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Author Topic: वेदों की कथाएं---विष्णु जी और माता लक्ष्मी जी  (Read 26778 times)

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कृष्ण की राजसी होली~~~
- प्रेम जनमेजय

   
जैसे-जैसे होली का दिन समीप आ रहा था, कृष्ण की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। इसी बीच उनका मन कई बार चाहा कि वे स्वयं रथ हाँकें और सुरक्षाकर्मियों, को चकमा दे कर तीव्र गति से ब्रजप्रदेश पहुँच जाएँ, परंतु नटवरलाल सुरक्षाकर्मियों के समक्ष जैसे विवश हो गए थे।

कृष्ण ने अपने सखा और सलाहकार उद्धव को बुलाया। (स्पष्टीकरण : उद्धव कृष्ण के साथ स्कूल में नहीं पढ़े थे, फिर भी सखा और सलाहकार थे, यह द्वापरयुग की बात है, कलियुग की नहीं) श्रीकृष्ण ने उद्धव से कहा, 'हे मित्र, ब्रज की बार-बार याद आने से हृदय गोप-गोपिकाओं से मिलने को मचल रहा है। मैं होली के अवसर पर ब्रजप्रदेश जाना चाहता हूँ। गोपिकाओं के गुलाबी गालों पर गुलाल मलने के लिए मेरे हाथ तड़प रहे हैं। गोप-सखाओं के साथ मिल कर होली का हुड़दंग मचाने के लिए हृदय में तरंगें उठ रही हैं। कुछ करो, मित्र'!

'मैं तुम्हारे हृदय की दशा समझता हूँ मित्र, परंतु सुरक्षा की दृष्टि से इस समय ब्रज प्रदेश जाना उचित नहीं है, गुप्तचरों से सूचना मिली है कि अभी भी कंस के कुछ ऐसे विश्वासपात्र सेवक बचे हैं, जो तुम्हारी हत्या करना चाहते हैं। ब्रज की गोपिकाओं के प्रति तुम्हारे अनुराग से वे अच्छी तरह परिचित हैं, हो सकता है कि होली के अवसर पर ब्रज में तुम्हारी हत्या का षड्यंत्र रचा जा रहा हो,' उद्धव बोले।

'इसका अर्थ हुआ इस बार हम होली नहीं खेल सकेंगे,' कृष्ण खीझ कर बोले। 'क्यों नहीं खेल सकेंगे! अब तो आप राजा कृष्ण हैं, आप चाहें तो पूरा वर्ष होली खेल सकते हैं। अब आपको केवल होली खेलनी ही नहीं है, होली पर प्रजा के नाम से संदेश भी प्रसारित करना है।'

'होली पर प्रजा के नाम संदेश! कैसा संदेश?' कृष्ण ने सश्चर्य कहा।
  कौन व्यक्ति किस पल पर कैसे आप पर रंग फेंकेगा, इसके एक-एक क्षण को तय कर लिया गया है। जो आप पर रंग डालेंगे, वे उत्तर दिशा में आप से बीस गज दूर होंगे। उनके पीछे सुरक्षा कर्मचारी तत्पर रहेंगे और जिन पर आप रंग डालेंगे, वे पश्चिम दिशा में रहेंगे।     


'यही कि प्रजाजन होली को सद्भावपूर्वक मनाएँ। एक-दूसरे से मिल-जुलकर, भेदभाव भूलकर होली खेलें। आपका संदेश-सचिव होली का संदेश देने के लिए उसका प्रारूप तैयार कर रहा है।'

यह सुन कर कृष्ण बहुत जोर से हँसे, 'होली पर संदेश...प्रजा तो सद्भावपूर्वक होली मनाएगी ही। मेरे संदेश देने से क्या होनेवाला है, मित्र? हाँ, इससे लोगों को यह ज्ञान अवश्य हो जाएगा कि होली भेदभाव के साथ ही मनाई जा सकती है।'

'जानता हूँ इन संदेशों का कोई विशेष लाभ नहीं होता, फिर भी ये दिए जाते हैं। जनता भी इन संदेशों को निस्पृह भाव से सुनती है। इनका सुनना क्या और न सुनना क्या! संदेश देने वाला भी इस भाव से देता है कि जो सुने उसका भला, जो न सुने उसका भी भला, परंतु राजा को संदेश देना ही पड़ता है,' उद्धव बोले।

'यानी कि हम होली का संदेश देंगे, होली नहीं खेलेंगे,' श्रीकृष्ण ने चुटकी ली।

'क्यों नहीं खेलेंगे,' आपकी राजसी होली की तैयारियाँ तो दो माह से चल रही हैं, जो लोग आपसे होली खेलने आएँगे, उनके चुनाव की प्रक्रिया लगभग समाप्त हो चुकी है। होली खेलने वालों के चरित्र, रहन-सहन, स्वभाव आदि की पूरी विवरणी तैयार कर ली गई है। इनको होली का प्रशिक्षण देने के लिए अनेक कुशल होली वीर स्थान-स्थान से बुलाए गए हैं। रंग के लिए टेसू के फूलों का एक उपवन तैयार किया गया है, जिसकी रक्षा का भार सौ पहरेदारों पर है। चौंसठ प्रकार के गुलालों की रचना करने के लिए दो सौ कारीगरों की व्यवस्था की गई है। दो सौ पिचकारियों के निर्माण का कार्य विशेष सुरक्षा में चल रहा है।

कौन व्यक्ति किस पल पर कैसे आप पर रंग फेंकेगा, इसके एक-एक क्षण को तय कर लिया गया है। जो आप पर रंग डालेंगे, वे उत्तर दिशा में आप से बीस गज दूर होंगे। उनके पीछे सुरक्षा कर्मचारी तत्पर रहेंगे और जिन पर आप रंग डालेंगे, वे पश्चिम दिशा में रहेंगे। उनके हाथ में कुछ नहीं होगा,' उद्धव एक साँस में सब बोल गए।

'यानी आपका अर्थ है कि जो हम पर रंग डालेंगे, हम उन पर रंग नहीं डालेंगे, उनके हाथ में पिचकारियाँ नहीं होंगी। वे केवल अपने ऊपर रंग डलवाएँगे, ये कैसा हास्यास्पद होगा! यह होली है या होली का स्वांग? कृष्ण झुझंला कर बोले।

'राजा तो होता ही है स्वांग करने के लिए, मित्र! गरीबों को देख कर एक पल में उसके चेहरे पर दुःख-दर्द छा जाता है और अमीरों को देख कर अगले ही क्षण उसका चेहरा राजीव सा खिल जाता है। वह एक क्षण विवाह में सम्मिलित हो कर मुस्कुराता है और दूसरे क्षण शवयात्रा में सम्मिलित हो कर उदास हो जाता है, परंतु उसका हृदय न तो प्रसन्न होता है और न ही दुःखी', उद्धव ने समझाया।

'नहीं मित्र, नही! राजा होने का अर्थ यह नहीं है कि हम प्रजा से दूर हो जाएँ प्रजा क्या सोचेगी? जो कृष्ण कल तक ब्रज की गलियों में होली खेला करता था, जो आम जनता के घरों से मक्खन चुराया करता था, जो कल तक वन में गाय चराया करता था, वही कृष्ण राजा बन कर इतना विश्ष्टि हो गया कि राजसी होली खेल रहा है। होली खेल नहीं रहा है, होली का स्वांग कर रहा है। कृष्ण की छवि ऐसी नहीं है, वह तो किसी गरीब के झोपड़े में घुस कर होली खेल सकता है। नहीं मित्र, कृष्ण को राजसी होली की छवि नहीं चाहिए।'

'छवि की आप चिंता मत करें मित्र, मैंने प्रचारमंत्री से कहकर सब प्रबंध करवा लिया है। महल के एक भाग में झोपड़ियों का निर्माण किया गया है। आपसे होली खेलने के लिए हर वर्ग की पोशाक पहने अलग-अलग व्यक्ति आएँगे। होली खेलते समय आपके प्रत्येक भाव-अनुभाव के सैकड़ों चित्र बना कर वितरित किए जाएँगे। राज्य पर थोड़ा आर्थिक संकट है, अतः आपकी छवि सादगीभरी होली खेलने वाले राजा की होगी। जनता से भी अनुरोध किया जाएगा कि वह भी सादी होली खेले और बचत करे, उद्धव ने समझाया।

'सादी होली.... हा-हा-हा, हमारे लिए सादी होली का जैसा प्रबंध तुमने किया है, उसे देखकर तो देवता भी चकित हो रहे हैं। हमारी सुरक्षा व्यवस्था पर जितना हो रहा है उससे...'

'यह आपका सिरदर्द नहीं है, मित्र!' उद्धव ने बात काटते हुए कहा, 'आप तो होली खेलने के लिए अपना मन तैयार रखें।'

'हमें नहीं खेलनी है ऐसी यांत्रिक होली। हम होली खेलेंगे तो ब्रजवासियों के साथ वरना होली नहीं खेलेंगे,' कृष्ण ने रूठते हुए कहा।

उद्धव ने यह सुन कर थोड़ा चिंतन किया और बोले, 'अच्छा मित्र, इसका भी उपाय मैंने सोचा है, हम सब होली खेलने किसी द्वीप पर चलेंगे, वहाँ आपके कुछ अत्यंत अंतरंग गोप-गोपी मित्र होंगे, उनके साथ आप छुट्टियाँ भी मना लेना और होली भी खेल लेना।'

प्रस्ताव अच्छा था, कृष्ण मान गए।

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स्यमन्तक मणि कथा~~~


एक बार नंदकिशोर ने सनतकुमारों से कहा कि चौथ की चंद्रमा के दर्शन करने से श्रीकृष्ण पर जो लांछन लगा था, वह सिद्धि विनायक व्रत करने से ही दूर हुआ था। ऐसा सुनकर सनतकुमारों को आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूर्णब्रह्म श्रीकृष्ण को कलंक लगने की कथा पूछी तो नंदकिशोर ने बताया-एक बार जरासन्ध के भय से श्रीकृष्ण समुद्र के मध्य नगरी बसाकर रहने लगे। इसी नगरी का नाम आजकल द्वारिकापुरी है।द्वारिकापुरी में निवास करने वाले सत्राजित यादव ने सूर्यनारायण की आराधना की। तब भगवान सूर्य ने उसे नित्य आठ भार सोना देने वाली स्यमन्तक नामक मणि अपने गले से उतारकर दे दी।

मणि पाकर सत्राजित यादव जब समाज में गया तो श्रीकृष्ण ने उस मणि को प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त की। सत्राजित ने वह मणि श्रीकृष्ण को न देकर अपने भाई प्रसेनजित को दे दी। एक दिन प्रसेनजित घोड़े पर चढ़कर शिकार के लिए गया। वहाँ एक शेर ने उसे मार डाला और मणि ले ली। रीछों का राजा जामवन्त उस सिंह को मारकर मणि लेकर गुफा में चला गया।

जब प्रसेनजित कई दिनों तक शिकार से न लौटा तो सत्राजित को बड़ा दुःख हुआ। उसने सोचा, श्रीकृष्ण ने ही मणि प्राप्त करने के लिए उसका वध कर दिया होगा। अतः बिना किसी प्रकार की जानकारी जुटाए उसने प्रचार कर दिया कि श्रीकृष्ण ने प्रसेनजित को मारकर स्यमन्तक मणि छीन ली है। इस लोक-निन्दा के निवारण के लिए श्रीकृष्ण बहुत से लोगों के साथ प्रसेनजित को ढूंढने वन में गए। वहाँ पर प्रसेनजित को शेर द्वारा मार डालना और शेर को रीछ द्वारा मारने के चिह्न उन्हें मिल गए। रीछ के पैरों की खोज करते-करते वे जामवन्त की गुफा पर पहुँचे और गुफा के भीतर चले गए। वहाँ उन्होंने देखा कि जामवन्त की पुत्री उस मणि से खेल रही है। श्रीकृष्ण को देखते ही जामवन्त युद्ध के लिए तैयार हो गया।

युद्ध छिड़ गया। गुफा के बाहर श्रीकृष्ण के साथियों ने उनकी सात दिन तक प्रतीक्षा की। फिर वे लोग उन्हें मर गया जानकर पश्चाताप करते हुए द्वारिकापुरी लौट गए। इधर इक्कीस दिन तक लगातार युद्ध करने पर भी जामवन्त श्रीकृष्ण को पराजित न कर सका। तब उसने सोचा, कहीं यह वह अवतार तो नहीं जिसके लिए मुझे रामचंद्रजी का वरदान मिला था। यह सोचकर उसने अपनी कन्या का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया और मणि दहेज में दे दी। श्रीकृष्ण जब मणि लेकर वापस आए तो सत्राजित अपने किए पर बहुत लज्जित हुआ। इस लज्जा से मुक्त होने के लिए उसने भी अपनी पुत्री का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया।

कुछ समय के बाद श्रीकृष्ण किसी काम से इंद्रप्रस्थ चले गए। तब अक्रूर तथा ऋतु वर्मा की राय से शतधन्वा यादव ने सत्राजित को मारकर मणि अपने कब्जे में ले ली। सत्राजित की मौत का समाचार जब श्रीकृष्ण को मिला तोवे तत्काल द्वारिका पहुँचे। वे शतधन्वा को मारकर मणि छीनने को तैयार हो गए। इस कार्य में सहायता के लिए बलराम भी तैयार थे। यह जानकर शतधन्वा ने मणि अक्रूर को दे दी और स्वयं भाग निकला। श्रीकृष्ण ने उसका पीछा करके उसे मार तो डाला, पर मणि उन्हें नहीं मिल पाई।

बलरामजी भी वहाँ पहुँचे। श्रीकृष्ण ने उन्हें बताया कि मणि इसके पास नहीं है। बलरामजी को विश्वास न हुआ। वे अप्रसन्न होकर विदर्भ चले गए। श्रीकृष्ण के द्वारिका लौटने पर लोगों ने उनका भारी अपमान किया। तत्काल यह समाचार फैल गया कि स्यमन्तक मणि के लोभ में श्रीकृष्ण ने अपने भाई को भी त्याग दिया। श्रीकृष्ण इस अकारण प्राप्त अपमान के शोक में डूबे थे कि सहसा वहाँ नारदजी आ गए। उन्होंने श्रीकृष्णजी को बताया- आपने भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के चंद्रमा का दर्शन किया था। इसी कारण आपको इस तरह लांछित होना पड़ा है।

श्रीकृष्ण ने पूछा- चौथ के चंद्रमा को ऐसा क्या हो गया है जिसके कारण उसके दर्शनमात्र से मनुष्य कलंकित होता है। तब नारदजी बोले- एक बार ब्रह्माजी ने चतुर्थी के दिन गणेशजी का व्रत किया था। गणेशजी ने प्रकट होकर वर माँगने को कहा तो उन्होंने माँगा कि मुझे सृष्टि की रचना करने का मोह न हो। गणेशजी ज्यों ही ‘तथास्तु’ कहकर चलने लगे, उनके विचित्र व्यक्तित्व को देखकर चंद्रमा ने उपहास किया। इस पर गणेशजी ने रुष्ट होकर चंद्रमा को शाप दिया कि आज से कोई तुम्हारा मुख नहीं देखना चाहेगा।

शाप देकर गणेशजी अपने लोक चले गए और चंद्रमा मानसरोवर की कुमुदिनियों में जा छिपा। चंद्रमा के बिना प्राणियों को बड़ा कष्ट हुआ। उनके कष्ट को देखकर ब्रह्माजी की आज्ञा से सारे देवताओं के व्रत से प्रसन्न होकर गणेशजी ने वरदान दिया कि अब चंद्रमा शाप से मुक्त तो हो जाएगा, पर भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को जो भी चंद्रमा के दर्शन करेगा, उसे चोरी आदि का झूठा लांछन जरूर लगेगा। किन्तु जो मनुष्य प्रत्येक द्वितीया को दर्शन करता रहेगा, वह इस लांछन से बच जाएगा। इस चतुर्थी को सिद्धि विनायक व्रत करने से सारे दोष छूट जाएँगे।

यह सुनकर देवता अपने-अपने स्थान को चले गए। इस प्रकार भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को चंद्रमा का दर्शन करने से आपको यह कलंक लगा है। तब श्रीकृष्ण ने कलंक से मुक्त होने के लिए यही व्रत किया था।

कुरुक्षेत्र के युद्ध में युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा- भगवन! मनुष्य की मनोकामना सिद्धि का कौन-सा उपाय है? किस प्रकार मनुष्य धन, पुत्र, सौभाग्य तथा विजय प्राप्त कर सकता है? यह सुनकर श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया- यदि तुम पार्वती पुत्र श्री गणेश का विधिपूर्वक पूजन करो तो निश्चय ही तुम्हें सब कुछ प्राप्त हो जाएगा। तब श्रीकृष्ण की आज्ञा से ही युधिष्ठिरजी ने गणेश चतुर्थी का व्रत करके महाभारत का युद्ध जीता था।

Jai Sai Ram!!!

 


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