आनंदमठ भाग-3
अभी तक आपने पढ़ा:- अकाल से त्रस्त पदचिन्ह गांव के महेंद्रसिंह अपनी पत्नी कल्याणी और पुत्री के साथ सब कुछ छोड कर शहर की ओर चल पडते हैं। रास्ते में एक गांव में महेंद्रसिंह बच्चे के लिए दूध की तलाश में निकलते है इसी बीच बच्चे समेत कल्याणी को डकैत उठा कर जंगल में ले जाता है। फिर धन बंटवारे के दौरान दलपति की हत्या हो जाती है। तभी एक डाकू कल्याणी के बच्चे को मार कर उसका मांस खाने की सलाह देता है और सभी उस तरफ देखने लगते हैं जहां कल्याणी को रखे थे। इस बीच कल्याणी मौका पाकर अपनी बच्ची को लेकर घने जंगल में बेतहाशा भागती है। अधिक थक जाने के कारण एक जगह बेहोश हो लुढक जाती है जहां से एक संन्यासी उसे उठाकर मठ में ले आता है। होश आने पर सन्यासी उसके पति के विषय में पूछता है। कल्याणी सारा हाल सुना देती है जिससे यह पता चलता है कि यह महेंद्रसिंह की पत्नी है। संन्यासी भवानंद को महेंद्रसिंह के विषय में पता करने को कहते हैं और यह भी बताते हैं कि उसकी पत्नी और बच्ची मठ में सुरक्षित है। उधर महेंद्र सिंह राजपुरुषों की सहायता से स्त्री-कन्या का पता लगवाने की सोच नगर की तरफ चल पडते हैं। हाथ में बंदूक होने के कारण रास्ते में कम्पनी का धन लेकर जा रहे सिपाहियों से इनकी झडप हो जाती है और महेंद्र को डाकू समझ सिपाही बंदी बनाकर गाडी में डाल देते है। अब आगे पढिए:- ब्रह्मचारी की आज्ञा पाकर भवानंद धीरे-धीरे हरिकीर्त्तन करते हुए उस बस्ती की तरफ चले, जहां महेंद्र का कन्या-पत्नी से वियोग हुआ था। उन्होंने विवेचन किया कि महेंद्र का पता वहीं से लगना संभव है। उस समय अंग्रेजों की बनवायी हुई आधुनिक राहें न थी। किसी भी नगर से कलकत्ते जाने के लिए मुगल-सम्राटों की बनायी राह से ही जाना पडता था। महेंद्र भी पदचिह्न से नगर जाने के लिए दक्षिण से उत्तर जा रहे थे। भवानंद ताल-पहाड से जिस बस्ती की तरफ आगे बढे, वह भी दक्षिण से उत्तर पडती थी। जाते-जाते उनका भी उन धन-रक्षक सिपाहियों से साक्षात हो गया। भवानंद भी सिपाहियों की बगल से निकले। एक तो सिपाहियों का विश्वास था कि इस खजाने को लूटने के लिए डाकू अवश्य कोशिश करेंगे, उस पर राह में एक डाकू- महेंद्र को गिरफ्तार कर चुके थे, अत: भवानंद को भी राह में पाकर उनका विश्वास हो गया कि यह भी डाकू है। अतएव तुरंत उन सबने भवानंद को भी पकड लिया। भवननंद ने मुस्करा कर कहा-ऐसा क्यों भाई? सिपाही बोला-तुम साले डाकू हो! भवानंद-देख तो रहे तो, गेरुआ कपडा पहने मैं ब्रह्मचारी हूं.... डाकू क्या मेरे जैसे होते हैं? सिपाही-बहुतेरे साले ब्रह्मचारी-संन्यासी डकैत रहते हैं। यह कहते हुए सिपाही भवानंद के गले पर धक्का दे खींच लाए। अंधकार में भवानंद की आंखों से आग निकलने लगी, लेकिन उन्होंने और कुछ न कर विनीत भाव से कहा-हुजूर! आज्ञा करो, क्या करना होगा? भवानंद की वाणी से संतुष्ट होकर सिपाही ने कहा-लो साले! सिर पर यह बोझ लादकर चलो। यह कहकर सिपाही ने भवानंद के सिर पर एक गठरी लाद दी। यह देख एक दूसरा सिपाही बोला-नहीं-नहीं भाग जाएगा। इस साले को भी वहां पहलेवाले की तरह बांधकर गाडी पर बैठा दो। इस पर भवानंद को और उत्कंठा हुई कि पहले किसे बांधा है, देखना चाहिए। यह विचार कर भवानंद ने गठरी फेंक दी और पहले सिपाही को एक थप्पड जमाया। अत: अब सिपाहियों ने उन्हें भी बांधकर गाडी पर महेंद्र की बगल में डाल दिया। भवानंद पहचान गए कि यही महेंद्रसिंह है। सिपाही फिर निश्चिंत हो कोलाहल मचाते हुए आगे बढे। गाडी का पहिया घड-घड शब्द करता हुआ घूमने लगा। भवानंद ने अतीव धीमे स्वर में, ताकि महेंद्र ही सुन सकें, कहा-महेंद्रसिंह! मैं तुम्हें पहचानता हूं। तुम्हारी सहायता करने के लिए ही यहां आया हूं। मैं कौन हूं यह भी तुम्हें सुनने की जरूरत नहीं। मैं जो कहता हूं, सावधान होकर वही करो! तुम अपने हाथ के बंधन गाडी के पहिये के ऊपर रखो। महेंद्र विस्मित हुए, फिर भी उन्होंने बिना कहे-सुने भवानंद के मतानुसार कार्य किया- अंधकार में गाडी के चक्कों की तरफ जरा खिसककर उन्होंने अपने हाथ के बंधनों को पहिये के ऊपर लगाया। थोडी ही देर में उनके हाथ के बंधन कटकर खुल गए। इस तरह बंधन से मुक्त होकर वे चुपचाप गाडी पर लेट रहे। भवानंद ने भी उसी तरह अपने को बंधनों से मुक्त किया। दोनों ही चुपचाप लेटे रहे।
बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय