जय सांई राम।।।
पूजा, नाम स्मरण, ध्यान- सब प्रेम की परछाई हैं
ध्यान से सुनो और इसे जीवन में याद रखना, सत्संग पुरुषार्थ का फल नहीं, बल्कि वह भगवत कृपा से मिलता है। यत्न से नहीं अनुग्रह से प्राप्त होता है। इंसान प्लान तो बहुत कुछ करता है लेकिन होता है वही जो ईश्वर की इच्छा होती है। आप ही वृंदावन क्यों आए, आने का कार्यक्रम तो अन्य लोगों ने भी बनाया था।
तुलसीदास जी कहते हैं कि बिनु सत्-संग विवेक न होई, राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।। हृदय की भूमि उपजाऊ है, ऊसर भूमि नहीं। और ऐसी उपजाऊ भूमि पर भगवान की वृष्टि की कृपा के कारण सत्-संग मिलता है। सत्संग ईश्वर प्राप्ति की प्राथमिक पाठशाला है। भगवान की कृपा के कारण ही तो सत्संग में आए हैं आप सब लोग।
मेरा अनुभव कहता है कि मन वहीं लगता है जहां उसे रस मिलता है। जिससे रस मिलता है, तृप्ति का अनुभव होता है उसमें मन सदा लुभाया रहता है, जिस प्रकार कमल में भ्रमर। भगवान में जब प्रेम हो जाएगा तब मन भगवान में ही लगा रहेगा। जिसका दर्शन, स्मरण, वाणी सब हमको तृप्त करे वही प्रिय होता है। जब तक मन का राग संसार में है तब तक मन का मैल मिटेगा नहीं। जब तक मन का मैल नहीं मिटेगा, मन की चंचलता नहीं मिटेगी।
विशुद्ध मन ही वासुदेव है। मन से रजोगुण और तमोगुण मिट जाए और मन सत्व से पूर्ण हो जाए तो मन की स्थिरता स्वाभाविक हो जाती है। रजोगुण से चंचलता और तमोगुण से जड़ता आती है, जो कि भजन में बाधक है। लेकिन सत्व को पाएँ कैसे, मन को वासुदेव बनाएँ कैसे?
इसीलिए भक्त जन भोर का वक्त चुनते हैं, सुबह ब्रह्मा-मुहूर्त में तब मन सतोगुणी होता है, उस पर सत्व का विशेष प्रभाव रहता है, इसलिए उस समय को भजन-साधना के लिए श्रेष्ठ माना गया है। तब मन सरलता से जप, ध्यान आदि में लग जाता है। सत्संग, कथा-श्रवण आदि से राग की दिशा बदल जाती है, जो संसार में है, वह राग भगवान में हो जाता है। प्रभु में हुआ राग, अनुराग बन जाता है। संसार और सांसारिक भोग्य पदार्थों से विराग सहज ही हो जाता है। श्रीमद्भागवत में रुक्मिणी का श्रीकृष्ण में अनुराग इसी तरह हुआ है, नारद जी से कृष्ण कथा सुनकर।
प्रीति कभी सौंदर्य में, कभी स्वभाव के औदार्य में, कभी शौर्य को देखकर, कभी स्वर-माधुर्य से प्रभावित होकर होती है। यह सब श्रीकृष्ण में ही पूर्ण और श्रेष्ठ रूप से है। इस विवेक से प्रेम श्रीकृष्ण में हो जाएगा और तब मन भगवान में ही सहज रूप से लगा रहेगा।
गोपियों का मन भगवान में नहीं लगता, नहीं वह स्थिर रहता है। लेकिन यह समस्या ही नहीं है। उनका मन श्रीकृष्ण में ही स्थिर है, क्योंकि उनका श्रीकृष्ण में अनन्य प्रेम है। गोपी का मन संसार में लगता ही नहीं। स्तेय योग से श्रीकृष्ण ने ही गोपी के मन को चुरा लिया है। गोपी तो उलटा प्रयास करती है अपने मन को श्रीकृष्ण से हटाने का, किंतु उसमें वह विफल रहती है। यही है प्रेम की महिमा।
पूजा, नाम-स्मरण, ध्यान आदि सब प्रेम की परछाई है। ऐसा मैं मानता हूं। जिसमें प्रेम होता है उसकी पूजा, सेवा के लिए हम सदा लालायित रहते हैं। जिसमें प्रेम होता है उसी के विचारों से मन भरा रहता है। बार-बार उसी प्रियतम के नामों को प्रेमपूर्वक पुकारते रहते हैं। उसी का ध्यान हमेशा रहता है जिसमें प्रेम है।
एक अभिप्राय से नाम-संकीर्तन से पापों का नाश होता है। इसलिए चाहे भाव, कुभाव, अनख, आलस कुछ भी आए, किंतु नाम जप, संकीर्तन करते रहो। पापों का नाश होगा और धीरे-धीरे प्रभु में प्रेम बढ़ता जाएगा। फिर मन सहज भगवान में स्थिर हो जाएगा।
शास्त्रों और संतों के अनुसार बताए गए उपरोक्त मार्गों, उपायों में से जो प्रकृति के अनुसार रुचे, जँचे, साधन कीजिए और जीवन को धन्य बनाइए।
ॐ सांई राम।।।