अत्यन्त प्रसन्नता के साथ बोले, मुनिवरों आपकी यह जिज्ञासा मेरा उत्साहवर्द्वन करती है ।  हरिवंश (विष्णु अवतारों) में सबसे प्रिय श्रीकृष्ण है ।  मैं इनका ही दिव्य चरित्र आप सबको सुनाना चाहता हूँ ।  हे मुनिवरों इस कथा का नाम ही हरिवंश पुराण है ।  हरिवंश पुराण के श्रवण से उसी प्रकार के पुत्र की प्राप्ति होती है, जिस प्रकार का पुत्र देवकी और वासुदेव को प्राप्त हुआ था ।  विधिपूर्वक इस कथा के श्रवण और बाद में संतान के लिये प्रार्थना करने पर याचक को पुत्ररत्न की प्राप्ति अवश्य होती है ।  हरिवंश पुराण के श्रवण की यह महिमा है ।  अतएव प्रथम मैं हरिवंश पुराण की कथा कहता हूँ ।  तत्पश्चात उसके श्रवण की विधि और सन्तान हेतु की गयी प्रार्थना का विवरण दूंगा, आप सब ध्यानपूर्वक सुनें ।  सूतजी के इस कथन पर सब मुनिगण गदगद हो गये और आगे का विवरण सुनने के लिये अत्यन्त उत्सुकतापूर्वक सावधान होकर बैठ गये ।
« Last Edit: May 07, 2008, 01:27:44 AM by Jyoti Ravi Verma »
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Offline rajender1555

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Hi.

Trust in God with all your heart and way. This letter has been sent
to you for good luck.This is from SIRDI. It's not a joke. You will
receive it in a few months. Please send 20 copies of this letter to
people whom you think need good luck. Please do not send money. Do not
keep this letter. It must leave you within seven days. An officer has
received 2 million dollars after sending it. Robert lost more than 2.1
millions for not sending and breaking this chain letter. Please
send 20 copies and see what happens in 4 days. This chain letter
comes from SIRDI.
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BABA ka shishy

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Offline mirasiv

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i have just read this letter which requested to send 20 copies, is it true? can any one guide me.

i do have faith in baba, i believe a lot baba & dont want to hurt anyone for anything.

please do suggest me

Offline JR

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Chain letters are always fake. Dont ever do that. All chain letters are fake. So if you get nay chail letter or email, dont forward it.

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पृथ्वी का दुख वर्णन

सूत जी बोले, द्घापर युग के अन्त समय में पृथ्वी का भार बहुत बढ़ा गया ।  नाना प्रकार के अत्याचारोसे पीड़ित पृथ्वी तब दुखी होकर ब्रहृ की शरण में गयी ।  ब्रहृ से उसने अपने सम्पूर्ण दुखो का रो-रोकर निवेदन किया ।  तब ब्रहृजी उसे अपने साथ लेकर भगवान विष्णु शयन- काल में थे ।  उनको शयन करते हुए सतयुग और त्रेतायुग बीत गये थे ।  भगवान विष्णु के पास जाते समय ब्रह के पास देवादि एवं समस्त मुनिगण भी संग हो गये ।  सबने वहां जाकर सामूहिक प्रार्थना की ।  भगवान विष्णु की निंद्रा टूटी ।  उन्होंने सबके आने का कारण पूछा ।  तब ब्रहृ ने उनको पृथ्वी का सारा दुख बतलाया ।  इस पर विष्णु भगवान सबके साथ सुमेरु प्रवत पर आये ।  तब वहाँ पर दिव्य-सभा हुई ।  इस सभा में पृत्वी ने अपने सारे दुखों का वर्णन किया ।

परमपिता ब्रहृ ने तब भगान विष्णु से पृथ्वी के दुख हरण करने की प्रार्थना की ।  उनसे निवेदन किया कि पृथ्वी पर आकर अवतार ग्रहण करें ।

ब्रहृ की इस प्रार्थना पर विष्णु बोले, आज से काफी समय पहले मैंने पृथ्वी को भयमुक्त करने का निश्चय कर लिया है ।  मैंने समुद्र को राजा शान्तनु के रुप में पृथ्वी पर भेज दिया है ।  मैं पहले ही जानता था कि पृथ्वी का भार बढ़ेगा ।  इस कारण पूर्व में ही मैंने शान्तुन के वंश की उत्पत्ति कर दी है ।  गंगा के पुत्र भीष्म भी वसु ही है ।  वह मेरी आज्ञा से ही गये है ।  महाराज शान्तुन की द्घितीय पत्नी से विचित्रवीर्य नामक पुत्र उत्पन्न हुआ है ।  इस समय उनके दोनो पुत्र धृतराष्टर् और पांडु भूमि पर है ।  पांडु की दो पत्नियां है ।  कुन्ती और माद्री ।  धृतराष्ट्र की पत्नी है गांधारी ।  एतएव देवतागण शान्तुवंश में जन्म लें ।  तत्पश्चात् मैं भी जन्म लूंगा ।  भगवान विष्णु के इस कथन पर समस्त देवतागणों, वसुगणों, आदित्यों, अश्विनीकुमारों ने पृथ्वी पर अवतार ग्रहण किये । सबने भरतवंश में जन्म लिया ।  सूतजी बोवे, मुनिवरों ।  इस प्रकार धर्म ने युधिष्ठिर, इन्द्र ने अर्जुन, वायु ने भीम, दोनों अश्विनी कुमारों ने नकुल, सहदेव, सूर्य ने कर्ण, वृहस्पति ने द्रोणाचार्य, वसुओं ने भीष्म, यमराज ने विदुर, कलि ने दुर्योधन, चन्द्रमा ने अभिमन्यु, भूरिश्रवा ने शुक्राचार्य, वरुण ने श्रृतायुध, शंकर ने अश्वत्थामा, कणिक ने मित्र, कुबेर ने धृतराष्ट्र और यक्षों ने गंधर्वों, सर्पों ने देवक, अश्वसेन, दुःशासन आदि के रुप में पृथ्वी पर अवतार ग्रहण किये ।  इस प्रकार समस्त देवगण अवतार लेकर पृथ्वी पर आ गये ।  नारद जी को जब यह पता चला तो वह विष्णु जी के पास आये और कुपति होकर बोले, जब तक नर-नारायण जन्म न लेंगे, तब तक पृत्वी का भार कैसे हल्का होगा ।  नर तो अवतार लेकर पृथ्वी पर चले गये ।  नारायण रुपी भगवान विष्णु आप यहीं विराजमान है ।  आखिर आप क्या कर रहे है ।

नारद की इस बात पर भगवान विष्णु बोले, हे नारद, इस समय में मैं विचार कर रहा हूँ कि कहां और किस वंश में जन्म लूँ ।  अभी तक मैं इसका निर्णय नहीं कर सका हूँ ।  मुनिवरों ।  भगवान विष्णु के इस कथन पर नारदजी ने उनको कश्यप का वर्णन करते हुए कहा कि वह महात्मा वरुम से गायें मांगकर ले गये,  बाद में वापस नहीं की ।  इस पर वरुण मेरे पास आया ।  तब मैनें कश्यप को ग्वाला हो जाने का शाप दे दिया ।  इस समय कश्यप वासुदेव के रुप मे मेराश्राप भोग रहे है ।  उनकी दोनों पत्नियां देवकी और रोहिणी  के रुप में उनके साथ है ।  वह पापी कंस के अधीन रह कर बड़ा दुख पा रहे है ।  वरुण के साथ विश्वासघात करने और मेरे श्राप का फल पा रहे है ।  मेरा तो यह सुझाव है कि आप उनके यहां ही अवतार लें ।  नारद का यह प्रस्ताव भगवान विष्णु ने स्वीकार कर लिया ।  व श्रीर सागर में स्थित उत्तर दिशा में अपने निवास में चले गए ।  फिर मेरु पर्वत की पार्वती गुफा में प्रवेश कर अपनी दिव्य देह त्यागकर वासुदेव के यहां जन्म ग्रहण करने के लिये चले गये ।
« Last Edit: December 24, 2007, 12:05:35 AM by Jyoti Ravi Verma »

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नारद कंस मिलन

सूतजी आगे बोले, मुनिवरों ।  जब सम्पूर्ण देवगण और भगवान विष्णु पृथ्वी पर अवतरित हो गये, तो नारद पृथ्वी पर आये ।  वह कंस से मिले ।  देवलोक से चलकर नारद मथुरा के एक उपवन में आये ।  वहाँ से उन्होंने अपना एक दूत उग्रसेन के पुत्र राजा कंस के पास भेजा ।  उसने कंस को नारद के आगमन की सूचना दी ।  समाचार पाकर कंस तुरन्त चल पड़ा ।  निद्रिष्ट स्थान पर उसने अत्यन्त तेजधारी और दिव्य नारद जी को देखा ।  उनको नमस्कार कर उनकी अभ्यर्थना की ।  तत्पश्चात कंस के दिए अग्नि सदृश रक्त वर्ण आसन पर नारद जी बैठ गये ।

नारद जी बोले, मैं स्वर्ग से प्रस्थान कर समेरु पर्वत पर गया था ।  वहां सम्पूर्ण देवलोक उपस्थित था ।  वहां पर कुछ निर्णय किया जा रहा था ।  बातचीत से मुझको पता चला कि तुम्हारे अनुयायियों सहित तुम्हारे वध  की योजना बनाई गयी है ।  तुम्हारी बहन देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवी  संतान तुम्हारा काल बनेगी ।  वह वास्तव में विष्णु का अवतार होगा ।  वह पूर्व जनमों में भी तुम्हारे विनाश का कारण बन चुके है यही बात मैं तुमसे कहने आया हूं ।  तुम सावधान हो जाओ और देवकी के समस्त गर्भ नष्ट करने का प्रयत्न करो ।  मेरा तुम पर विशेष स्नेह है ।  इस कारण यह गोपनीय रहस्य मैंने तुमको बतला दिया है ।  अब मैं वापस जाता हूँ तुम्हारा कल्याण हो ।

इतना कहकर देवर्षि नारद चले गये ।  उनके जाने के बाद कंस अट्टहास करने लगा ।  अपने साथ आये सेवकों से बोला, नारद मुझको डराने आया था ।  अभी उसको मेरी शक्ति का ज्ञान नहीं है ।  मुझे को ई भी परास्त नहीं कर सकता ।  इस पृथ्वी पर ऐसा कोई भी शक्तिशाली नहीं है । जो मेरा मुकाबला कर सके ।  मैं सम्पूर्ण भूलोक, देवलोक, यमलोक अपने बाहुबल पर नष्ट कर सकता हूँ ।  फिर भी हयग्रीव, केशी, प्रलम्ब, धेनुक, अरिष्ट, वृषयऋ पूतना, कालिया नाग को खबर दे दो कि वह स्वेच्छापूर्वक परिवर्तन कर भूमंजल में विचरण करें ।  जहां भी मेरा विपक्षी दिखलाई पड़े, उसका वध कर डालें ।  हयग्रीव और केशी गर्भस्थ बालकों पर निगरानी रखेंगे ।  नारद की यह बात सुनकर हमको भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है ।  नारद का तो काम ही है, इधर की उधर लगाना ।  भय उत्पन्न कर मन-मुटाव पैदा करना, अतएव सब निर्भय होकर रहे ।

इसप्रकार कंस हंसता हुआ अपने राजभवन की ओर चल पड़ा, पर उसका मन शंकाओं से भर गया था ।

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उसने राजभवन आकर मंत्रीगणों को आदेश दिया कि वह सावधान रहे ।  तत्परतापूर्वक प्रारम्भ से ही देवकी के गर्भ नष्ट करते रहे ।  देवकी और वासुदेव की विशेष रुप से सावधानीपूर्वक देखभाल करें ।  देवकी के गर्भ की सावधानीपूर्वक गणना करें ।  उसके सभी गर्भ सावधानीपूर्वक नष्ट कर दिये जाएं ।  मुनिवरों कंस ने इस प्रकारी की व्यवस्था तो कर दी, पर मन ही मन नारद की बातों के कारण भयभीत हो गया था ।  उसने देवकी के सभी गर्भ नष्ट करने की उचित व्यव्स्था कर दी ।

यह बात योगबल से भगवान विष्णु को भी ज्ञात हो गयी उनको यह सोचना पड़ा कि कंस द्घारा सात गर्भ नष्ट करने पर आठवें गर्भ  में वह किस प्रकार अवतार (जन्म) लेंगे ।  तभी भगवान विष्णु को कालनेमि के छह पुत्रों का ध्यान आ गया ।  हिरण्यकशिपु ने उनको शाप दिया था कि तुम सब देवकी के गर्भ में जाओगे और जन्म से ही पूर्व गर्भ के समय ही तुम सबकी मृत्यु होगी ।  हिरण्यकशिपु ने उनको यह शाप इसलिये दिया था कि उन्होंने बिना अनुमति के ब्रहृ की तपस्या कर वरदान पा लिया था ।  अतएव इस शाप को पूरा करना आवश्यक था ।  अतएव भगवान विष्णु तुरन्त भूतल लोक को गये ।  वहां पर छहों कालनेमिके पुत्र जल-शय्या पर निद्रामग्न थे ।  विष्णु भगवान अपनी योगमाया के बल पर उनके शरीर में प्रवेश कर गये और उनके प्राण हरण कर निद्रा को दे दिए ।  उसे आदेश दिया की वह एक-एक प्राण देवकी के गर्भ में स्थापित करे ।  सातवें गर्भ के समय गर्भ परिवर्तन कर दे ।  देवकी के गर्भ को रोहिणी के गर्भ में स्थापित कर दे ।  इस प्रकार के संकर्षण से उत्पन्न बालक मेरा बड़ा भाई होगा ।  आठवें गर्भ के समय मैं जन्म लूंगा और तब तुम भी जन्म लोगी ।  मैं यशोद के पास पहुंच जाऊंगा ।  तुम देवकी के पास रहोगी ।  इस प्रकार तुमको देवकी की आठवीं संतान मानकर कंस तुम्हारा वध करेगा, पर तुम त्यन्त दिव्यरुप में आकाश में तिरोहित हो जाना ।  इन्द्र तुम्हारा अभिषेक करेगा ।  वह तुमको अपनी बहन मानेगा ।  बाद में तुम देवी के रुप में पूजति होंगी ।  शुंभ-निशुंभ नामक दो दैत्यों का वध कर तुम मेरे अंश से उत्पन्न देवी के रुप में पूजी जाओगी ।  तुम्हारा जप करने वाला धन-सम्पत्ति, पुत्रादि का सुख पायेगा ।  उनके संकट तुम सदा दूर करने में समर्र्थ रहोगी ।

इस प्रकार भगवान विष्णु ने निद्रा को अपने कार्य में भागी बना लिया ।  वह वापस आ गये ।  सारी योजना बन गयी ।
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भगवान कृष्ण जन्म

सूतजी बोले, मुनिवरों ।  जैसा मैंने बताया, वही सब आगे चलकर घटित हुआ ।  जैसे-जैसे देवकी गर्भ धारण करती जाती थी, जैसे- जैसे शिशु पैदा होते थे, वैसे-वैसे ही कंस उनको एक शिला पर पटककर उनका वध कर देता था ।  इस प्रकार देवकी के छह गर्भ नष्ट हो गए ।  कालनेमि के छहों पुत्र हिरण्यकशिपु का शाप पूर कर मुति प्राप्त कर गये ।  जब देवकी का सातवां गर्भ आया, तो योगमाया ने देवकी के गर्भ को रोहिणी के गर्भ  में स्थापित कर दिया फिर अर्धरात्रि में ही रजस्वला देवकी का गर्भपात हो गया ।  वह मूर्छित हो गयी ।  उसको योगमाया के इस कार्य का कुछ पता न चला ।  उसी रात रोहिणी ने पुत्र को जन्मा ।  रोहिणी पुत्र पाकर हर्षित हो गयी ।  रोहिणी वासुदेव की दूसरी पत्नी थी ।  उसकी संतानों से कंस को किसी प्रकार का भय न था ।

कंस ने सप्तम गर्भ की खोज की, पर कुछ पता न चला ।  इसी बीच देवकी आठवीं बा र गर्भवती हो गयी ।  आठवां गर्भ होने के कारण कंस द्घारा अत्यन्त सावधानी के साथ देवकी की देखभाल हो रही थी ।  कंस ने सारी सुरक्षा कर ली थी ।  देवकी के आठवें गर्भ में स्वयं भगवान विष्णु आ गये ।  दूसरी ओर भगवान विष्णु के आदेशानुसार निद्रा ने यशोदा के गर्भ मे प्रवेश किया ।  इस प्रकार हे मुनिवरों ।  आठवें माह में यहां देवकी ने और वहां यशोदा ने क्रमशः एक पुत्र और एक पुत्री को जन्म दिया ।  भगवान का जन्म होते ही समस्त भूमंडल प्रसन्न हो गया ।  देवी देवता उनकी आरती उतारने लगे ।  तब वासुदेव ने भयभीत होकर कहा, हे प्रभो आपने अलौकिक रुप में मेरे यहां जन्म लिया है, पर यह सब कै संभाले ।  कंस मेरी सब संतानें नष्ट कर चुका है ।  आप अपने रुप को संवरित करे ।  इस पर भगवान विष्णु ने अपनो को संवरित कर लिया ।  वसुदेव से वह बोले, हे पिताजी आप कृपा कर मुझे यहां से गोपराज नंद के यहां ले चलिये ।  भगवान की इस आज्ञा को पाकर वसुदेव रात में ही यशोदा के घर गये ।  उन पर किसी प्रकार की रोक-टोक न हुई ।  सर्वत्र निद्रा का गहरा राज व्याप्त था ।  यशोदा के निवास पर भी यह दशा थी ।  वह एक बालिका को जन्म देकर सो रही थी । सब सो रहे थे ।

मुनिवरों यह सब भगवान विष्णु की माया थी ।  योगमाया का मायाजाल फैला था ।  इस कारण वसुदेव अपना पुत्र यशोदा के पास रखकर उसकी पुत्री उठाकर सकुशल वापस आ गये ।

किसी को कानों कान पता न चला ।  यहां तक कि देवकी भी बेखबर रह गयी ।  यह रहस्य केवल वसुदेव तक ही रह गया ।  वापस आते ही सब की निंद्रा टूट गयी ।  देवकी का शिशु रुदन करने लगा ।  आठवीं संतान का जन्म देखते ही तत्काल कंस को सूचना दी गई ।  कंस तुरन्त दौड़कर आ गया ।  उसने देवकी की गोद से जन्मी उस कन्या को छीन लिया ।  देवकी रोने लगी, बोली, हे भाई, तुमने मेरे छह पुत्रों का वध कर डाला ।  अब यह एक कन्या उत्पन्न हुई है ।  इस पर दया करो ।  वैसे ही यह परी सी लगती है ।  मुनिवरों ।  इस पर कंस हंसकर बोला, हां सचमुच परी लगती है ।  और उसने कन्या को शिला पर दे मारा ।  जैसे ही कन्या शिला से टकरायी, वह अपना कलेवर दल आकाश में उड़ गयी ।  कंस अवाक चकित रह गया ।  निगाहें उठाकर उसने आकाश की ओर देखा ।  आकाश में उसके केश फैले थे ।  उसकी देह दिव्य चंदन सी सुशोभित थी ।  उसने नील-पीत वर्ण के परिधान धारण कर रखे थे ।  हाथी के मस्तक के समान उठे, उभरे उसके स्तन थे ।  उसका मुख चन्द्रमा के समान रुपवान था ।  वह मदिरा पान करती आश में उन्मुक्त विचरण कर रही थी ।  उसने भयानक अट्टाहास के साथ क्रोधित होकर कहा, रे कंस तूने अकारण ही मुझे पृथ्वी पर पटका ।  पर तेरा काल तो आयेगा और तेरे शत्रु तेरा नाश कर डालेंगे, उस समय तेरी छाती चीरकर मैं तेरा रुधिरपान करुंगी ।  और इस प्रकार कह कर वह आकाश में विलीन हो गयी ।
कंस भौचक्का रह गया, पर वह अट्टाहास करते हुए बोला, मेरा नाश करने वाला उत्पन्न ही नहीं हुआ है ।  इस प्रकार कहकर कंस वापस अपने भवन में आ गया ।  नारद की बात पर उसे आश्र्चर्य हुआ देवकी का आठवां पुत्र उसका वध करेगा ।  आठवीं संतान तो कन्या हुई ।  नारद का कथन सच नहीं निकला ।  वह असमंजस में पड़ गया ।  क्या उसका वध अन्य व्यक्ति के द्घारा होगा ।  वह मन ही मन भयभीत हो गया ।

फिर वह देवकी के पास गया ।  देवकी के पास जाकर पश्चाताप करने लगा, बोला, मैं बड़ा निष्ठुर हूँ मैंने अपने प्रियजनों का ही दमन किया है ।  फिर भी विधाता ने जो भाग्य में लिख दिय है वह होकर रहेगा ।  हे बहन उसमें मैं किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं कर सकता ।  हे सती तुमको दुख त्याग देना चाहिए और मेरे प्रति भी कटुता नहीं रखनी चाहिए क्योंकि जो कुछ भी मैं कर रहा हूँ, वह विधाता के हाथों का खिलौना बनकर कर रहा हूँ ।  जो होना होता है, वह अवश्य होता है लेकिन दुखद दशा तो यह है कि देव के विधान का मनुष्य स्वयं कर्ता बन जाता है ।  समय ही मनुष्या का सबसे बड़ा दुश्मन है ।  वही उसका विनाशक भी है इस कारण तुमो मुझ पर क्रोध नहीं करना चाहिये ।  हे बहन मैं पुत्रवत् होकर तुम्हारे चरणों में प्रणाम करता हूँ ।  मैंने तुम्हार बड़ा अपकार किया है ।  इस प्रकार कहकर कंस देवकी के चरणें में लोट गया ।  हे मुनिवरों ।  कंस को इस प्रकार पने चरणें में लोटता देखककर देवकी की आँखों में आंसू उमड़ आये ।  वह अपने पति को विलोक कर एक मां के द्रवित हृदय से बोली, मं तुम पर नाराज नहीं हूँ ।   यह सब काल की माया है ।  मैं तुमको क्षमा करती हूँ ।  इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है  ।  देवकी से इस प्रकार का संतोष पा कंस अन्तःपुर में चला गया ।  देवकी से क्षमा-याचना करने के उपरान्त भी वह चिंतित उद्घिग्न था ।

मुनिवरो वसुदेव ने भगवान विष्णु का कृष्ण रुप में जन्म होने से पहले ही अपनी पत्नी रोहिणी को गोपराज नंद के यहां भेज दिया था ।  बाद में उनको पता चला कि रोहिणी ने एक बालक को जन्म दिया है ।   वह अत्यन्त प्रसन्न हुए और जब गोपराज नन्द अपना वार्षिक कर देने मथुरा आये तो वसुदेव ने उनसे भेंट की ।  उनसे निवेदन किया कि रोहिणी पुत्र को वह अपना पुत्रवत् माने और उसका नामसकरण संस्कार अपने पुत्र (जो वास्तव में वसुदेव का था) के साथ सम्पन्न करा दे ।  कंस के कारण वह रोहिणी से उत्पन्न पुत्र का मुख नहीं देख पा रहे है ।  इस प्रकार वसुदेव का दुख देखकर गोपराज नन्द ने उनको धैर्य बंधाया और सब प्रकार से आश्वासन देकर संतुष्ट कर दिया । नंदराज का आश्वासन पाकर वसुदेव को बड़ा संतोष मिला ।

वह तब जलमार्ग से मथुरा जाते हुए गौ-ब्रज नामक स्थान पर रुक गये ।  ब्रज बड़ी सुन्दर और मनोरम भूमि थी ।  वहां के गोप-गोपियों की शोभा देखते ही बनती थी ।  अतएव गोपराज नेंद का मन रम गया ।  इसके साथ-साथ वहां के तमाम गोप-गोपियों ने उनसे रुकने का भी निवेदन किया था ।  उत्तम स्थान देखककर गोपराज नंद वहीं वास करने लगे ।  यहीं पर दोनों पुत्रों का नामकरण-संस्कार भी किया गया ।  बड़े पुत्र का नाम संकर्षण और छोटे का नाम कृष्ण रखा गया ।  इस प्रकार नंद सुखपूर्वक वहां पर वास करने लगे ।

« Last Edit: January 03, 2008, 12:27:27 AM by Jyoti Ravi Verma »
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शकटासुर का वध

सूतजी बोले, हे मुनिवरों अब मैं आपको कृष्ण की बाल लीलाएं बतलाता हूँ ।  वृष्णि वंश में जन्म लेकर भगवान विष्णु ने बाल रुप कृष्ण बनकर क्या किया, वह सब आप सुनें ।  सूतजी के इस कथन पर सम्पूर्ण उपस्थित मुनिगण प्रसन्न हो गये ।  अत्यन्त उत्सुक्तापूर्वक वह सूतजी का कथन श्रवण करने लगे ।

सूतजी आगे बोले, एक दिन कृष्ण को निंद्रामग्न देखकर माता यशोदा उनको एक छकड़े के नी लिटा गयीं ताकि बाहर आंगन मेंहवा लगती रहे और छकड़े की छाया के कारण बालक का धूप से बचाव भी होता रहे ।  वह यमुना स्नान के लिये चली गयी ।  वहां उनका मन न लगा ।  वह तत्काल स्नान करके वापस आ गयी ।  जैसे ही वह वापिस आयी, देखा कि छकड़ा उलटा पड़ा हुआ है ।  उसका प्रत्येक भाग टूटा पड़ा है ।  पहिया अलग, जुआ अलग.............. वह घबराकर दौड़ी ।  हाय मेरा लाल ।  उनको भय लगा ।  शायद किसी कारणवश छकड़ा उलट गया है उनका लाल उसमें दब गया होगा ।  मुनिवरों माता यसोदा के प्राण कंठ मं आ गये ।  दौड़कर भंग हो गये छकड़े के पास आयी ।  हठात् अपने लाल को उसी प्रकार निंद्रामग्न देखकर लपककर उठा लिया और छाती से लगा लिया ।  उनकी आंखों से प्रसन्नता के कारण अश्रुधार फूट पड़े ।  वह अपना भागय सराहने लगी ।  अगर बालक को कुछ हो जाता, तो उनको गोपराज नंद का कोपभाजन बनना पड़ता ।  लापरवाही का फल भोगना पड़ता ।  वह बालक को इस प्रकार छकड़े के नीचे अकेला सुलाकर यमुना स्नान के लिये क्यों गयी ।  वह पश्चाताप करने लगी ।  कितनी बड़ी भूल कर दी है, उन्होंने ऐसा उनको न करना था ।  बालक को कुछ हो गया होता तो.......... अभी वह अपने को संभाल भी नहीं पायी थी कि काषाय वस्त्रधारी नेंद आ गये ।  छकड़े की दशा देखकर चौंक गये ।  पूछा अरे छकड़ा इस प्रकार टुकड़े-टुकडे होकर कैसे पडा है ।


यशोदा के पास इस जिज्ञासा का कोई उत्तर न था ।  गोपराज नंद यशोदा की गोद में बालक को स्तनपान करते देखकर आश्वस्त हो गये कि बालक सुरक्षित है ।  नंद ने अपना प्रश्न फिर दोहरा दिया तब यशोदा ने सच सच उनको सब बतला दिया ।  मैं लौटकर आयी तो छकड़ा इसी प्रकार पड़ा था ।  बालक मैंने उठा लिया । मैं नहीं जानती, कैसे टूटा ।

यह वार्तालाप हो ही रहा था कि कुछ गोप बालक खेलते हुए वहां आ गये ।  दोनों का वार्तालाप सुनकर वह बोले, अरे इसने खुद लात मारी थी छकड़े में ।  हम सब तो देख रहे थे ।  छकडड़ा हवा में उड़ गया ।  नीचे गिरा तो चूर-चूर हो गया ।  इसी ने किया है ।  वह सब बालक को ही दोषी ठहराने लगे ।  गोप बालकों की बात सुनकर नंद और यशोदा चकित रह गये ।  उनको गोप बालकों की बात पर विश्वास ही नहीं हो रहा था ।  अंततः गोपराज नंद ने वह छकड़ा ठीक ठीक करके रख दिया ।

मुनिवरो गोपराज नंद और माता यशोदा ने गोप बालकों की बात का विश्वास न किया ।  भला विश्वास भी कैसे हो सकता था ।  एक नन्हा-सा शिशु भला विशालकाय छकड़ा लात मारकर कैसे उलट सकता है ।  अतएव दोनों भगवान की लीला को न जान सके ।


वास्तव में उनका वध करने के लिये कंस द्घारा भेजा गया असुर शकटासुर आया था ।  वह सदा छकड़ों में प्रवेशकर अपने शत्रु की हत्या करने में निपुण था ।  निद्रामग्न कृष्ण को एकदम उपयुक्त स्थान पर पाकर उसने अपने कौशल का प्रदर्शन किया ।  वह तत्काल छकड़े में प्रवेश कर गया ।  वह टूटकर कृष्ण के ऊपर गिरकर उसके प्राण हरण करने वाला था कि कृष्ण ने अपना पैर मारकर उसको उछाल दिया ।  जब वह धरती पर गिरा तो चूर-चूर हो गया ।  शकटासुर की हड़डी-पसली बराबर हो गयी । हे मुनिवरों ।  भगवान कृष्ण के हाथों उसके जीवन का अंत होने के कारण यमराज ससम्मान उसको स्वर्ग ले गया ।  उसे मोक्ष पद प्राप्त हो गया ।  भगवान पापियों का नाश करते है, पर मुनिवरों, भगवान के हाथों मारे जाने पर तमाम पापी स्वर्ग को प्राप्त होते है ।  हे मुनिवरों भगवान की यह कैसी कृपा है ।  सूजी से इस प्रकार का विवरण सुनकर सभी मुनिगण भगवान की इस लीला पर गदगद हो उठे नमिषारण्य एकबारगी भगवान के जय-जयकार से गूंज उठा ।

« Last Edit: May 07, 2008, 01:23:12 AM by Jyoti Ravi Verma »
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