संस्कार मनुष्य को बंधन में बाँधते हैं
मनुष्य विधाता की सर्वश्रेष्ठ कृति है। मानव जीवन की श्रेष्ठता उसके कर्र्मों से है। मनुष्य के कर्म ही उसे महान बनाते हैं। संसार जिन्हें महापुरुष या देवता समझकर पूजता है उनकी श्रेष्ठता का आधार वे श्रेष्ठ कर्म हैं, जिन्होंने उन्हें विशिष्ट बनाया है। मनुष्य जिन्दगी में आकर बचपन, जवानी और बुढ़ापे के पड़ावों से होकर गुजरते हुए आहार, निद्रा शौच और मैथुन की क्रियाएँ करते हुए संतति का विस्तार करने मात्र को जीवन की सार्थकता मान लेने से बड़ी भूल कोई दूसरी नहीं हो सकती। इस तरह की जिंदगी तो एक पशु भी गुजार लेता है। तो फिर हममें और पशुओं में अंतर क्या रह जाएगा। केवल मानव योनि में जन्म लेने से कोई मानव नहीं बन जाता। उसके लिए जरूरी है हममें मानवीय गुणों का समावेश होना। प्रेम, दया, सहानुभूति, मैत्री, करुणा, दानशीलता, सहृदयता, संवेदनशीलता परोपकार, सेवा, समर्पण, त्याग, क्षमा और अक्रोध आदि कुछ ऐसे गुण हैं जो एक मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाते हैं।
मनुष्य और पशु के बीच एक प्रमुख अंतर यह है कि मनुष्य के पास संस्कृति होती है जो पशु के पास नहीं है। संस्कृति का आधार है संस्कार। संस्कार मनुष्य को बंधन में बाँधते हैं। वे कर्म के बीच अच्छे और बुरे की विभाजन रेखा खींचते हैं। मनुष्य होने के नाते हमसेयह अपेक्षा की जाती है कि हम कर्म में रत रहें यही पर्याप्त नहीं है बल्कि हमारा हर कर्म संस्कारों की कसौटी पर खरा उतरने वाला होना चाहिए।
संस्कारों की डगर इतनी सँकरी है कि उस पर चलने वाले मनुष्य के लिए टस से मस होने की बिल्कुल गुंजाइश शेष नहीं रह जाती। जहाँ संतुलन डगमगाया कि जीवन कलंकित होने का खतरा हर क्षण बना रहता है। नियम, प्रतिबंध, वर्जनाओं, संस्कार और मर्यादाओं के नाम पर मानवजीवन को जिन असंख्य बंधनों में बाँधा गया है उनमें सर्वश्रेष्ठ है 'स्व का बंधन।' कोई हमें संस्कृति का आईना दिखाए उसके पहले हम खुद होकर ही संस्कारों का पाठ पढ़ लें तो जीवन डगर और भी आसान हो जाएगी।
ये स्व का बंधन ही है जो हमें अपनी आचार संहिता खुद बनाने की प्रेरणा देता है। जहाँ आकर सारे कानून कमजोर पड़ जाते हैं और तमाम बाह्य प्रतिबंध निर्मूल साबित हो जाते हैं वहाँ कारगर साबित होता है 'स्व का बंधन।' चूँकि इसका संबंध स्व अर्थात मनुष्य के अंतःकरणके साथ होता है तो इसकी शक्ति और मजबूती का अंदाज सहज ही लगाया जा सकता है। जिस किसी चीज के साथ 'स्व' शब्द जुड़ जाता है उसकी महत्ता अपने आप ही बढ़ जाती है। फिर चाहे वह स्वदेश हो, स्वधर्म, स्वाभिमान, स्वार्थ या स्वत्वाधिकार। स्व का बंधन भी इन्हीं में से एक है।