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Author Topic: श्री साईं सत्चारित्र का तत्वज्ञान Ssc ka tatvgyaan  (Read 19807 times)

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Offline sai ji ka narad muni

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Lets discuss the quintessence of Sri sai satcharitra that shows us the light oF ज्ञान and directs us on the path of Sai bhakti
ॐ साईं राम

« Last Edit: July 23, 2016, 04:01:11 AM by sai ji ka narad muni »
जिस कर्म से भगवद प्रेम और भक्ति बढ़े वही सार्थक उद्योग हैं।
ॐ साईं राम

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समस्त चेतनाओं , इन्द्रिय-प्रवर्तियों और मन को एकाग्र कर बाबा के पूजन और सेवा की और लगाना चाहिए :- श्री साईं सत चरित्र पाठ 45.
जिस कर्म से भगवद प्रेम और भक्ति बढ़े वही सार्थक उद्योग हैं।
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श्री साईं सत्चारित्र के हर पाठ के साथ हमारी समझ विकसित होती जाती हैं, उसकी एक एक पंक्ति में ज्ञान समाहित हैं ,आवश्यकता हैं तो बस बाबा के शरणागत हो सत्चारित्र का पाठ करने की।
हेमाडपंत जी कहते हैं:
" शिष्यास तत्वोंपदेशादानिं। गुरु एक जनीं समर्थ।म्हणवुनि प्रार्थू कीं बाबांप्रत...।" अध्याय २६
अर्थात हमारे गुरु साईं हमे तत्व ; सत्य का दर्शन कराने में समर्थ हैं , तो आओ हम बाबा की उपासना कर साईं महाराज से सत्य का दर्शन कराने की प्रार्थना करें ,हमारे साईं ही ईश्वर हैं।

 मेरा निजी अनुभव यह हैं की हमे ज्ञान या वैराग्य के पीछे भागने की जरुरत नही हैं, एक समय था जब मेरा ध्यान केवल माया निवृति करने पर ही केन्द्रित था,और मेने प्रार्थना में बाबा से केवल वैराग्य ही माँगा परन्तु वह मूर्खता ही सिद्ध हुआ क्यू की ज्ञान वैराग्य भक्ति के ही पुत्र हैं और साईं कृपा से वे स्वयं ही साधक के हृदय में प्रकट हो जाते हैं। जरूरत हैं तो भक्ति की, जो हमे साईं जी सइ मांगनी चाहिए।
सत चरित्र का सार यदि एक पंक्ति में कहना हो तो मेरा उत्तर सदेव यही होता हैं:

शरणागति शरणागति गुरु की शरणागति ,साईं भगवन स्वयं हमारा योगक्षेम वहन करने में पूर्ण समर्थ हैं,  सद्गुरु साईनाथ महाराज की भक्ति कर हम अपना जीवन सफल बनाना चाहिय , हमारे दयालु साईं हमे उत्तम गति प्रदान करेंगे।


साईनाथ महाराज की जय

कबीरदास जी किस यातना का अनुभव कर व्यथित हो रहे हैं?


यह अनुभूति वह मुमुक्षु ही पहचानता हैं जो संसार के भोग भोगते समय अपनी मुक्ति की बाट जोहता हैं, किसी मनुष्य को फांसी देने के लिय लटकाया गया हो तब उसे मिष्ठान पकवान आदि भोग नही सुहाते,उसी प्रकार माया अपने जाल में जीव मात्र को फ़साये रख भगवद प्राप्ति के मार्ग से दूर रखना चाहती हैं परन्तु उसकी यह चाल विवेकी समझ लेता हैं और अपने पापो से लड़ कर गुरु कृपा से  मौत के मुह में जा रहे इस देह से परम पद की प्राप्ति का पात्र बनने में प्रति क्षण तत्पर रहता हैं।
जिसके हृदय में भगवद् विरह की अग्नि और चित्त में संसार से वैराग्य की अग्नि धधक रही हो उसे भला भौतिक समान शांति कैसे पंहुचा सकते हैं,
उसे ज्ञान रुपी दंण्ड को दृढ़ता से पकड़कर इस भवसागर रुपी चक्की से बचना होगा।।।
कबीरदास स्वयं एक परम भक्त हैं, उनकी भक्ति का स्तर हमारी बुद्धि से परे हैं और उनके ये भाव हम भक्तो के लिय एक भक्ति के स्तर( भक्ति के विभिन्न स्तर हैं)  के मानक हैं जिससे वे स्वयं बहुत ऊपर हैं ऐसा मेरा मानना हैं।


भक्ति भक्ति सब कोई कहै , भक्ति न जाने भेद ।
पूरण भक्ति जब मिलै , कृपा करै गुरुदेव ।।

भक्ति भक्ति तो हर कोई प्राणी कहता है किन्तु भक्ति का ज्ञान उसे नहीं होता, भक्ति का भेद नहीं जानता । पूर्ण भक्ति तभी प्राप्त हो सकती है जब गुरु देव की कृपा प्राप्त हो अतः भक्ति मार्ग पर चलने से पहले गुरु की शरण में जाना अति आवश्यक है । गुरु के आशिर्वाद और ज्ञान से मन का अन्धकार नष्ट हो जायेगा ।

The bhakti path
 

The bhakti path winds in a delicate way.
On this path there is no asking and no not asking.
The ego simply disappears the moment you touch
him.
The joy of looking for him is so immense that you
just dive in,
and coast around like a fish in the water.
If anyone needs a head, the lover leaps up to offer
his.

 

- Kabir
« Last Edit: March 24, 2016, 12:43:21 PM by sai ji ka narad muni »
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मुझसे लोग कहते हैं भगवान् हैं तो दिखाओ हमे
चमत्कार होते हैं तो दिखाओ हमे
I say:
"Deserve before you desire"
Answer is in chapter 21
"Three of the party were full of avarice, but the chief lady or mistress was of a very different nature. She had a regard and love for Baba. Once it so happened, that when the noon-day Arati was going on, Baba was much pleased with her faith and devotion, and was pleased to give her darshan of her Ishtam (Beloved Deity). To her Baba appeared as Sitanath (Rama) while to all the others the usual Sainath. On seeing her beloved Deity, she was very much moved. Tears began to flow from her eyes and she clapped her hands in joy. The people began to wonder at her joyful mood; but were not able to guess its cause. Late in the afternoon she disclosed everything to her husband. She told him how she saw Shri Rama in Sai Baba. He thought that she was very simple and devout, and her seeing Rama might be a hallucination of her mind. He poohpoohed her, saying that it was not possible, that she alone should see Rama while they all saw Sai Baba. She did not resent this remark, as she was fortunate enough to get Ramadarshan now and then, when her mind was calm and composed and free from avarice."

दुसरे भक्तो पर बाबा का प्रेम देखकर साईं पर श्रद्धा में कमी आती हो कभी तो भी धैर्य रख अपना प्रेम बढाये, बाबा अपने भक्तो से अत्यंत प्रेम करते हैं।।

-Like a loving mother forcing bitter but wholesome medicines down the throats of her children for the sake of their health, Sai Baba imparted spiritual instructions to His devotees. His method was not veiled or secret, but quite open. The devotees who followed His instructions got their object. Sad-gurus like Sai Baba open our (eyes of the) intellect and show us the divine beauties of the Self, and fulfill our tender longings of devotion. When this is done, our desire for sense-objects vanishes, twin fruits of Viveka (discrimination) and Vairagya (dispassion or non-attachment) come to our hands; and knowledge sprouts up even in the sleep. All this we get, when we come in contact with Saints (Sad-guru), serve them and secure their love. The Lord, who fulfills the desires of His devotees, comes to our aid, removes our troubles and sufferings, and makes us happy. This progress or development is entirely due to the help of the Sadguru, who is regarded as the Lord Himself. Therefore, we should always be after the Sad-guru, hear His stories, fall at His Feet and serve Him. Now we come to our main story.
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अध्याय 27
का यह समाप्ति संदेश बहुत ही सुंदर हैं की गुरु और शिष्य में कोई भेद नहीं....
मेरे विचार से शिष्य के जीवन में एक क्षण ऐसा आ ही जाता हैं जब उसका गुरु प्रेम परिपक्व हो जाता हैं, जब उसका प्रेम प्रगाढ़ और श्रद्धा अटूट हो जाती हैं।
परन्तु याद रखे, गुरु से अद्वैत की इच्छा नहीं करनी चाहिए यह स्वयं महादेव ने कहाँ हैं दरअसल कुछ अनुभव समयानुसार , साधना के स्तर के बढने से ही आते हैं। इसिलिय यह भाव स्वयं उदित होगा नाथ कृपा जब करे , आप पांचवी कक्षा में बारवी की पढ़ाई नही पढ़ सकते इसिलिय केवल बाबा में मन लगाए, साईनाथ हमे स्वयं अधिकारी बना देंगे।।।

साईं बाबा हमारे प्यारे गुरु माउली हमारे सरकार हैं उन्होंने हम में भी शक्तिपात किया ये कैसे पता लगे???


बताईये।।।।

परम शिव भक्त भगवान श्री कृष्ण जो को उपदेश देते हैं की
जिस शिष्य में शक्तिपात नही हुआ , उसमे शुद्धि नहीं आती तथा उसमे न तो विद्या , न मुक्ति, न सिद्धिया ही होती हैं।।

अब आप सोच रहे होंगे की आप कैसे जाने
आईये जाने शक्तिपात के लक्ष्ण जो उप्म्न्यु जी ने भगवान वासुदेव को बताए :
"उत्कृष्ट बोध और आनन्द की प्राप्ति ही शक्तिपात का लक्षण हैं : क्यू की वह परमाशक्ति प्रबोधानन्दरूपिनी ही हैं।
आनन्द और बोध का लक्षण हैं:
अंत: करण में सात्विक विकार जैसे कंठ अवरोध, कम्प, रोमांच, स्वरविकार, नेत्रविकार मतलब आंसू आजाना, स्वेद आदि का उदय होना।।।





कहै कबीर तजि भरत को, नन्हा है कर पीव।
तजि अहं गुरु चरण गहु, जमसों बाचै जीव॥१५॥

व्याख्या: कबीर साहेब कहते हैं कि भ्रम को छोडो, छोटा बच्चा बनकर गुरु - वचनरूपी दूध को पियो। इस प्रकार अहंकार त्याग कर गुरु के चरणों की शरण ग्रहण करो, तभी जीव से बचेगा।






"Baba asked her in low and fascinating tone to chant 'Rajarama, Rajarama' then and always, and said - "If you do this, your life's object will be gained, your mind will attain peace and you will be immensely benefited." To persons unfamiliar with spiritual matters, this might appear as affair, but really it was not so. It was a case of, what in technically called, 'Shakti-pat', i.e. transference of power from the Guru to the disciple. How forcible and effective were Baba's words! In an instant, they pierced her heart and found lodgement there.
This case illustrates the nature of the relations that should subsist between the Guru and the disciple. Both should love and serve each other as One. There is no distinction nor any difference between them. Both are One, and one cannot live without the other. The disciple placing his head on the Guru's feet is a gross or outward vision; really and internally they are both one and the same. Those who see any difference between them are yet unripe and not perfect."

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चलती चाकी देख के हँसा कमाल ठठाय जो कीले से लग रहे ,ताहि काल न खाय।


श्री साईं के चरणों में जो अपना जीवन समर्पित कर देता हैं
उसे फिर संसार का भय नहीं रहता ।।।
संसार में कितनी भी विपदाए आजाये ,
शरणागत की रक्षा मेरे साईं सदेव करते हैं
साईं महाराज हमारा योगक्षेम सदेव वहन करते हैं
मेरे प्रभु श्री साईं जी के चरण, अपने शरण में आये भक्तो के एकमात्र आश्रय हैं,...


हरी हरी हरी हरी
ॐ  हरी
संसार में जो स्वयं फसा हुआ हैं वह बाकी लोगो को भी फसा हुआ ही देखना चाहता हैं यही कारण हैं की भक्तो की निंदा करने में अभक्त संसारी हमेशा आगे रहते हैं,
उन्हें किसी की स्थितप्रज्ञता नहीं सुहाती।।।
अभक्त लोग भक्तो को कष्ट पहुंचाने का प्रयास करते रहते हैं परन्तु भगवान अपने भक्त की सदैव रक्षा करते है।।।

अहंकार क्या हैं????

अहंकार का अर्थ ज्यादातर लोग एक ही सन्दर्भ में मानते हैं की ज्यादा रूप या पैसे का अभिमान होना।।।।
परन्तु ये यही तक सिमित नहीं हैं।
अहंकार सात्विक , राजसिक और तामसिक तीन प्रकार का होता हैं।।।

देहाभिमान - खुद/स्वयं को देह / शरीर मानना

घोर आसक्त रजोगुण अहंकार - स्वयं को अपने शरीर, धन ,भूमि (property) , और घर परिवार के लोगो से identify करना, अपनी हर वस्तु को स्वयं मानना
ऐसे लोग ही  छोटी से छोटी वस्तु ,  जमीन जायदाद, यहां तक की दूसरो की वस्तुओ
के लिय भी सदैव लड़ने को तैयार रहते हैं

सोहम - महावाक्य आदि से प्रतिपादित अहंकार जो आत्मानुभूति से आता हैं

प्रश्न : उत्तम अहंकार कोन सा हैं???


उत्तर : जब श्री साईं भगवान् से परम अद्वैत की अनुभूति हो जाए और सोहम भाव भी लुप्त हो जाए।।।
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Quote
गुरु कृपा से ये कुछ भी असम्भव नहीं

गुरु कृपा क्या होती हैं???
किसी को ज्ञान हो जाना गुरु कृपा हैं??
धन मिल जाना कृपा हैं??
निर्वाण मिल जाना गुरु कृपा हैं??
मृत्यु टल जाना गुरु कृपा हैं??
धन के अहंकार में चूर व्यक्ति का निर्धन हो जाना और उसे अपनी गलती का एहसास हो जाना गुरु कृपा हैं?
या बिना निर्धन हुए गलती सुधारने की प्रेरणा करना कृपा हैं???
क्या हैं गुरु कृपा????
कैसे होती हैं ये??
किसपर होती हैं??
क्यू होती हैं??




मुझे जीवन में बहुत ऐसे लोग मिले हैं जिन्हे कृपा का ही अर्थ नहीं मालूम, अपनी फ़ालतू मान्यताओं से बंधे रहने के कारण अपने कल्याण मार्ग से कोसो दूर,
हरी विमुख और जिन अभागो को ये ही नहीं पता की भगवान का प्रेम पाना भी सम्भव हैं की भगवान प्रेम भी कर सकते हैं!!!
 उनका अस्तित्व जीवन में केवल शाम को एक बार आरती कर देने तक ही सिमित नही हैं।

परन्तु क्या हम लोग उन लोगो से भी ज्यादा गये गुजरे नहीं हैं???????????????????


उन्हें तो कभी प्रेम नही मिला , कभी कृपा का अहसास नही किया इसिलिय ऐसे हैं परन्तु हम बाबा के इतने नज्दीक रहते हुए भी उनसे दूर भागते हैं।। कैसे???


हम उनसे उनकी माया के खिलोनो की अपेक्षा करते हैं।।
खिलोने पाकर खुश हो गये तो समझना बहुत सस्ते में खुश हो गए हो।।
संसार साधन कितने भी उपलब्ध हो जाए, अपना एकमात्र destiny/लक्ष्य/ गन्तव्य न भूलना चाहिय।

जब तक संसार के किसी भी गुण,  चीज़ या व्यक्ति में आसक्ति हो ज्ञान की चर्चा बाज़ार के कोलाहल की तरह व्यर्थ चली जाती हैं।।
इसिलिय यह लेख उन मूर्खो के लिय नही हैं। क्यू की ऐसे लोगो के मन और वाणी में भयंकर दुराग्रह रहता हैं।
Quote
It was the firm conviction of Baba that Knowledge or Self-realization is not possible, unless there is the prior act of grinding of all our impulses, desires, sins; and of the three gunas, viz. Sattva, Raja and Tama; and the Ahamkara, which is so subtle and therefore so difficult to be got rid of.
--- साईं सत चरित्रम् प्रथम अध्याय


और
पहले प्रश्न का उत्तर ये ही हैं की गुरु कृपा का अर्थ भी गुरु कृपा से ही पता चलता हैं।।।[/color][/size]
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श्रीभगवानुवाच
ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्‌ ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्‌ ॥

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In the beginning, of chapter 32 , Sri sai satcharitra  , Hemadpant describes the samsara (visible world) by the allegory of Ashvattha (Banyan) tree which has, in the phraseology of the Geeta, roots above and branches below. Its branches are spread downwards and upwards and are nourished by the gunas (qualities), and its sprouts are the objects of the senses. Its roots, leading to actions, are extended downwards to this world of men. Its form cannot be known in this world, nor its end, its beginning nor its support. Cutting this Ashvattha tree of strong roots with the sharp weapon of non-attachment, one should seek the path beyond, treading which there is no return.
For traversing this path, the help of a good guide (Guru) is absolutely necessary. However learned a man may be, or however deep his study of Vedas and Vedangas (sacred literature) may be, he cannot go to his destination safely. If the guide be there to help him and show him the right way, he would avoid the pitfalls and the wild beasts on the journey, and everything will be smooth-sailing.

भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे अर्जुन! इस संसार को अविनाशी वृक्ष कहा गया है, जिसकी जड़ें ऊपर की ओर हैं और शाखाएँ नीचे की ओर तथा इस वृक्ष के पत्ते वैदिक स्तोत्र है, जो इस अविनाशी वृक्ष को जानता है वही वेदों का जानकार है। (१)

Even if the Vedas, Shrutis, Shastras and like scriptures are studied, there is no acquisition of knowledge without the Guru’s grace. It is just a physical and mental exhaustion. This tree of mundane existence, of an immense expanse, which was not visible earlier but which is experienced later, is full of miseries on account of birth and death. It is illusory and perishable. This mundane existence is called a tree because like a tree it can be cut to pieces and hence is perishable. This existence which is not perceptible initially, because at one point of time it remained steady, is, therefore, compared to a tree. This is that tree of mundane existence which is seen but the nature of which is not known. It has its roots above with endless expanse of branches. Very little of this tree comes within the purview of a human being. From moment to moment, it spreads as more branches sprout. Sometimes from a distance they look beautiful, but one finds them prickly all over, if embraced. Like the trunk of a plantain tree, this is devoid of essence (or pith). Like a mirage or like the city of Gandharvas, this tree appears very attractive with the surrounding area round the roots clinging on account of the water, in the form of desires. This tree, although non-existent in character, originates from actions and desires rooted in nescience; and has its own character undergoing a change every moment.
This tree is of the nature of calamity; has its origin in ignorance. Surrounding this tree is a store of water in the form of desires and lust. This tree is one that has its expanse in the belongings or possessions viz. money, food, son and wife. This tree has as its support the idea of oneness with the body. In fact, this idea is always at the root of this tree. The trunk of this tree, in reality, is the endless beings with gender differences. The many offshoots in the form of branches are formed by actions and sublime impressions. On account of these, this tree continues to grow. This tree is one which is full of leaves in the form of Shrutis etc. It throbs with sprouts in the form of primary sensations. It assumes glory in the form of flowers which are actions, including rituals and charity.  It is full of the juices of the pairs of opposites. There is no end to the fruits of this tree. On it, indeed depend all beings as well as the worlds like “Bhur and Bhuva” for their existence, as they cannot remain separate from the tree. This is like the ancient Ashwatha tree which has always a dejected face. At times it is dancing, at times singing and at other times playing instruments. Sometimes it is full of sport, laughter and at times, it weeps. The appearance of this tree is really within Brahman. This can be cut by the sword of detachment. This is that tree which has for its support pure roots. Understand this to be of the nature of effulgence. That Brahman is Truth and is the support for everything. This world is of an illusory nature like a dream. Surely neither has this tree a beginning nor an end. How can it exist only in the middle? It is for this purpose that those who are detached, toil. The holy are ever attached to it. This is the goal of those who seek liberation and is the coveted end for all aspirants. Try to stay at the place which you like. Do aspire to take refuge at the feet of Saints. Listen with attention to all that they say and take care to do away with doubts from their very roots. Controlling the mind utterly, root out the intellect. Try to become totally detached and continue to gaze at the feet of the Guru. Eradicate completely all fake beliefs, which otherwise will create impediments on the way. Trample under your feet all conceit. Then only will you be able to reach the other shore.


Ramanuja's Commentary
In the previous chapter the Supreme Lord Krishna expounded upon: 1) The jiva or embodied beings relationship with matter in both its subtle and physical forms due to attraction to sense objects and subsequent attachment and the karma or reactions to one's own actions thereof along with the karma from the types of food one has eaten determines the physical body one receives in the next life. 2) The manner in detail how the association with the three gunas or modes of material nature keeps a jiva enslaved in material existence is given in verses 6 to 25. 3) The method by which a jiva is able to overcome and transcend the three gunas and assume one's actual spiritual position of atma tattva or soul realisation by bhakti yoga or exclusive loving devotion unto the Supreme Lord.
Now in this chapter the most worshippable and resplendent Lord Krishna reveals His absolute dominion and sovereign glory over all creation and everything that is in it. Creation is constituted by kshara or transient souls in bondage and aksara or eternally liberated souls. Both kshara and akshara constitute His spiritual form which constitutes the cosmic manifestation but He is inconceivably distinctly different from both. The Supreme Lord being the Supreme creator and controller of all, the source of all glorious attributes and wonderful qualities is a fountain of righteousness and the antithesis of all that is evil and demoniac. For the elucidation of this eternal truth the Supreme Lord cites the Asvattha or banyan tree as a metaphor to symbolise the material manifestation as a place of bondage and enslavement for the atmas or immortal souls trapped as a jiva in samsara or the perpetual cycle of birth and death. How kshara souls may escape from samsara and become the akshara souls is His glorious plan of evolution and it is enacted by the sword of knowledge which destroys the tree of materialism by the weapon of non-attachment.
The state of samsara is symbolised by the asvattha or banyan tree which in real ilfe has its roots growing upwards and its branches growing downwards. The indestructible nature of samsara is symbolised in the second division of the Katha Upanisad III.I beginning urdhva mulo avak shakha which means: With roots upwards and branches downwards this primeval tree is everlasting. With roots upwards refers to our Brahma with four faces, the secondary creator who is situated above the seven worlds of Bhur, Bhuvah, Svah, Mahah, etc.. The branches downwards refer to all the denziens of creation in the form of humans, animals, birds, fish, plants, insects, etc. The indestructible nature of this tree is due to its being avyayan or everlasting like a river with no end and because as a tree it is impossible to uproot until one is weaned from sense gratification and material desires by the mercy of the Supreme Lords devotee and atma tattva is achieved by His His grace. The word chandamsi refers to the injunctions and prohibitions of the Vedic scriptures which are symbolised by the leaves which flourish or dwindle in proportion to the karma or reactions to the actions one accrues by adhering to or ignoring such provisions. Leaves are very instrumental in preserving the longevity of trees. Whoever is knowledgeable of this tree as just explained comprehends the Vedic scriptures as the knowledge of non-attachment is the ways and means of uprooting this tree and allows one to achieve atma tattva.


श्री भगवान बोले- आदिपुरुष परमेश्वर रूप मूल वाले (आदिपुरुष नारायण वासुदेव भगवान ही नित्य और अनन्त तथा सबके आधार होने के कारण और सबसे ऊपर नित्यधाम में सगुणरूप से वास करने के कारण ऊर्ध्व नाम से कहे गए हैं और वे मायापति, सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही इस संसाररूप वृक्ष के कारण हैं, इसलिए इस संसार वृक्ष को 'ऊर्ध्वमूलवाला' कहते हैं) और ब्रह्मारूप मुख्य शाखा वाले (उस आदिपुरुष परमेश्वर से उत्पत्ति वाला होने के कारण तथा नित्यधाम से नीचे ब्रह्मलोक में वास करने के कारण, हिरण्यगर्भरूप ब्रह्मा को परमेश्वर की अपेक्षा 'अधः' कहा है और वही इस संसार का विस्तार करने वाला होने से इसकी मुख्य शाखा है, इसलिए इस संसार वृक्ष को 'अधःशाखा वाला' कहते हैं) जिस संसार रूप पीपल वृक्ष को अविनाशी (इस वृक्ष का मूल कारण परमात्मा अविनाशी है तथा अनादिकाल से इसकी परम्परा चली आती है, इसलिए इस संसार वृक्ष को 'अविनाशी' कहते हैं) कहते हैं, तथा वेद जिसके पत्ते (इस वृक्ष की शाखा रूप ब्रह्मा से प्रकट होने वाले और यज्ञादि कर्मों द्वारा इस संसार वृक्ष की रक्षा और वृद्धि करने वाले एवं शोभा को बढ़ाने वाले होने से वेद 'पत्ते' कहे गए हैं) कहे गए हैं, उस संसार रूप वृक्ष को जो पुरुष मूलसहित सत्त्व से जानता है, वह वेद के तात्पर्य को जानने वाला है। (भगवान्‌ की योगमाया से उत्पन्न हुआ संसार क्षणभंगुर, नाशवान और दुःखरूप है, इसके चिन्तन को त्याग कर केवल परमेश्वर ही नित्य-निरन्तर, अनन्य प्रेम से चिन्तन करना 'वेद के तात्पर्य को जानना' है)॥1॥

My take on this shloka

इतना कुछ पढने के बाद मेरे विचार पढने की यहा आवश्यकता नही रह जाती
परन्तु जिन मेरे भाई बहनों को सरलतम अर्थ की खोज हैं उनके हित के लिय मैंने अपने सामर्थ्य के अनुसार कुछ व्यक्त करने का सोचा हैं।
"इस श्लोक के अर्थ का बोध होने में मुझे बहुत समय लगा, क्यू की रटा रटाया ज्ञान कभी संतुष्ट नही करता , अपरोक्ष ज्ञान ही वास्तव में लाभ देता हैं,

● 'उधर्व' परमपिता परमात्मा हैं क्यू की यही परम कारण हैं इस संसार का। अत: इस वृक्ष की जड़ हैं

● 'मध:' हैं ये नि: सार संसार जो की अपने स्वरुप का ज्ञान न होने के कारण फैलता ही जा रहा हैं इसिलिय ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं की इस वृक्ष की पहली जड़ अपने स्वरुप का अज्ञान ही हैं।

● यह अत्यंत परिवर्तन शील हैं
प्रतिक्षण बदलता रहता हैं, परन्तु इसे अविनाशी क्यू कहा गया???
क्यू की अज्ञानियो को यह नित्य लगता हैं, जब तक अज्ञान का आवरण भंग न हो तब तक वह जीव इस जन्म मरण रुपी चक्र में फसा रहता हैं।
यह अत्यंत क्षणिक हैं
जैसे महाकल्प के अंत में ज्योंही इस उत्पन्न हुई सृष्टि का नाश हो जाता हैं, त्यों ही दूसरी सृष्टि का विस्तृत वन उत्पन्न हो जाता हैं।


● क्या इस संसार की वास्तव में उत्पत्ति हुई भी हैं??
मनुष्य जैसे अपने स्वप्न का सब परिवार आप ही बन जाता हैं वैसे ही सब विस्तार उसी एक ब्रह्म का हैं
तथा वही इस विस्तार का कारण हैं।

●भगवान श्री कृष्ण कहते हैं :-
   जिसने इस वृक्ष को क्षणिक जान लिया, मै सर्वज्ञ भी उसे ज्ञानी समझता हूँ। - ज्ञानेश्वरी

●भव वृक्ष का मूल केवल अज्ञान हैं ऐसा ज्ञानेश्वर कहते हैं फिर अभी तो इसका मूल हमने भगवान् को जाना
जो की परम ज्ञानस्वरूप हैं
फिर इसका समन्वय कैसे हो???
कौनसी बात माने
कौनसी बात झुठलाये

सभी मत सही हैं।
एकनाथ महाराज कहते हैं की देहाभिमान रुपी अज्ञान, शुद्ध स्वरुप में जीव का भाव उत्पन्न करता हैं।
वृत्ति की संगत से ही विषयों की आसक्ति बढती हैं और वास्तव में इसी कारन से जीव को संसार बंधन प्राप्त होता हैं।आत्मा से वृति प्रकाशित होती हैं लेकिन उसी वृत्ति के कारण आत्मा में जीवभाव आता हैं।
जिव अकर्ता ही होता हैं।
मनीषियों ने कारणों को भी तीन भागों में विभाजित किया है- निमित्त कारण, उपादान कारण तथा साधारण कारण। उदाहरणार्थ घड़ा बनने के पूर्व कुम्हार तथा मिट्टी दोनों ही का होना पर्याप्त नहीं, कुम्हार और मिट्टी के साथ-साथ दण्ड और चक्र का भी होना भी अनिवार्य है। इस प्रकार घट बनने के लिए तीनों कारक कुम्हार, मिट्टी तथा दण्ड-चक्र, आवश्यक हैं इस निर्माण में कुम्हार निमित्त कारण है, मिट्टी है उपादान कारण और दण्ड चक्र आदि हैं साधारण कारण। संसार की कोई वस्तु इन तीनों कारणों के बिना नहीं बन सकती।
वैदिक ग्रन्थों में दर्शन कि त्रैतवाद सम्बन्धी चर्चा है। यह और कुछ नहीं, उपरोक्त तीन कारणों की ही दार्शनिक व्याख्या है। सृष्टि के सम्बन्ध में निमित्त कारण वह है जो स्वयं अदृश्य, अपरिवर्तित रहकर विभिन्न प्रकार के दृश्य घटकों का निर्माण करता है। उपादान कारण वह है जिससे निर्माता किसी पदार्थ का निर्माण करता है। तथा साधारण कारण वह है जो बनाने का माध्यम बनता है।
इस कारण सृष्टि का निमित्त कारण परमात्मा है। उपादान कारण प्रकृति है और साधारण कारण जीव। परमात्मा को अध्यात्म ग्रन्थों में एक विशेष विशेषण से सम्बोधित किया गया है, जिसमें सृष्टि निर्माण का तथा त्रैतवाद का समस्त तत्व चिन्तन समाहित हो गया है। वह विशेषण है- ‘सच्चिदानन्द’। इस स्वरूप में ईश्वर, जीव और प्रकृति- तीनों की स्थिति का सम्यक् निरूपण है। प्रकृति केवल सत् है। चेतना का उसमें अंश नहीं है। जीव सत् और चित् का युग्म है। परमात्मा में तीनों ही विशेषताएँ हैं- वह सत् भी है, चित् भी और आनन्द भी। इस प्रकार परमात्मा के सच्चिदानन्द नाम में उन तीनों कारणों का तात्विक वर्णन है, जो संसार और समूची सृष्टि के निर्माण के प्रमुख कारक हैं।

यह भी सही हैं और ईश्वर ही इस जगत के निमित्तोपदान कारण हैं यह भी ठीक हैं।
जिसको जो समझ आता हो वह वैसी निष्ठां करले परन्तु सत्य तो अद्वैत ही हैं।
कल्याण तो गुरु वचनों में ही निहित हैं, वे शिष्य की पात्रता के अनुसार ही उसे स्वधर्म बतलाते हैं।




साईं

हरी ॐ
जिस कर्म से भगवद प्रेम और भक्ति बढ़े वही सार्थक उद्योग हैं।
ॐ साईं राम

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तद्घिद्घि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः



अध्याय 39

बाबा का संस्कृत ज्ञान गीता के एक श्लोक की बाबा द्वारा टीका, समाधि मन्दिर का निर्माण ।
इस अध्याय में बाबा ने गीता के एक श्लोक का अर्थ समझाया है । कुछ लोगों की ऐसी धारणा थी कि बाबा को संस्कृत भाषा का ज्ञान न था और नानासाहेब की भी उनके प्रति ऐसी ही धारणा थी । इसका खंडन हेमाडपंत ने मूल मराठी ग्रंथ के 50वें अध्याय में किया है । दोनों अध्यायों का विषय एक सा होने के कारण वे यहाँ सम्मिलित रुप में लिखे जाते है ।
***************************
प्रस्तावना
शिरडी के सौभाग्य का वर्णन कौन कर सकता है । श्री द्वारकामाई भी धन्य है, जहाँ श्री साई ने आकर निवास किया और वहीं समाधिस्थ हुए ।
शिरडी के नरनारी भी धन्य है, जिन्हें स्वयं साई ने पधारकर अनुगृहीत किया और जिनके प्रेमवश ही वे दूर से चलकर वहाँ आये । शिरडी तो पहले एक छोटा सा ग्राम था, परन्तु श्री साई के सम्पर्क से विशेष महत्त्व पाकर वह एक तीर्थ-क्षेत्र में परिणत हो गया ।
शिरडी की नारियां भी परम भाग्यशालिनी है, जिनका उनपर असीम और अडिग विश्वास प्रशंसा के परे है । आठों पहर-स्नान करते, पीसते, अनाज निकालते, गृहकार्य करते हुये वे उनकी कीर्ति का गुणगान किया करती थी । उनके प्रेम की उपमा ही क्या हो सकती है । वे अत्यन्त मधुर गायन करती थी, जिससे गायकों और श्रोतागण के मन को परम शांति मिलती थी ।
बाबा द्वारा टीका
किसी को स्वप्न में भी ज्ञात न था कि बाबा संस्कृत के भी ज्ञाता है । एक दिन नानासाहेब चाँदोरकर को गीता के एक श्लोक का अर्थ समझाकर उन्होंने लोगों को विस्मय में डाल दिया । इसका संक्षिप्त वर्णन सेवानिवृत्त मामलतदार श्री. बी व्ही. देव ने मराठी साईलीला पत्रिका के भाग 4, (स्फुट विषय पृष्ठ 563) में छपवाया है । इसका संक्षिप्त विवरण Sai Baba’s Charters and Sayings पुस्तक के 61वें पृष्ठ पर और The Wonderous Saint Sai Baba के पृष्ठ 36 पर भी छपा है । ये दोनों पुस्तकें श्री. बी. व्ही. नरसिंह स्वामी द्वारा रचित है । श्री. बी. व्ही. देव ने अंग्रेजी में तारीख 27-9-1936 को एक वत्तक्व्य दिया है, जो कि नरसिंह स्वामी द्वारा रचित पुस्तक के "भक्तों के अनुभव, भाग 3" में छापा गया है । श्री. देव को इस विषय की प्रथम सूचना नानासाहेब चाँदोरकर से प्राप्त हुई थी । इसलिए उनका कथन नीचे उद्धृत किया जाता है । नानासाहेब चाँदोरकर वेदान्त के विद्वान विद्यार्थियों में से एक थे । उन्होंने अनेक टीकाओं के साथ गीता का अध्ययन भी किया था तथा उन्हें अपने इस ज्ञान का अहंकार भी था । उनका मत था कि बाबा संस्कृत भाषा से सर्वथा अनभिज्ञ है । इसीलिये बाबा ने उनके इस भ्रम का निवारण करने का विचार किया । यह उस समय की बात है, जब भक्तगण अल्प संख्या में आते थे । बाबा भक्तों से एकान्त में देर तक वार्तालाप किया करते थे । नानासाहेब इस समय बाबा की चरण-सेवा कर रहे थे और अस्पष्ट शब्दों में कुछ गुनगुना रहे थे ।
बाबा – नाना, तुम धीरे-धीरे क्या कह रहे हो?
नाना– मैं गीता के एक श्लोक का पाठ कर रहा हूँ ।
बाबा– कौन सा श्लोक है वह?
नाना– यह भगवदगीता का एक श्लोक है ।
बाबा– जरा उसे उच्च स्वर में कहो ।
तब नाना भगवदगीता के चौथे अध्याय का 34वाँ श्लोक कहने लगे ः-
“तद्घिद्घि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ।।“
बाबा – नाना, क्या तुम्हें इसका अर्थ विदित है ?
नाना– जी, महाराज ।
बाबा– यदि विदित है तो मुझे भी सुनाओ ।
नाना – इसका अर्थ है – तत्व को जानने वाले ज्ञानी पुरुषों को भली प्रकार दंडवत् कर, सेवा और निष्कपट भाव से किये गये प्रश्न द्वारा उस ज्ञान को जान । वे ज्ञानी, जिन्हें सदवस्तु (ब्रह्म) की प्राप्ति हो चुकी है, तुझे ज्ञान का उपदेश देंगें ।
बाबा – नाना, मैं इस प्रकार का संकुल भावार्थ नहीं चाहता । मुझे तो प्रत्येक शब्द और उसका भाषांतरित उच्चारण करते हुए व्याकरणसम्मत अर्थ समझाओ ।
अब नाना एक-एक शब्द का अर्थ समझाने लगे ।
बाबा – नाना, क्या केवल साष्टांग नमस्कार करना ही पर्याप्त है?
नाना– नमस्कार करने के अतिरिक्त मैं "प्रणिपात" का कोई दूसरा अर्थ नहीं जानता ।
बाबा– 'परिप्रश्न' का क्या अर्थ है?
नाना – प्रश्न पूछना ।
बाबा – 'प्रश्न' का क्या अर्थ है ?
नाना– वही (प्रश्न पूछना) ।
बाबा– यदि 'परिप्रश्न' और 'प्रश्न' दोनों का अर्थ एक ही है, तो फिर व्यास ने 'परि' उपसर्ग का प्रयोग क्यों किया? क्या व्यास की बुद्घि भ्रष्ट हो गई थी?
नाना – मुझे तो 'परिप्रश्न' का अन्य अर्थ विदित नहीं है ।
बाबा– 'सेवा?' यहाँ किस प्रकार की सेवा से आशय है ?
नाना – वही जो हम लोग सदा आपकी करते रहते है ।
बाबा– क्या यह 'सेवा' पर्याप्त है?
नाना– और इससे अधिक 'सेवा' का कोई विशिष्ट अर्थ मुझे ज्ञात नही है ।
बाबा – दूसरी पंक्ति के "उपदेक्ष्यंति ते ज्ञानं" में क्या तुम ज्ञान शब्द के स्थान पर दूसरे शब्द का प्रयोग कर इसका अर्थ कह सकते हो?
नाना– जी हाँ ।
बाबा – कौन सा शब्द?
नाना – अज्ञानम् ।
बाबा– 'ज्ञानं' के बजाय उस शब्द को जोड़कर क्या इस श्लोक का अर्थ निकलता है?
नाना- जी नहीं, शांकर भाष्य में इस प्रकार की कोई व्याख्या नहीं है ।
बाबा– नहीं है, तो क्या हुआ? यदि 'अज्ञान' शब्द के प्रयोग से कोई उत्तम अर्थ निकल सकता है तो उसमें क्या आपत्ति है?
नाना– मैं नहीं जानता कि उसमें "अज्ञान" शब्द का किस प्रकार प्रयोग होगा ।
बाबा – कृष्ण ने अर्जुन को क्यों ज्ञानियों या तत्वदर्शियों को नमस्कार करने, उनसे प्रश्न पूछने और सेवा करने का उपदेश किया था ? क्या स्वयं कृष्ण तत्वदर्शी नहीं थे? वस्तुतः स्वयं ज्ञान स्वरुप?
नाना – जी हाँ, वे ज्ञानावतार थे । परन्तु मुझे यह समझ में नहीं आता कि उन्होंने अर्जुन से अन्य ज्ञानियों के लिये क्यों कहा ?
बाबा – क्या तुम्हारी समझ में नहीं आया?
अब नाना हतभ्रत हो गये । उनका घमण्ड चूर हो चुका था । तब बाबा स्वयं इस प्रकार अर्थ समझाने लगे ।
(1 ) ज्ञानियों को केवल साष्टांग नमस्कार करना पर्याप्त नहीं है । हमें सदगुरु के प्रति अनन्य भाव से शरणागत होना चाहिये ।
(2 ) केवल प्रश्न पूछना पर्याप्त नहीं । किसी कुप्रवृत्ति या पाखंड, या वाक्य-जाल में फँसाने, या कोई त्रुटि निकालने की भावना से प्रेरित होकर प्रश्न नहीं करना चाहिये, वरन् प्रश्न उत्सुतकापूर्वक केवल मोक्ष या आध्यात्मिक पथ पर उन्नति प्राप्त करने की भावना से ही प्रेरित होकर करना चाहिये ।
(3) मैं तो सेवा करने या अस्वीकार करने में पूर्ण स्वतंत्र हूँ, जो ऐसी भावना से कार्य करता है, वह सेवा नहीं कही जा सकती । उसे अनुभव करना चाहिये कि मुझे अपने शरीर पर कोई अधिकार नहीं है । इस शरीर पर तो गुरु का ही अधिकार है और केवल उनकी सेवा के निमित्त ही वह विद्यमान है ।
इस प्रकार आचरण करने से तुम्हें सदगुरु द्वारा ज्ञान की प्राप्ति हो जायेगी, जैसा कि पूर्व श्लोक में बताया गया है ।
नाना को यह समझ में नहीं आ सका कि गुरु किस प्रकार 'अज्ञान' की शिक्षा देते है ।
बाबा – ज्ञान का उपदेश कैसा है ? अर्थात् भविष्य में प्राप्त होने वाली आत्मानुभूति की शिक्षा । अज्ञान का नाश करना ज्ञान है । (गीता के श्लोक 18-66 पर ज्ञानेश्वरी भाष्य की ओवी 1396 में इस प्रकार वर्णन है – हे अर्जुन ! यदि तुम्हारी निद्रा और स्वप्न भंग हो, तब तुम स्वयं हो । वह इसी प्रकार है । गीता के अध्याय 5-16 के आगे टीका में लिखा है – क्या ज्ञान में अज्ञान नष्ट करने के अतिरिक्त कोई और भेद भी है ?) अंधकार नष्ट करने का अर्थ प्रकाश है । जब हम द्वैत नष्ट करने की चर्चा करते है, तो हम अद्घैत की बात करते है । जब हम अंधकार नष्ट करने की बात करते है तो उसका अर्थ है कि प्रकाश की बात करते है । यदि हम अद्वैत की स्थिति का अनुभव करना चाहते है तो हमें द्वैत की भावना नष्ट करनी चाहिये। यही अद्वैत स्थिति प्राप्त होने का लक्षण है । द्वैत में रहकर अद्वैत की चर्चा कौन कर सकता है? जब तक वैसी स्थिति प्राप्त न हो, तब तक क्या उसका कोई अनुभव कर सकता है ?

शिष्य श्री सदगुरु के समान ही ज्ञान की मूर्ति है? उन दोनों में केवल अवस्था, उच्च अनुभूति, अदभुत अलौकिक सत्य, अद्वितीय योग्यता और ऐश्वर्य योग में भिन्नता होती है । सदगुरु निर्गुण निराकार सच्चिदानंद है । वस्तुतः वे केवल मनुष्य जाति और विश्व के कल्याण के निमित्त स्वेच्छापूर्वक मानव शरीर धारण करते है, परन्तु नर-देह धारण करने पर भी उनकी सत्ता की अनंतता में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती । उनकी आत्मोपलब्धि, लाभ, दैविक शक्ति और ज्ञान एक-से रहते है । शिष्य का भी तो यथार्थ में वही स्वरुप है, परन्तु अनगिनत जन्मों के कारण उसे अज्ञान उत्पन्न हो जाता है और उसी के वशीभूत होकर उसे भ्रम हो जाता है तथा अपने शुदृ चैतन्य स्वरुप की विस्मृति हो जाती है ।
गीता का अध्याय 5 देखो ।
"अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुहृन्ति जन्तवः ।"
जैसा कि वहाँ बतलाया गया है, उसे भ्रम हो जाता है कि "मैं" जीव हूँ, एक प्राणी हूँ, दुर्बल और असहाय हूँ । गुरु इस अज्ञानरुपी जड़ को काटकर फेंक देता है और इसीलिये उसे उपदेश करना पड़ता है । ऐसे शिष्य को जो जन्म-जन्मांतरों से यह धारणा करता आया है कि, "मैं तो जीव, दुर्बल और असहाय हूँ," गुरु सैकड़ों जन्मों तक ऐसी शिक्षा देते है कि तुम ही ईश्वर हो, सर्वशक्तिमान् और समर्थ हो, तब कहीं जाकर उसे किंचित मात्र भास होता है कि यथार्थ में "मैं ही ईश्वर हूँ ।" सतत भ्रम में रहने के कारण ही उसे ऐसा भास होता है कि, "मैं शरीर हूँ, एक जीव हूँ, तथा ईश्वर और यह विश्व मुझ से एक भिन्न वस्तु है ।" यह तो केवल एक भ्रम मात्र है, जो अनेक जन्म धारण करने के कारण उत्पन्न हो गया है । कर्मानुसार प्रत्येक प्राणी को सुखःदुख की प्राप्ति होती है । इस भ्रम, इस त्रुटि और इस अज्ञान की जड़ को नष्ट करने के लिये हमें स्वयं अपने से प्रश्न करना चाहिये कि यह अज्ञान कैसे पैदा हो गया ? वह अज्ञान कहाँ है ? और इस त्रुटि का दिग्दर्शन कराने को ही उपदेश कहते है ।
अज्ञान के नीचे लिखे उदाहरण है –
(1 ) मैं एक जीव (प्राणी) हूँ ।
(2 ) शरीर ही आत्मा है । (मैं शरीर हूँ)
(3 ) ईश्वर, विश्व और जीव भिन्न-भिन्न तत्व है ।
(4 ) मैं ईश्वर नहीं हूँ ।
(5) शरीर आत्मा नहीं है, इसका बोध न होना ।
(6 ) इसका ज्ञान न होना कि ईश्वर, विश्व और जीव सब एक ही है ।

जब तक इन त्रुटियों का उसे दिग्दर्शन नहीं कराया जाता, तब तक शिष्य को यह कभी अनुभव नहीं हो सकता कि ईश्वर, जीव और शरीर क्या है; उनमें क्या अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है तथा वे परस्पर भिन्न है या अभिन्न है अथवा एक ही है? इस प्रकार की शिक्षा देना और भ्रम को दूर करना ही 'अज्ञान' का ज्ञानोपदेश कहलाता है । अब प्रश्न यह है कि जीव जो स्वयं ज्ञान-मूर्ति है, उसे ज्ञान की क्या आवश्यकता है? उपदेश का हेतु तो केवल त्रुटि को उसकी दृष्टि में लाकर अज्ञान को नष्ट करना है । बाबा ने आगे कहा –
(1 ) 'प्रणिपात' का अर्थ है 'शरणागति' ।
(2 ) शरणागत होना चाहिये तन, मन, धन से (अर्थात् अनन्य भाव से) ।
(3 ) कृष्ण अन्य ज्ञानियों को ओर क्यों संकेत करते है? सदभक्त के लिये तो प्रत्येक तत्व वासुदेव है । (भगवदगीता अ. 7-19 अर्थात् कोई भी गुरु अपने भक्त के लिये कृष्ण है) और गुरु शिष्य को वासुदेव मानता है और कृष्ण इन दोनों को अपने प्राण और आत्मा ।
(भगवदगीता अ. 7-18 पर ज्ञानदेव की टीका) चूँकि श्रीकृष्ण को विदित था कि ऐसे अनेक भक्त और गुरु विद्यमान है, इसलिये उनका महत्व बढ़ाने के लिये ही श्रीकृष्ण ने अर्जुन से ऐसा उल्लेख किया ।


भगवद गीता में वर्णन आता हैं
भगवान कहते हैं:-
" हे परंतप अर्जुन! द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ अत्यन्त श्रेष्ठ है तथा यावन्मात्र सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं॥33॥
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ॥
भावार्थ :  उस ज्ञान को तू तत्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दण्डवत्‌ प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म तत्व को भलीभाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे॥34॥
Acquire this transcendental knowledge from a Self-realized master by humble reverence, by sincere inquiry, and by service. The empowered ones, who have realized the Truth, will teach you. (4.34)
35
   यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥४-३५॥   After knowing the transcendental science, O Arjuna, you shall not again become deluded like this. With this knowledge you shall see the entire creation within your own higher Self, and thus within Me. (See also 6.29, 6.30, 11.07, 11.13) (4.35)
36   अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥४-३६॥   Even if one is the most sinful of all sinners, one shall yet cross over the ocean of sin by the raft of Self-knowledge alone.

Sridhara Swami's Commentary
The means to acquire atma tattva or soul realisation is being stated here: How is this knowledge to be acquired? Lord Krishna reveals it is by inquiry. Inquire from a self-realised being by falling submissively at his feet just like a stick before him. Questions should be asked like. What is the goal of human existence and how is it possible to attain it? One should render humble and sincere service to this self-realised being because this person has realised the ultimate truth, fully steeped in the knowledge of the Vedic scriptures, of the Brahman or the spiritual substratum pervading all existence and the intuitive potency which manifests along with it. Such a person will magnanimously instruct one in attaining the ultimate truth.

Kumara Vaisnava Sampradaya:

Nimbaditya
Kesava Kasmiri's Commentary
As to the answer to the question by what means is this spiritual knowledge available Lord Krishna is revealing how to attain this knowledge which is altogether different from actions that bestow material rewards. He instructs everyone to fall at the feet of a self-realised beings rendering service to them with faith and devotion and inquire from them with a pure heart about the purpose of life, the true nature of a living being and how to revive one's relationship with the Supreme Being? By these questions and by being pleased by one's sincere service such a self-realised being will guide and instruct one on matters related to the ultimate truth because they have direct experience and wisdom of this and thus will remove all doubts about: Who am I? Why was I born? What is my purpose in life? The self-realised being will dispel all these questions by proper reasoning and evidences from the Vedic scriptures and practical experience and reveal the nature of the individual consciousness and its relationship with the ultimate consciousness which is the goal of all existence. All actions culminate in knowledge when instructed by a self-realised being but never when instructed by those who are not self-realised. By this verse the ancient scriptural adage of : Let one humbly seek a spiritual master who is well learned in the Vedic scriptures and established in the knowledge of the Brahman or the spiritual substratum pervading all existence. The plural sense of the words jnaninah meaning those expert in the Vedic scriptures and darsinah meaning those who realised the ultimate truth denotes that all self realised being will possess this spiritual knowledge. It also infers that if one approaches a person for enquiry and discovers that this person is not self-realised and cannot give this spiritual knowledge then one may approach a spiritual master who is self-realised to attain this knowledge.

My take on this shlok
शरणागति का सही अर्थ समझ आजाये तो यह श्लोक भी जिज्ञासु भक्तो को बडी सरलता से समझ आजायेगा।
संसार में हम लोगो की मान्यता बड़ी दृढ रहती हैं
परन्तु
जब अपनी मान्यता हम गुरु के उपदेश में भी लगाने लगते हैं वह अत्यंत नीच दुराग्रह हैं।
जैसे अर्जुन ने युद्ध करने से मना किया
तब  श्री कृष्ण ने उसकी प्रशंसा नही की बल्कि डाट लगादी।
जब स्वयम श्री कृष्ण ही आज्ञा दे रहे हैं फिर भी अपनी मान्यता पर अड़े रहना मूढ़ता हैं, अर्जुन ने हम जेसे ऐसे ही मूढ़ मतियो की acting की।
केवल हमे उदाहरण देने के लिय क्यू की वे तो स्वयं ऋषि नर के रूप हैं
गुरु के आगे भी अपनी चलाना घोर अहंकार का सूचक हैं।
हमारे साईं गुरुदेव कृपालु और समर्थ होने के साथ साथ सर्वज्ञ भी हैं ऐसी निष्ठां जिसे हो गई उसको फिर शरणागत होने में कोई कठिनाई नही होती।
शरण में लेलो लेलो कहने की आवश्यकता नही हैं क्यू की शरण में तो हमे ही जाना हैं साईं की (क्यू की शरणागत को वे कभी नहीं ठुकराते) , वह कैसे जाए??
शरण का अर्थ हैं
हनुमान प्रसाद पोद्दार 'भाई जी' कहते हैं

नाथ मै थारोजी थारो !
चोखो, बुरो, कुटिल, अरु कामी जो कुछ हूँ सो थारो॥ १ ॥
बिगड्यो हूँ तो थारो बिगड्यो, थे ही मने सुधारो।
सुधरयो तो प्रभु सुधरयो थारो, था सू कदे न न्यारो॥ २ ॥
बुरो, बुरो, मै भोत बुरो हूँ, आखर टाबर थारो।
बुरो कुहाकर मै रह जस्यू, नांव बिगड्सी॥ ३ ॥
थारो हूँ, थारो ही बाजूं, रह्स्यु थारो थारो !! ।
आंगालियाँ नुहँ परै न होवै, या तो आप बिचारो॥ ४ ॥
मेरी बात जाय तो जाओ, सोच नहीं कुछ म्हारो।
मेरे बडो सोच यो लाग्यो, बिरद लाजसी थारो॥ ५ ॥
जचै जिसतराँ करो नाथ ! अब, मारो, चाहे त्यारो।
जाँघ उघाड्याँ लाज मरेगा, ऊँडी बात बिचारो॥ ६ ॥
और एक भजन हैं


जाहाँ ले चलोगे वहीँ में चलूंगा.
जाहा नाथ राख लोगे वहीँ में रहूंगा.-2
जाहाँ ले चलोगे वहीँ में चलूंगा.-2

यह जीबन समरप्रित चरण में तुम्हारे
तुम ही मेरे सर्बस तुम ही प्रानपेयारे
तुम्हे चोर कर ना किसीसे कहूंगा-2
जाहाँ ले चलोगे वहीँ में चलूंगा.-2
जाहा नाथ राख लोगे वहीँ में रहूंगा-2
जाहाँ ले चलोगे वहीँ में चलूंगा-2

ना कोई उलाहना ना कोई अर्जी,
करलो करालो जो है तेरी मरजी.
केहना भी होगा तो तुमिसे कहूँगा-2
जाहाँ ले चलोगे वहीँ में चलूंगा-2
जाहा नाथ राख लोगे वहीँ में रहूंगा-2
जाहाँ ले चलोगे वहीँ में चलूंगा-2

दयानाथ दयादीन मेरी अबस्था
तेरे हात है अब मेरी सारी बाबस्ता
जो भी कहोगे तुम वहीँ में करूंगा-2
जाहाँ ले चलोगे वहीँ में चलूंगा-2
जाहा नाथ राख लोगे वहीँ में रहूंगा-2
जाहाँ ले चलोगे वहीँ में चलूंगा-2



गुरु की निष्ठां पूर्वक सेवा करने से जिज्ञासु ज्ञान प्राप्ति का अधिकारी बनेगा, पहले उस सेवा का स्वरुप जाने :-
मै तो सेवा करने या मना करने में स्वतंत्र हूँ ऐसा जो सोचता हैं वह सेवा नही कर रहा हैं,
Speaking in today's context, जैसे एक दिन बाबा की आरती करली या बाबा का अभिषेक किया
फिर अगले दिन आलस या अपनी मन मर्जी से नही की आरती इत्यादि
पूरा दिन फ़ालतू में गवा दिया पर  जाप नही किय गये ऐसा देहाभिमानी अपने देह को केवल अपने विषयानंद में गवा कर झूठा ही भक्त कहलाता हैं।
यह ज्ञानिन: और तत्वदर्शीन:  बहुवचन का प्रयोग आदर देने के लिय हुआ हैं।
ज्ञान जैसा और कुछ पवित्र करने वाला नही, ज्ञान से सारा प्रपंच नि:शेष होजाता हैं।
क्या वह ज्ञान कही बाहर से आएगा ??
नही।
अज्ञान का आवरण भंग हो तब जो बचे वह ज्ञान ही हैं क्यू की हम ज्ञान स्वरुप ही हैं, माया और उसकी आसक्तियो में स्वयं उलझ कर अज्ञान की मोटी चादर ज्ञान पर हम डाले रहते हैं। एक पंक्ति जो मुझे सत्चारित्र पढ़ने के बहुत दिनों बाद समझ आई, और जब समझ आई तब वह मेरी प्रिय पंक्ति बन गई , वह हैं :-
"हे अर्जुन। यदि तुम्हारी निद्रा और स्वप्न भंग हो, तब तुम स्वयं हो।"
शिष्य अपने सदगुरु को अपना सर्वस्व अर्पण कर देता हैं तो फिर वह अपने इस देह के किसी रिश्ते नातों में कैसे प्रेम या आसक्ति करेगा जब उसे अपने देह में ही आसक्ति नही।परन्तु ये बाते विषयलोलुप के गले नहीं उतरती.
कलियुग के एक शिष्य का आदर्श जीवन चरित्र देखना हो तो
ज्ञानेश्वर महाराज और एकनाथ महाराज का जीवन चरित्र अथवा उनके द्वारा लिखी अनगिनत गुरु वन्दना पढ़े।
एकनाथ ( नाथ भागवत टीका में) कहते हैं :-

सद्‍गुरूचें तीर्थमात्र । सकळ तीर्थां करी पवित्र ।
गुरुचरण तें आमचें क्षेत्र । वृत्ति स्वतंत्र ते आम्हां ॥३६॥
तूं पुरे पुरे म्हणसी स्तवन । परी वर्णितां तुझे उदार गुण ।
अतृप्त सर्वथा नुठी मन । तुझी आण वाहातसें ॥३७॥
तुझे गुण वर्णावया तत्त्वतां । मी प्रवर्तलों श्रीभागवता ।
त्वां मज लाविलें भक्तिपंथा । निजकथाकीर्तनीं ॥३८॥
जय जय सद्‍गुरु जनार्दना । भवगजपंचानना ।
एकाकी शरण आलों जाणा । तुझ्या श्रीचरणा पावलों ॥३९॥
अर्थात सद्गुरु का तीर्थ सारे तीर्थो को पवित्र करता हैं , और गुरु के चरण हमारा क्षेत्र हैं और उसपर हमारा स्वतंत्र रूप से अधिकार हैं।
...गुरुदेव आपके उदार गुणों का वर्णन करते मन को तृप्ति नही हो पति।... मै एकाएक तुम्हारी शरण में आया और तुम्हारे श्री चरणों तक पहुँचा...


गुरु का शिष्य होने में और भक्त होने में क्या अंतर हैं??

 

The
devotee says: "I want to please the Guru." The disciple says "I want
to become the reflection of the Guru.".

In 1917, Baba once called Abdul Baba, Nana Chandorkar, Mhalsapathi, Das Ganu and others and started asking each of them: “Do you know who you are?” Each of them replied: “I am your sishya (disciple).” Baba said: “Nonsense! Don’t use that term any longer. I have no disciples in this world. I have countless devotees. You do not recognise the distinction between a disciple and a devotee. Anyone can be a devotee. But that is not the case with the disciple. A disciple is one who carries out implicitly the commands of the guru (the preceptor). The mark of the sishya is total devotion to the preceptor. Only the man who says, ‘I have none in the world other than the preceptor,’ is a disciple. How far have you respected My injunctions? How are you entitled to claim that you are My disciples? Only the one who follows Me like My shadow can claim to be My disciple. The devotee is one who prays to the Lord wherever he may be. Hence, there is a big difference between a disciple and a devotee. The disciple and the preceptor are like two bodies with one spirit. The disciple should have no sense of separateness from the preceptor. He should feel, ‘I and you are one.’ There are no such disciples to be found in the world. There are millions of devotees, but no disciples.”


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« Last Edit: April 24, 2016, 07:06:44 AM by sai ji ka narad muni »
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जय साईं राम भाइयों और बहनों
आज का पाठ हैं
श्री साईं सत्चरित्र
पाठ- 18-19

" गुरु की भी कछुवी के समान ही प्रेम-दृष्टि से हमें संतोष प्राप्त होता है । इस कारण व्यर्थ में किसी से उपदेश प्राप्त करने का प्रयत्न न करो । मुझे ही अपने विचारों तथा कर्मों का मुख्य ध्येय बना लो और तब तुम्हें निस्संदेह ही परमार्थ की प्रप्ति हो जायेगी । मेरी और अनन्य भाव से देखो तो मैं भी तुम्हारी ओर वैसे ही देखूँगा । इस मस्जिद में बैठकर मैं सत्य ही बोलूँगा कि किन्हीं साधनाओं या शास्त्रों के अध्ययन की आवश्यकता नही, वरन् केवल गुरु में विश्वास ही पर्याप्त है । पूर्ण विश्वास रखो कि गुरु ही कर्ता है और वह धन्य है, जो गुरु की महानता से परिचित हो उसे हरि, हर और ब्रहृ (त्रिमूर्ति) का अवतार समझता है ।" - पाठ १८-१९

फिर उसी पाठ में आगे वर्णन हैं की
उन्होंने अनेकों से नाम का जपकर अपनी शरण में आने को कहा । जो यह जानने को उत्सुक थे कि "मैं कौन हूँ?" बाबा ने उन्हें भी लीलायें श्रवण और मनन करने का परामर्श दिया । किसी को भगवत् लीलाओं का श्रवण, किसी को भगवत्पादपूजन तो किसी को अध्यात्मरामायण व ज्ञानेश्वरी तथा धार्मिक ग्रन्थों का पठन एवं अध्ययन करने को कहा । अनेकों को अपने चरणों के समीप ही रखकर बहुतों को खंडोबा के मन्दिर में भेजा तथा अनेकों को विष्णु सहस्त्रनाम का जप करने व छान्दोग्य उपनिषद तथा गीता का अध्ययन करने को कहा । उनके उपदेशों की कोई सीमा न थी । उन्होंने किन्हीं को प्रत्यक्ष और बहुतों को स्वप्न में दृष्टांत दिये । एक बार वे एक मदिरा-सेवी के स्वप्न में प्रगट होकर उसकी छाती पर चढ़ गये और जब उसने मद्यपान त्यागने की शपथ खाई, तभी उसे छोड़ा । किसी-किसी को मंत्र जैसे "गुरुर्ब्रह्मा" आदि का अर्थ स्वप्न में समझाया तथा कुछ हठयोगियों को हठयोग छोड़ने की राय देकर चुपचाप बैठ धैर्य रखने को कहा । उनके सुगम पथ और विधि का वर्णन ही असम्भव है

ऐसा  क्यू?


पहले लिखा हैं की बाबा कहते हैं की अध्ययन की आवश्यकता नही फिर बाबा ने आज्ञा भी दी भक्तो को अनेक ग्रंथो के पठन की।
ऐसा  क्यू???


इसका उत्तर पाठ की प्रथम पंक्तियों में हैं

"सदगुरु पहले अपने शिष्य की योग्यता पर विशेष ध्यान देते है । उनके चित्त को किंचितमात्र भी डावाँडोल न कर वे उपयुक्त उपदेश देकर उन्हें आत्मानुभूति की ओर प्रेरित करते है । "


मेरी मति के अनुसार इसका कारण निम्नलिखित हैं

सबका जीवन एक दुसरे से बिलकुल भिन्न हैं, कोई जन्म से भक्त है तो कोई नास्तिक से भक्त बनता हैं , तो कोई पाखंडी से भक्त बन जाता हैं इत्यादि सबकी अपनी अलग कहानी हैं  ।
So we can't generalise anything in bhakti marg,such as way of progress in bhakti, or to get darshan of bhagwan, to attain ज्ञान , विवेक etc.So i think we should stop stereotyping bhagwan untill we know any little about him...
Well! Coming back to the pt.
जब तक बुद्धि में विवेक नही हैं तब तक समझ नहीं आएगा कुछ भी।।।
कुछ लोगो की आदत होती हैं कोई भी दुखी दीखता हैं तो सलाह देते हैं की गीता पढ़ो,
पर भाई , गीता पढ़ने से सबको समझ आनी होती तो ये कलयुग कहा रहता, सभी आत्म साक्षात्कार पा चुके होते, यह सतयुग होता, क्यू की बहुत लोगो को मैंने कहते सुना हैं की मैंने गीता पढ़ी हैं, जो लोग कर्म , कल्याण, कल्प, आसक्ति,  भक्ति ,ज्ञान, सन्यास ,योग ,स्थितप्रज्ञता ,कर्तव्य, भोग, परमात्मा ,यज्ञ,संयम , कर्मसंन्यास  ,आत्मा , आदि इन शब्दों का अर्थ ही नही बता सकते।
इससे  पता चलता हैं की केवल पठन नही, ज्ञान भक्ति और विवेक भी हो।
जिनमे ये सब नही हैं वे और जिनमे हैं वे भी अपने गुरु की शरण जाये , और गुरु की आज्ञा से ही पठन करे, शास्त्र प्रमाण हैं गुरु की आज्ञा के बिना जो साधक साधन करता हैं वह उसे लाभ नही देता, बल्कि उसका अहंकार बढ़ता है जो की उसकी भगवद प्राप्ति के मार्ग में विलम्ब कराता हैं।
हमारे साईं अपने सभी भक्तो का विशेष रूप से ध्यान रखते हैं, साईं जी महाराज जब कृपा करते हैं तब अपने भक्तो के अंत: करन में ज्ञान भक्ति वैराग्य और विवेक का उदय  कर देते हैं, उनकी दयालुता का कोई पार नही पा सकता क्यू की वे आत्माराम हैं, वे पूर्ण होते हुए भी हम पर कृपा करने को सदैव तत्पर रहते हैं यही उनकी अपार करुणा का सूचक हैं।
इसिलिय ब्रह्मसूत्र पढने हो या रामायण
शांकरभाष्य पढ़ने हो या वल्लभ भाष्य
कृष्ण गीता पढनी हो या उद्धव गीता
सदैव बाबा की आज्ञा लेकर ही पढ़ना श्रेष्ठ हैं,  क्यू की उनकी इच्छा होगी तो हमारी पात्रता न होते हुए भी समझ आजायेंगे जो भी पाठ करे।

जय साईं राम


"सदगुरु तो वर्षा ऋतु के मेघसदृश है, जो सर्वत्र एक समान बरसते है, अर्थात वे अपने अमृततुल्य उपदेशों को विस्तृत श्रेत्र में प्रसारित करते है । प्रथमतः उनके सारांश को ग्रहण कर आत्मसात् कर लें और फिर संकीर्णता से रहित होकर अन्य लोगों में प्रचार करें ।
"

जो व्यक्ति व्यर्थ में ज्ञान बघारते हैं उन्हें ये पंक्ति आवश्य समझनी चाहिय, की "प्रथमतः उनके सारांश को ग्रहण कर आत्मसात् कर लें और फिर संकीर्णता से रहित होकर अन्य लोगों में प्रचार करें ।" कुछ लोगो ने मुझे कहा सबमे ईश्वर के दर्शन करो, (अरे भाई सबमे ईश्वर दर्शन हो रहे होते तो यहाँ बैठे होते???  ;D ) जो अनुभूति खुद को ही नहीं हुई वह दूसरो को क्यू उपदेश देना??
पढ़ा पढ़ाया या रटा हुआ ज्ञान भी आवश्यकता आने पर किसी को बता दिया ठीक परन्तु कम से कम सुना सुनाया ज्ञान के नाम पर बकवास तो न फैलाए
जैसे कई लोग बोलते हैं की हमने सुना हैं की घर में एक भगवान की केवल एक ही तस्वीर होनी चाहिय, आदि !! (और पूछो की किससे सुना हैं बहन ये तुमने? तो कहते हैं -पता नहीं  ;D )
ऐसी कुबुद्धि गलत तरीके से भोजन बनने और खाने से  भी आती हैं।
भाई जो कृतघ्न भगवान अथवा गुरु का अवाहन कर या उन्हें भोजन अर्पण कर (भगवान को भोग लगाकर ) नही खाता वह पाप ही खाता हैं (गीता प्रमाण हैं) भले ही कितना भी hygienic और vegetarian भोजन हो।इसिलिय ऐसी बुद्धि अथवा बाते ऐसे लोगो की ही मिलती हैं।।।
हम जीने के लिय खाए, खाने के लिय न जिए।


अपने भक्तो के उद्धार का मार्ग हमारे साईं देवा स्वयं निश्चित करते हैं।
इसिलिय गुरु द्वारा दिया ज्ञान जब अपरोक्ष अनुभव से दृढ हो जाता हैं तब धर्म का सार अपने आप ही मन में प्रकट हो जाता हैं।
और प्रचार के लिय भी श्रोताओ की पात्रता का ख्याल रखे , और जब तक पात्रता परखने की पात्रता नही आई हैं तब तक गुरु की आज्ञा से ही किसी को ज्ञान का प्रचार करे।

जय साईं राम
« Last Edit: April 24, 2016, 06:28:22 AM by sai ji ka narad muni »
जिस कर्म से भगवद प्रेम और भक्ति बढ़े वही सार्थक उद्योग हैं।
ॐ साईं राम

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Talking about the exceptions today

Those who are into BHAGWAT DHARM Are the exceptions..
भागवत धर्म हैं क्या??
जिसका स्मरण मात्र भगवान् की अपार करुणा का स्मरण करा देता हैं,
जो एक भक्त से सहज ही होता हैं, जिसकी महिमा का वर्णन करने का सामर्थ्य किसी के पास नहीं हैं, ऐसा हैं भागवत धर्म।
यह धर्म कर्मकांडियो की समझ से सर्वथा परे हैं
जो इसके बारे में अधिक जानना चाहे वह श्रीमद भागवत महापुराण में खोजे।
सबसे बड़ा आश्चर्य तो ये हैं की हमारे धर्म ग्रंथो में जो बात गोपनीय रखने को कही गई हैं अथवा केवल भक्तो के सामने प्रगट करने की आज्ञा दी गई हैं वे गूढ़ रहस्य अगर कभी अनाधिकारी अथवा अपात्र के संम्मुख प्रकट कर भी दी जाए तो वह उसे न ही समझ आती हैं और न ही उसे उसपर विश्वास होता हैं तो उससे उसे लाभ होना तो दूर की बात।
यही  हरी की लीला हैं।


परन्तु कृपा से सम्बन्धित एक प्रश्न हैं

कृपा किसपर होती हैं
पापी  पर??
अच्छे इंसान पर?
शरणागत पर??
हिन्दू पर?
अन्य धर्मं के अनुनायियो पर??
वेद मार्गी पर??
सकाम पर?
निष्काम पर??

उत्तर : जिसपर कृपा करने की प्रभु की इच्छा हो
भले ही वह कोई भी हो कैसा भी हो

« Last Edit: April 29, 2016, 02:36:24 AM by sai ji ka narad muni »
जिस कर्म से भगवद प्रेम और भक्ति बढ़े वही सार्थक उद्योग हैं।
ॐ साईं राम

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श्री साई सच्चरित्र अध्याय 26
इस सृष्टि में स्थूल, सूक्ष्म, चेतन और जड़ आदि जो कुछ दृष्टिगोचर हो रहा है, वह सब एक ब्रह्म है और इसी एक अद्वितीय वस्तु ब्रह्म को ही हम भिन्न-भिन्न नामों से सम्बोधित करते तथा भिन्न-भिन्न दृष्टियों से देखते है । जिस प्रकार अँधेरे में पड़ी हुई एक रस्सी या हार को हम भ्रमवश सर्प समझ लेते है, उसी प्रकार हम समस्त पदार्थों के केवल ब्रह्म स्वरुप को ही देखते है, न कि उनके सत्य स्वरुप को । एकमात्र सदगुरु ही हमारी दृष्टि से माया का आवरण दूर कर हमें वस्तुओं के सत्यस्वरुप का यथार्थ में दर्शन करा देने में समर्थ है । इसलिये आओ, हम श्री सदगुरु साई महाराज की उपासना कर उनसे सत्य का दर्शन कराने की प्रार्थना करे, जो कि ईश्वर के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है ।

आन्तरिक पूजन
श्री. हेमाडपंत उपासना की एक सर्वथा नवीन पद्घति बताते है । वे कहते है कि सदगुरु के पादप्रक्षालन के निमित्त आनन्द-अश्रु के उष्ण जल का प्रयोग करो । उन्हें सत्यप्रेमरुपी चन्दन का लेप कर, दृढ़विश्वासरुपी वस्त्र पहिनाओ तथा कोमल और एकाग्र चित्तरुपी फल उन्हें अर्पित करो । भावरुपी बुक्का उनके श्री मस्तक पर लगा, भक्ति की कछनी बाँध, अपना मस्तक उनके चरणों पर रखो । इस प्रकार श्री साई को समस्त आभूषणों से विभूषित कर, उन्हें अपना सर्वस्व निछावर कर दो । उष्णता दूर करने के लिये भाव की सदा चँवर डुलाओ । इस प्रकार आनन्ददायक पूजन कर उनसे प्रार्थना करो –
"हे प्रभु साई ! हमारी प्रवृत्ति अन्तर्मुखी बना दो । सत्य और असत्य का विवेक दो तथा सांसारिक पदार्थों से आसक्ति दूर कर हमें आत्मानुभूति प्रदान करो । हम अपनी काया और प्राण आपके श्री चरणों में अर्पित करते है । हे प्रभु साई! मेरे नेत्रों को तुम अपने नेत्र बना लो, ताकि हमें सुख और दुःख का अनुभव ही न हो । हे साई ! मेरे शरीर और मन को तुम अपनी इच्छानुकूल चलने दो तथा मेरे चंचल मन को अपने चरणों की शीतल छाया में विश्राम करने दो ।"



जय साईं राम
हरी हरी हरी
हरी हर साईं
आप सभी भाइयों और बहनों को जय साईं राम
और
सभी संतो को चरण स्पर्श

ॐ साईं

आज हम हेमाडपंत द्वारा लिखित प्रभु साईं से की गई प्रार्थना पर गौर करेंगे, बहुत ही सुन्दर प्रार्थना हैं।
क्या क्या माँगा उन्होंने???

1. अन्तर्मुखता

2.विवेक

3. सांसारिक अनासक्ति

4.  आत्मानुभूति

5.  एकत्व दृष्टि

6.  शरण

जब ईश्वर सामने आ जाते हैं तब समझ नही आता क्या कहे क्या मांगे, हम सारी अपनी मांगे भुला देते हैं
पर जब नित्य इनका सानिध्य मिलने लगता हैं तब उनकी हर बात याद करके मन इतना प्रफुल्लित रहता हैं उनके प्रेम का स्मरण करके इतना आह्लाद रहता हैं जो की व्यक्त नही किया जा सकता और जब जब वो सामने होते हैं तब तो उनके अलावा कुछ याद ही नही रहता। तब ये छ: बाते स्वयं भक्त में आ जाती हैं,जब मन में साईं इतना बस जाये तों दूजा कहाँ समाये!!!
दरअसल हेमाडपंत जी की ये प्रार्थना हम सभी के लिय हैं, हम सबको इन गुणों की आवश्यकता हैं। आईये जाने कैसे

1. अन्तर्मुखता
सच्चा भक्त और साधक अत्यंत अंतर्मुख हो जाता हैं
अगर आपको बार बार whatsapp Facebook call message वगरह करने की इच्छा होती हैं समय गुजारने के लिय वार्तालाप करने के लिय, तो आप बहिर्मुख हो
बहिर्मुख व्यक्ति हर बात दूसरो को बताना चाहता हैं
लोगो को अपनी कहानी सुनाकर पकाता हैं
अंतर्मुखता परिपक्वता आने पर आ जाती हैं ऐसे भक्त बड़े से बड़े साधना के अनुभव किसी को बिना बताये रह सकते हैं।
एकनाथ कहते हैं साधक को एकांत प्रिय होता हैं।
और वैसे भी आज के समय में हरी चर्चा करने वाले मित्र कहां मिलते हैं, इसिलिय मेरा मानना हैं राम नाम लेने में जिसका मुह बंद हो जाता हैं पर विषय चर्चा में खूब गाल बजता हैं ऐसी संगत से अच्छा साईं स्मरण संग एकांत वास ही हैं।

2.विवेक

मुझे लगता हैं विवेक ही हमारा सच्चा साथी हैं
विवेक कभी व्यर्थ चीजों के लिय दुखी नही होने देता
यह कभी कोई गलत कर्म नही करने देता
यह कभी कही आसक्ति नही पालने देता
विवेक सबसे अनमोल तोहफा हैं जो साईं अपने भक्तो को देते हैं।
अगर आज सबमे विवेक उत्पन्न हो जाये तो सब लोग भक्ति मार्ग अपना लेंगे
कही कोई किसी भी प्रकार का दोष नही रहेगा।
संसारियो का विवेक तो नकली विवेक होता हैं केवल नाम का, सच्चा विवेक तो साईं कृपा से ही मिलता हैं।



3. सांसारिक अनासक्ति
विवेक होगा तो संसार में अनासक्ति भी रहेगी
केवल साईं ही मेरे अपने हैं और ये सब क्षणभंगुर हैं यह विवेक वैराग्य प्रदान करता हैं। बोध हो जाने पर आसक्ति पास भी नही फटकती।


4.  आत्मानुभूति
अपने स्वरुप का बोध आत्मानुभूति हैं।
देखिय, दृश्य दृष्टा का विवेक तो बहुतों को हो जाता हैं परन्तु "सब मै ही हूँ" ऐसा अनुभव किसी विरले ज्ञान निष्ठ पुरुष को ही होता है।


5.  एकत्व दृष्टि
& 6. शरण
शिवो भूत्वा शिवं भजेत
यह हैं अद्वैत भक्ति।
हमे अपनी इच्छा से ही चलाओ साईं जी हम आपके हैं।
मलविक्षेप की निवृत्ति कर गुरुदेव हमे बन्धनों से मुक्त कर देंगे। प्रभु हमारा मन केवल आपमें ही लगा रहता हैं। पर जब कभी यह संसार के सन्मुख होता हैं तब सुख दुःख में फस जाता हैं इसिलिय नाथ मेरी हर क्रिया केवल आपकी इच्छा से ही हो।


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श्री साईं सत्चारित्र को ही अपना मन्दिर बना लें।
इसमें बैठे साईं आपकी बाते सुनेंगे
आपसे बाते करेंगे
अपना प्रेम जताएंगे
स्वयं मुस्कुराएंगे और आपको भी
आनन्दित करेंगे।
ज्ञान की ज्योति जगाकर अपनी प्रेमभरी वाणी का शंखनाद वो करेंगे
सुगन्धित पुष्प स्वीकार कर , जीवन में मेरे रस भर देंगे

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जामनेर का विलक्षण चमत्कार
_________________
सन् 1904-05 में नानासाहेब चाँदोरकर खानदेश जिले के जामनेर में मामलतदार थे । जामनेर शिरडी से लगभग 100 मील से भी अधिक दूरी पर है । उनकी पुत्री मैनाताई गर्भावस्था में थी और प्रसव काल समीप ही था । उसकी स्थिति अति गम्भीर थी । 2-3 दिनों से उसे प्रसव-वेदना हो रही थी । नानासाहेब ने सभी संभव प्रयत्न किये, परन्तु वे सब व्यर्थ ही सिदृ हुए । तब उन्होंने बाबा का ध्यान किया और उनसे सहायता की प्रार्थना की । उस समय शिरडी में एक रामगीर बुवा, जिन्हें बाबा बापूगीर बुवा के नाम से पुकारते थे, अपने घर खानदेश को लौट रहे थे । बाबा ने उन्हें अपने समीप बुलाकर कहा कि तुम घर लौटते समय थोड़ी देर के लिये जामनेर में उतरकर यह उदी और आरती श्री. नानासाहेब को दे देना । रामगीर बुवा बोले कि, "मेरे पास केवल दो ही रुपये है, जो कठिनाई से जलगाँव तक के किराये को ही पर्याप्त होंगे । फिर ऐसी स्थिति में जलगाँव से और 30 मील आगे जाना मेरे लिए कैसे संभव होगा?" बाबा ने उत्तर दिया कि, "चिंता की कोई बात नहीं । तुम्हारी सब व्यवस्था हो जायेगी ।" तब बाबा ने शामा से माधव अडकर द्वारा रचित प्रसिदृ आरती की प्रतिलिपि कराई और उदी के साथ नानासाहेब के पास भेज दी । बाबा के वचनों पर विश्वास कर रामगीर बुवा ने शिरडी से प्रस्थान कर दिया और पौने तीन बजे रात्रि को जलगाँव पहुँचे । इस समय उनके पास केवल दो आने ही शेष थे, जिससे वे बड़ी दुविधा में थे । इतने में ही एक आवाज उनके कानों में पड़ी कि, "शिरडी से आये हुए बापूगीर बुवा कौन है?" उन्होंने आगे बढ़कर बतलाया कि, "मैं ही शिरडी से आ रहा हूँ और मेरा ही नाम बापूगीर बुवा है ।" उस चपरासी ने, जो कि अपने आपको नानासाहेब चाँदोरकर द्वारा भेजा हुआ बतला रहा था, उन्हें बाहर लाकर एक शानदार ताँगे में बिठाया, जिसमें दो सुन्दर घोड़ी जुते हुए थे । अब वे दोनों रवाना हो गये । ताँगा बहुत वेग से चल रहा था । प्रातःकाल वे एक नाले के समीप पहुँचे, जहाँ ताँगेवाले ने ताँगा रोककर घोड़ों को पानी पिलाया । इसी बीच चपरासी ने रामगीर बुवा से थोड़ा सा नाश्ता करने को कहा । उसकी दाढ़ी-मूछें तथा अन्य वेशभूषा से उसे मुसलमान समझकर उन्होंने जलपान करना अस्वीकार कर दिया । तब उस चपरासी ने कहा कि मैं गढ़वाल का क्षत्रिय वंशी हिन्दू हूँ । यह सब नाश्ता नानासाहेब ने आपके लिये ही भेजा है तथा इसमें आपको कोई आपत्ति और संदेह नहीं करना चाहिये । तब वे दोनों जलपान कर पुनः रवाना हुए और सूर्योदय काल में जामनेर पहुँच गये । रामगीर बुवा लघुशंका को गये और थोड़ी देर में जब वे लौटकर आये तो क्या देखते है कि वहाँ पर न तो ताँगा था, और न ताँगेवाला और न ही ताँगे के घोड़े । उनके मुख से एक शब्द भी न निकल रहा था । वे समीप ही कचहरी में पूछताछ करने गये और वहाँ उन्हें बतलाया कि इस समय मामलतदार घर पर ही है । वे नानासाहेब के घर गये और उन्हें बतलाया कि, "मैं शिरडी से बाबा की आरती और उदी लेकर आ रहा हूँ ।" उस समय मैनाताई की स्थिति बहुत ही गंभीर थी और सभी को उसके लिये बड़ी चिंता थी । नानासाहेब ने अपनी पत्नी को बुलाकर उदी को जल में मिलाकर अपनी लड़की को पिला देने और आरती करने को कहा । उन्होंने सोचा कि बाबा की सहायता बड़ी सामयिक है । थोड़ी देर में ही समाचार प्राप्त हुआ कि प्रसव कुशलतापूर्वक होकर समस्त पीड़ा दूर हो गई है । जब रामगीर बुवा ने नानासाहेब को चपरासी, ताँगा तथा जलपान आदि रेलवे स्टेशन पर भेजने के लिये धन्यवाद दिया तो नानासाहेब को यह सुनकर महान् आश्चर्य हुआ और वे कहने लगे कि मैने न तो कोई ताँगा या चपरासी ही भेजा था और न ही मुझे शिरडी से आपके पधारने की कोई पूर्वसूचना ही थी !
ठाणे के सेवानिवृत श्री. बी. व्ही. देव ने नानासाहेब चाँदोरकर के पुत्र बापूसाहेब चाँदोरकर और शिरडी के रामगीर बुवा से इस सम्बन्ध में बड़ी पूछताछ की और फिर संतुष्ट होकर श्री साईलीला पत्रिका, भाग 13 (नं 11,12,13) में गद्य और पद्य में एक सुन्दर रचना प्रकाशित की । भाई श्री. बी. व्ही. नरसिंह स्वामी ने भी (1) मैनाताई (भाग 5, पृष्ठ 14), (2) बापूसाहेब चाँदोरकर (भाग 20, पृष्ठ 50) और (3) रामगीर बुवा (भाग 27, पृष्ठ 83) के कथन लिये है, जो कि क्रमशः 1 जून 1936, 16 सितम्बर 1936 और दिसम्बर 1936 को छपे है और यह सब उन्होंने अपनी पुस्तक भक्तों के अनुभव भाग 3 में प्रकाशित किये है । निम्नलिखित प्रसंग रामगीर बुवा ने कथनानुसार उदधृत किया जाता है ।"एक दिन मुझे बाबा ने अपने समीप बुलाकर एक उदी की पुड़िया और एक आरती की प्रतिलिपि देकर आज्ञा दी कि जामनेर जाओ और यह आरती तथा उदी नानासाहेब को दे दो । मैंने बाबा को बताया कि मेरे पास केवल दो रुपये ही है, जो कि कोपरगाँब से जलगाँव जाने और फिर वहाँ से बैलगाड़ी द्वारा जामनेर जाने के लिये अपर्याप्त हैं। बाबा ने कहा "अल्ला देगा ।" शुक्रवार का दिन था । मैं शीघ्र ही रवाना हो गया । मैं मनमाड 6-30 बजे सायंकाल और जलगाँव रात्रि को 2 बजकर 45 मिनट पर पहुँचा । उस समय प्लेग निवारक आदेश जारी थे, जिससे मुझे असुविधा हुई और मैं सोच रहा था कि कैसे जामनेर पहुँचूँ । रात्रि को 3 बजे एक चपरासी आया, जो पैर में बूट पहिने था, सिर पर पगड़ी बाँधे व अन्य पोशाक भी पहने था । उसने मुझे ताँगे में बिठा लिया और ताँगा चल पड़ा । मैं उस समय भयभीत-सा हो रहा था । मार्ग में भगूर के समीप मैंने जलपान किया । जब प्रातःकाल जामनेर पहुँचा, तब उसी समय मुझे लघुशंका करने की इच्छा हुई । जब मैं लौटकर आया, तब देखा कि वहाँ कुछ भी नहीं है । ताँगा और ताँगेवाला अदृश्य है ।"




प्रस्तुत कथा में तांगेवाला था कोन?
बाबा ?
माया?
या बाबा की प्रेरणा से एक सच मुच का तांगेवाला??
 हमारे जीवन में भी कुछ ऐसे बाबा कभी कभी कृपा करते हैं। आज हम बात करेंगे बाबा के आवेशावतार की ,

आवेशावतार
साईं राम
हमारे भीतर और आस पास के लोगो में स्थित साईं जब हमपर कृपा करने को आतुर हो जाते हैं जब उनका हृदय हमारे प्रति प्रेम से भरा होने के कारण साईं प्रेम प्रकट करदेना चाहते हैं तब नाथ इस तरह कृपा करते हैं और अपने भक्तजनों को कृतार्थ करते हैं।
एक बार की बात हैं उन शुरूआती दिनों में जब साईं बाबा में मेरी श्रद्धा जगी, साईं मंदिर में जाकर मैंने दंडवत किया और एक लगभग चार वर्षीय कन्या जो की साइकिल चला रही थी मेरे पास आई और मेरे सर पर हाथ रख दिया ( वह मन्दिर पार्क में हैं जिसकी तस्वीर इस फोरम में shirdi sai temple pictures में पोस्ट की गई हैं)
2015 गुरुपूर्णिमा के दिन मन्दिर में एक बच्ची भागती आई और मेरे पैरो से लिपट गई और ऐसे मुझे आलिंगन दिया मेरे नाथ ने।( उस दिन बाबा ने पहले ही बोल दिया था मुझे की वो मुझे पूरे दिन बहुत प्रेम करेंगे)
आप सभी तो वर्षो से साईं बाबा के कृपा पात्र रहे हैं आपके कई अधिक ऐसे अनुभव होंगे। इन सब से यही सिद्ध होता हैं की साईं बाबा करुणा की मूरत हैं  वो हमसे कभी न रूठे और उनका साथ कभी न छूटे। उनके प्रेम के बिना ये जीवन कुछ भी नहीं


जिस कर्म से भगवद प्रेम और भक्ति बढ़े वही सार्थक उद्योग हैं।
ॐ साईं राम

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श्रीभगवानुवाच
ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्‌ ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्‌ ॥
(Chapter 32 in hindi sai satcharitra
Chapter 15 in geeta)
Gyaneshwar maharaj dwara is shlok par tika :

With roots above and branches below, the Asvattha tree, they say, is indestructible, it’s leaves are
the Vedic hymns; he, who knows it, is the knower of the Vedas.
O Arjuna, that which obstructs the way leading to the abode of the Supreme Self is not this
panorama of the world, but this great tree of mundane existence. But it is not like other trees,
which has roots below and branches above. It is because of this, that no one can fathom it.
Even if its base is burnt or cut with an axe, it does not get destroyed; instead it shoots up
rapidly. If the other trees are cut at the base, they become uprooted along with their branches.
It is not so with this tree, which is not an ordinary tree (46-50). Curiously this is an extraor-
dinary tree which has its growth downwards. No one knows the height of the sun, but its
rays spread downwards. In the same way this tree of mundane existence, grows downwards
in a curious manner. Whatever things exist in this world, are pervaded by this tree. Just as
the entire sky is pervaded by water at the time of deluge, or the night is flooded with darkness
at sunset, so this entire universe is pervaded by this tree. This tree has neither any fruit, which
can be tasted, nor any flower, which can be smelled; what exists is the lone tree (51-55). Its
roots grow up at the top, and so it cannot be uprooted. For this reason it is evergreen. Though
it is said to have roots at the top, it has also numerous roots downwards. This tree has shot
up rapidly all around like the holy Indian fig tree, and its shoots have also put forth branches.
So, O Arjuna, it is not that this tree has branches only downwards, but its numerous branches
have spread upwards also (56-60). It looks as though the sky has put forth foliage or the wind
has taken the form of this tree or the three states of creation, sustenance and dissolution have
become incarnate in the form of this tree. In this way this top-rooted tree has grown thick
in the form of the universe. Now you may ask, who is at the top of this tree, what is its origin,
what are its characteristics, why this tree spreads downwards, what are its branches, what
are the branches of its downward roots and how do they grow, why it is called Asvattha and
what purport has been found in all this, by the knowers of Self (61-65). All these queries
I shall explain in such a way, that you will realise them fully. Oh lucky Arjuna, you alone
are fit to enquire into all this, so gather all your sense organs in the ears and hear. Hearing
these words of the Yadava hero brimful with affection, Arjuna became all attention. As if all
the ten quarters wanted to embrace the sky, the longing to hear the Lord’s words grew in
him to such an extent, that he felt the Lord’s discourse to be too short. Just as the sage Agastya
had sipped the ocean, Arjuna wanted to sip the words of the Lord in a single draught
(66-70). The Lord became very happy to see this limitless longing of Arjuna to hear him and
waved his satisfaction over him.
Then the Lord said to Arjuna: O winner of wealth, this tree has become top-rooted because
of Brahman, which is at the top. Really speaking, there is no such thing as the middle, top
or bottom in the case of Brahman, which is non-dual and one. It is the inarticulate sound,
which precedes all sounds, the fragrance that is the origin of all scents, and the bliss expe-
rienced without sexual intercourse. It is here and beyond, in front and behind, it sees ev-
erything but is itself invisible (71-75). When it comes into contact with the limiting conditions,
it becomes the universe with name and form. It is knowledge without a knower and the object
of knowledge and it has pervaded the universe in a subtle form. It is neither the effect nor
the cause; it is neither dual nor single, it exists in full consciousness of itself. This pure Brahman
is the top root of this tree and the shoots, which come forth from this root, are as follows.
This universe is well known as Maya, which has no existence like the progeny of a barren
woman (76-80). One cannot say that it is, or that it is not. Though not susceptible to reason,
it is said to be without beginning. It is the chest full of diverse powers. It is the support of
the world, as the sky is the support of the clouds and it is the folded cloth in the form of
universe. It is the seed of the world tree, the source of mundane existence, and it contains
within it in a massive form, the dim light of false knowledge. This Maya takes shelter in the
Supreme Brahman and becomes manifest through its power. She is like a sleepy person who
feels dull or like the dim light of a lamp covered with soot (81-85) or like a young woman
who, dreaming that she is asleep beside her husband, wakes him up with an embrace (in
a dream) and rouses his passion. So, O winner of wealth, this Maya that is the creature of
Brahman, makes it forget its pristine nature, and this is the origin of the world-tree. This
forgetfulness of its essential nature, on the part of Brahman is the original top-root of this
tree and is well known in Vedanta by the term, seed-form (Bija-bhava). The sound slumber
in the form of deep ignorance, is called the seedling form (Bij-ankura-bhava) and from this
arise the states of waking and sleep, which are known as the fruit-form (Phalabhava) of deep
slumber. These are the terms used in the discourses on Vedanta. But this apart, ignorance
is the root-cause of this world-tree (86-90).
This spotless Self at the top gives out roots up and down. And they grow strong in the cavity
at the base of the tree in the form of Maya. Then in the middle of those roots four kinds
of sprouts shoot downwards. In this way, the root of the world-tree gains its strength from
the Supreme Self and bears tufts of sprouts downwards. This conscious Self first produces a tender leaf, known as the Great Principle (mahat). Then is produced downward what is
known as egoism, with three leaves in the form of the three qualities, sattva, rajas and tamas
(91-95). This egoism produces a second sprout in the form of intellect, which fosters the notion
of distinctions. Then this gives moisture to the twig, in the form of mind and makes it fresh.
When the root becomes strong, it gives rise to four tender shoots of the mind, full of the
juice of ignorance. Then from them straight twigs, in the form of five gross elements sky,
wind, fire, water and earth, issue with great rapidity.
From the twigs in the form of gross elements, arise fresh and tender variegated foliage in
the form of the sense organs, such as ears and their objects. When the sprout in the form
of sound grows, the organs of hearing grow in strength, giving rise to the sprouts of desire
(96-100). Then the creeper in the form of the body, produces foliage in the form of skin, from
which springs the sprout of touch, giving rise to novel kinds of passions in profusion. Then
is produced the foliage of form, with sprouts in the form of eyes to view with, giving rise
to infatuation. This is followed by foliage in the form of taste, giving rise to numerous desires
for the tongue. Similarly, there comes a sprout of smell, intensifying the desires of the organ
of smell and giving rise to fondness. In this way, the eightfold Prakriti consisting of mahat,
egoism, intellect, mind and the five gross elements makes this world-tree to shoot up rapidly
(101-105). But just as when the mother-of-pearl appears as silver, the silver takes on the same
form as the mother-of-pearl, or the expanse of the waves is proportionate to the wide surface
of the sea, so the Brahman itself becomes the tree in the form of mundane existence arising
from ignorance. Just as a person, though single, becomes his retinue in the dream, so this
entire universe is the growth and expanse of the Supreme Self. In this way, this curious tree
grows and produces shoots in the form of mahat and other principles.
I shall now tell you, why people call this tree Ashvattha (106-110). Ashva means the morrow,
this tree does not remain the same even until the morrow. Just as the hues of the cloud change
every moment or the lightning does not last in its entirety even for a short while, or the water
on a quivering lotus leaf or the mind of man in distress does not remain steady, so is the
condition of this world-tree which perishes every moment. In popular parlance, the people
call this the holy fig tree, but Shri Hari does not use this word in this sense (111-115). However,
I had understood the true meaning, when this tree was called the Ashvattha. Now we need
not be concerned with the popular sense of this word and so I proceed with this narration.
In short, this tree is called Ashvattha, as it is transient. But this tree is also known as inde-
structible i.e. everlasting, its implied meaning is this. The sea evaporates to form the clouds
and is replenished by the rivers, flooded by the showers of rain and so remains full, so long
as the above process continues (116-120). In the same way, the modifications in the tree take
place so rapidly, that people hardly perceive them. It is for this reason the people call it
indestructible. Just as a munificent person gathers merit by giving his money to charity, so
this world tree, undergoing decay every moment, still remains everlasting. Just as when the
chariot moves very fast, its wheels seem to have no movement, so no sooner a branch of
the world tree in the form of creatures withers up, in course of time, than it is replaced by
numerous fresh sprouts. But no one knows when the branch drops down and when the
numerous branches shoot up; in the same way, as one does not know which clouds in the
month of July come in the sky and which disappear (121-125). The branches of the world-tree fall off at the time of world-dissolution but they grow in abundance, like a thick forest
at the time of creation. The barks of the tree get peeled off by the stormy winds at the time
of world- dissolution, but they appear in tufts at the beginning of an epoch. Then one epoch
(Manvantara) follows another, the solar and lunar dynasties expand in the same way as the
sugarcane grows through its joints. At the end of the kali-yuga, all the barks which the world-
tree had grown in the four yugas drop down, but it grows one and half times at the com-
mencement of the krita-yuga. Just as the current year ends and ushers in a new year, and
one does not know when a day passes away, giving place to a new one (126-130), or one
does not perceive the joints of breezes when they flow continuously, so one does not know
how many branches grow on this tree and fall off. No sooner than a young shoot in the form
of a body falls off, than hundreds of such shoots grow on this tree. As a result, the world
tree appears to be everlasting. As the water of the river current flows away very fast, it is
followed by another, so that the river appears to have a continuous flow, so this universe,
though impermanent, appears to be permanent. Numerous ripples appear and disappear in
the sea in a twinkling of the eye, and so they appear to be permanent. The crow with only
one common eye-ball, moves it from one eye to the other so fast, that it gives an erroneous
impression that it has two eyes (131-135). When the top rotates very fast, its rapid motion
gives the false impression that it is stationary and stuck to the ground. Why go far, if the
firebrand is moved very fast round and round in darkness, it appears circular in shape. In
the same way, the decomposition and growth of this world-tree takes place so fast, simul-
taneously, that the ordinary people do not perceive it and call it everlasting. But he, who realises,
that this world-tree is momentary, that it grows and withers continuously in a moment and
is false being rooted in ignorance (136-140), such a man, O Arjuna, is all knowing, the knower
of Vedanta doctrine and is the object of my adoration. He alone, attains the fruit of Yoga and
enlivens knowledge. Enough of this description. In this way, who can describe a person who
knows that this world-tree is transitory?

जिस कर्म से भगवद प्रेम और भक्ति बढ़े वही सार्थक उद्योग हैं।
ॐ साईं राम

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