जय सांई राम।।।
बाबा जब किसी को अपना मानते हैं, उसे गहराइयों से प्यार करते हैं, तो उसे अपना सबसे भरोसेमन्द सेवक प्रदान करते हैं और उससे कहते हैं कि तुम हमेशा मेरे प्रिय के साथ रहो, उसका दामन कभी न छोड़ो। कहीं ऐसा न हो कि हमारा प्रिय भक्त अकेला रहकर संसार की चमक-दमक से भ्रमित हो जाए, ओछे आकर्षणों की भूल-भूलैया में भटक जाए अथवा फिर सुख-भोगों की झाडियों में अटक जाए। प्रभु के इस विश्वस्त सेवक का नाम हैं - दु:ख। सचमुच वह बाबा भक्त के साथ-साथ छाया की तरह चिपका रहता है।
नि:सन्देह यह दु:ख ही ईश्वरीय अपनत्व की कसौटी हैं। ज्यों ही इसका आगमन होता हैं हमारी चेतना ईश्वरोन्मुख होने लगती हैं। दु:ख का हर पल, दिल की गहराइयों में संसार की यथार्थता-उसकी असारता एवं निस्सारता की अनुभूति कराता हैं। इन्हीं क्षणों में इस सत्य की सघन अनुभूति होती हैं कि मेरे अपने कितने पराए हैं? जिन सगे-सम्बन्धियों, मित्रों-परिजनों, कुटंबियों-रिंश्तेदारों को अपना कहने और मानने में गर्व की अनुभूति होती थी, दु:ख के सघन होते ही उनके पराएपन के रहस्य एक के बाद एक उजागर होने लगते हैं। इन्हीं पलों में ईश्वर की याद विकल करती हैं। ईश्वरीय प्रेम अंकुरित होता हैं। बाबा सांई के प्रति अपनत्व सघन होने लगता है।
प्रभु का विश्वस्त सेवक दु:ख अपने साथ न रहे तो अन्तरात्मा पर कषाय-कल्मष की परतें चढ़ती जाती हैं। `अहं´ का विषधर समूची चेतना को ही डस लेता हैं। आत्मा के प्रकाश के अभाव में प्रवर्तियों और कृत्यों में पाप और अनाचार की बाढ़ आ जाती हैं। सत् और असत् का विवेक जाता रहता हैं। जीव सघन अंधेरे और घने कुहासे में घिर जाता हैं। इन अंधेरों की मूर्छना में वह संसार के छद्मजाल को अपना समझने लगता हैं और प्रभु के शाश्वत मृदुल प्रेम को पराया। और तब प्रभु अपने प्रिय को उबारने के लिए उसे अपनाने के लिए अपने सबसे भरोसेमन्द सेवक दु:ख को उसके पास भेजते हैं।
जिनके लिए दु:ख सहना कठिन है उनके लिए बाबा को अपना बनाना भी कठिन हैं। बाबा के साथ सम्बन्ध जोड़ने का अर्थ हैं-जीवन को आर्दशों की जटिल परीक्षाओं में झोंक देना। बाबा के प्रति अपनी श्रद्धा को हर दिन नई आग में तपाते हुए उसकी आभा को नित नये ढंग से प्रदीप्त रखना पड़ता है। तभी तो बाबा को अपना बनाने वाले भक्त उनसे अनवरत दु:खों का वरदान मॉगते हैं। कुन्ती, मीरा, राबिया, तुकाराम, नानक, ईसा, बुद्ध, एमर्सन, थोरो आदि दुनिया के हर कोने में रहने वाले परमात्मा के दीवानों ने अपने जीवन में आने वाले प्रचण्ड दु:खों को प्रभु के अपनत्व की कसौटी समझकर स्वीकारा और हंसते-हंसते सहा। प्रभु ने जिनको अपनाया, जिन्होने प्रभु को अपनाया, उन सबके हृदयों से यही स्वर गूंजे हैं कि ईश्वर-भक्ति एवं आदर्शों के लिए कष्ट सहना यही दो हाथ हैं, जिन्हें जोड़कर भगवत्प्रार्थना का प्रयोजन सही अर्थों में पूरा हो पाता है।
ॐ सांई राम।।।