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Author Topic: Mahatma Gandhi  (Read 4775 times)

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Offline JR

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  • सांई की मीरा
    • Sai Baba
Mahatma Gandhi
« on: April 08, 2007, 12:29:58 AM »
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  • महात्मा गाँधी

    वैष्ण भजन तो तेने कहिये
    गाकर पीड़ा भोगी ।

    ईश्वर अल्लाह तेरे नाम,
    भजकर हुआ वियोगी ।

    कुछ कहते भारत की आत्मा,
    कुछ कहते है सन्त ।

    बापू से बन गया महात्मा,
    साबरमती का सन्त ।

    सत्य अहिंसा की मूरत वह,
    चरखा-खादी वाला ।

    आजादी के रंग में जिसने,
    जग को ही रंग डाला ।
    सबका मालिक एक - Sabka Malik Ek

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    Offline JR

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    • सांई की मीरा
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    Re: Jawahar Lal Nehru
    « Reply #1 on: April 08, 2007, 01:05:55 AM »
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  • लाल बहादुर शास्त्री

    पैदा हुआ उसी दिन,
    जिस दिन था बापू ने जन्म लिया ।

    भारत पाक युद्घ में जिसने
    तोड़ दिया दुनिया का भरम ।

    एक रहा है भारत सब दिन,
    सदा रहेगा एक ।

    युगों युगों से रहे है इसमें,
    भाषा भाव अनेक ।

    आस्था और विश्वास अनेकों,
    होते है मानव के ।

    लेकिन मानवता मानव की,
    रही सदा ही नेक ।

    कद से छोटा था लेकिन था,
    कर्म से बड़ा महान ।

    हो सकता है कौन, गुनो वह,
    संस्कृति की संतान ।
    सबका मालिक एक - Sabka Malik Ek

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    Offline Ramesh Ramnani

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      • Sai Baba
    Re: Mahatma Gandhi
    « Reply #2 on: April 08, 2007, 11:19:10 PM »
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  • जय सांई राम।।।

    धनदान नहीं, श्रमदान
     
    बात उन दिनों की है जब सेवा ग्राम आश्रम बन रहा था। गांधीजी वहां अकेले झोपड़ी डाल कर रहते थे, बाकी लोग रोजाना वर्धा से पांच मील पैदल चल कर आते-जाते थे। वहां जाने का रास्ता बहुत खराब था। ऊबड़-खाबड़ और ऊंचा-नीचा। एक दिन कुछ लोग गांधीजी से बोले, 'बापू, यदि आप एक चिट्ठी प्रशासन को लिख दें तो यहां का रास्ता ठीक हो जाएगा।' गांधीजी बोले, 'यह काम मैं नहीं करूंगा।' कुछ देर बाद फिर बोले, 'यहां का रास्ता बगैर प्रशासन की मदद के भी ठीक हो सकता है।'

    'वह कैसे' किसी ने पूछा। गांधीजी बोले, 'श्रमदान करने से। कल से सभी लोग वर्धा से आते समय इधर-उधर बिखरे पड़े दो-दो पत्थर उठा कर लेते आएं और रास्ते में बिछाते जाएं।' अगले दिन से यह काम शुरू हो गया। लोगबाग पत्थरों को बिछाते और गांधीजी उसे समतल करते। गांधीजी के प्रशंसकों में बृजकृष्ण चांदीवाल भी थे। उनका शरीर बहुत भारी-भरकम था। एक दिन वह भी आश्रम देखने वर्धा पहुंच गए। उन्हें मालूम हुआ कि सेवा ग्राम तक पांच मील का सफर ऊबड़-खाबड़ रास्ते से पैदल ही करना होगा तो उनको पसीना आ गया। किसी तरह वे आश्रम तक पहुंचे। गांधीजी ने उन्हें आदरपूर्वक बैठाया। चांदीवालजी झुंझला कर बोले, 'मेरा स्वागत करना छोड़ो। पहले यह बताओ कि क्या दो-दो पत्थरों से रास्ता बन जाएगा। यदि आप प्रशासन से काम नहीं करवा सकते तो बताइए इस काम के लिए आपको कितना धन चाहिए। उसे मैं दूंगा।'

    गांधीजी मुस्करा कर बोले, 'अरे भाई, गुस्सा क्यों करते हो। मुझे आपके दान की जरूरत तो है, लेकिन धनदान की नहीं श्रमदान की। आप तो जानते ही हैं कि बूंद-बूंद से समुद भर जाता है। आइए, आप भी हमारे साथ इस काम में लग जाइए। इसके तीन फायदे होंगे। आश्रम ठीक होगा, आप का धन बचेगा और आप की तोंद पिचक कर अंदर चली जाएगी, जिससे आप हमेशा के लिए निरोग हो जाएंगे।' गांधीजी का इतना कहना था कि चांदीवालजी का गुस्सा शांत हो गया।

    अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

    सांई राम।।।
    अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

    Offline Ramesh Ramnani

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    Re: Mahatma Gandhi
    « Reply #3 on: April 27, 2007, 12:51:39 AM »
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  • जय सांई राम।।।

    यह घटना उस समय की है जब गांधी जी ने अहमदाबाद में कोचरब में एक आश्रम खोला। उस आश्रम में एक हरिजन परिवार रहने के लिए आ गया। यह उन लोगों को अच्छा नहीं लगा जो आश्रम को आर्थिक सहयोग प्रदान कर रहे थे। गांधी जी के समतावादी दृष्टिकोण के आगे वैसे तो वे मौन रहे, लेकिन उन्होंने आर्थिक सहयोग देना बंद कर दिया। उन्हें लगता था कि पैसे का संकट आने से खुद ब खुद लोग उस परिवार को बाहर कर देंगे।

    आर्थिक सहयोग की कमी से आश्रम के संचालन में अवरोध तो उपस्थित हुआ पर गांधी जी विचलित नहीं हुए। वे अपने सिद्धांतों से कोई समझौता नहीं करना चाहते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि कुछ ही दिनों बाद प्रात:काल कोई अजनबी अपना परिचय न देकर गांधीजी के चरणों में हजारों रुपये भेंट कर गया जिससे आश्रम सफलतापूर्वक जनसेवा के लिए निर्बाध गति से चलने लगा।

    अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

    ॐ सांई राम।।।
    अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

    Offline Ramesh Ramnani

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    Re: Mahatma Gandhi
    « Reply #4 on: May 14, 2007, 05:29:48 AM »
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  • जय सांई राम।।।

    बुरी आदत से छुटकारा
     
    बात उन दिनों की है जब आचार्य विनोबा भावे पवनार आश्रम में चिंतन, मनन एवं लेखन के कार्यों में व्यस्त थे। उनसे मिलने तरह-तरह के लोग आते और अपनी समस्याओं का बयान करते। विनोबा जी उन्हें कोई न कोई रास्ता जरूर बताते थे। एक दिन एक शराबी उनके पास आया और बोला, 'बाबा! मैं शराब के नशे में जकड़ा हुआ हूं। इसके कारण न केवल मेरा व्यक्तिगत जीवन, बल्कि मेरा पूरा परिवार तबाह हो रहा है। मैं शराब से मुक्ति चाहता हूं। आप कोई मार्ग बताए।'

    विनोबा जी ने कहा, 'जब तुम शराब से मुक्ति चाहते हो तो शराब छोड़ दो।' उस व्यक्ति ने कहा, 'क्या करूं, बहुत कोशिश की पर छूटती ही नहीं है बाबा। आप ही कोई तरकीब बताएं।' विनोबा जी कुछ क्षण शांत रह कर सोचने लगे फिर बोले, 'कल शाम को चार बजे मेरी कुटिया में आना। आकर मुझे बाहर से पुकारना, शायद कोई तरकीब निकल जाए।'

    वह व्यक्ति नियत समय पर आश्रम पहुंचा और विनोबा जी की कुटिया के बाहर उनका नाम लेकर पुकारने लगा। विनोबा जी कुटिया के भीतर से ही चिल्लाए, 'मैं बाहर कैसे आऊं। यह खंभा मुझे जकड़े हुए हैं।' शराबी व्यक्ति ने सोचा भला खंभा विनोबा जी को कै से जकड़ सकता है। उसने अंदर झांका तो देखा कि विनोबा जी स्वयं ही खंभे को जकड़े हुए थे। शराबी मुस्कराकर बोला- 'बाबा! खंभा आपको जकड़े हुए है या आप खंभे को जकड़े हुए हो।'

    यह सुनते ही विनोबा जी ने ठहाका लगाकर कहा, 'जो हाल मेरा है, वही हाल तुम्हारा भी है। तुम भी शराब को नहीं छोड़ना चाहते और कहते हो कि शराब छूटती नहीं। जब तक तुम्हारी स्वयं की इच्छा शक्ति जाग्रत नहीं होगी तब तक कोई रास्ता नहीं निकलेगा। जैसे मैं खंभे को जकड़े हुए हूं वैसे ही शराब तुमको जकड़े हुए रहेगी।'

    ' धन्य हो बाबा। मैंने तो इस तरह से सोचा ही नहीं था। अब मैं इसे छोड़कर रहूंगा।' इसके बाद उस व्यक्ति ने कभी शराब को हाथ नहीं लगाया।
     
    अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

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    Offline Ramesh Ramnani

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    Re: Mahatma Gandhi
    « Reply #5 on: June 05, 2007, 01:04:29 AM »
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  • जय सांई राम।।।

    'मैं धरती के माध्यम से ही ईश्वर को महसूस करता हूं'  

    नवंबर 1924 में 'यंग इंडिया' पत्रिका में गांधीजी ने लिखा था, क्या सूर्यास्त या रात को तारों के बीच चमकते आधे चाँद में कोई सत्य है? हां, बिल्कुल है। ये सौंदर्य सच्चे हैं। ये सच्चे हैं क्योंकि ये मुझे उस रचयिता की याद दिलाते हैं जो इन सबके पीछे है। जब मैं सूर्यास्त की प्रशंसा करता हूं या चांद की खूबसूरती को निहारता हूं तब उनके रचयिता को पूजते हुए मेरी आत्मा विस्तृत हो जाती है। मैं इन सभी रचनाओं में उसे और उसकी दया को देखने का प्रयास करता हूं।

    अध्यात्म और प्रकृति का परस्पर गहरा संबंध है। आध्यात्मिक चिंतन मनुष्य को प्रकृति के साथ सहयोगपूर्वक जीने की ही राह बताता है। ग्लोबल वॉर्मिंग की स्थितियां मनुष्य की अंदरूनी कमजोरियों - लालच, विलास, आधिपत्य और अनियंत्रित महत्वाकांक्षाओं के कारण पैदा हुई हैं। इस समस्या का निदान भी प्राकृतिक जीवन शैली अपनाने और हमारे प्रकृति प्रेम में ही है।

    गांधी हमेशा मनुष्य के आध्यात्मिक विकास पर बल देते थे और यह भी कहते थे कि प्रकृति से नाता जोड़े बिना यह विकास नहीं हो सकता। मीरा बहन के नाम भेजे अपने एक पत्र में उन्होंने लिखा, 'धरती पर झुकते हुए हमें सीखना चाहिए कि हम भी धरती की तरह विनम्र बनें। ईश्वर हर जगह है। यदि धरती नहीं तो हम भी नहीं। मैं ईश्वर को धरती के माध्यम से ही महसूस करता हूं। और धरती पर झुकते हुए मैं ईश्वर का अपने ऊपर कर्ज महसूस करता हूं। अगर मैं वास्तव में धरती की संतान हूं और वास्तव में उसे अपनी माँ समझता हूँ तो मुझे अपने को भी धूल के बराबर समझना चाहिए और छोटे से छोटे इंसान से नजदीकी संबंध बनाने में, प्राणी जगत के सबसे छोटे रूप से भी अंतरंग संबंध कायम करने में मुझे प्रसन्नता होनी चाहिए। मुझे समझना चाहिए कि उन सब की आत्मा भी मेरी आत्मा की ही तरह है। उस प्राणी के भाग्य की ही तरह, मेरा भी भाग्य होगा एक दिन इस मिट्टी में मिल जाना।'

    धरती पर पाए जाने वाले असंख्य किस्म के प्राणियों में से मनुष्य मात्र एक प्राणी है। यह धरती केवल मनुष्य की नहीं, बल्कि सभी जीवों की है। अपनी इस सीमित स्थिति का आभास करने पर मनुष्य लालच, अहंकार व आधिपत्य की प्रवृत्ति पर नियंत्रण रख सकता है। गांधी के इन विचारों में ही वास्तव में आज के पर्यावरण विनाश व जलवायु परिवर्तन की समस्या का हल छिपा है। मनुष्य और अन्य जीवों का सहअस्तित्व प्राकृतिक संतुलन को तभी कायम रख पाएगा, जब मनुष्य की मूल प्रवृत्ति अहिंसक होगी। अपने अहंकार पर नियंत्रण हो जाने पर मनुष्य का प्रकृति के साथ संबंध आधिपत्य का नहीं रहेगा, वह प्रकृति को अपना गुलाम नहीं बनाना चाहेगा।

    जरूरत और लालच के बीच में सीमा रेखा खींचना जरूरी है। प्रकृति के पास मनुष्य की जरूरतें पूरी करने के लिए तो पर्याप्त संसाधन है, परंतु उसकी लालच पूरी करने के लिए नहीं है। गांधी ने लिखा कि 'यह प्रकृति का एक बुनियादी नियम है कि वह रोज केवल उतना ही पैदा करती है, जितना हमें चाहिए। और यदि हर इंसान जितना उसे चाहिए उतना ही ले, ज्यादा न ले, तो दुनिया में गरीबी न रहे और कोई व्यक्ति भूखा न मरे।'

    गांधी जीवन की सादगी को सिर्फ प्रकृति से ही नहीं, मनुष्य के हृदय की सरलता सेभी जोड़ते थे। ऐसे शुद्ध-सरल हृदय में ही सच्चा प्रेम उपजता है। सभी प्राणियों के प्रति प्रेम भाव मनुष्य को सत्य का अहसास कराता है। सत्य ही ईश्वर है। प्रकृति के सौन्दर्य में सत्य और ईश्वर की मौजूदगी महसूस की जा सकती है। सितम्बर 1946 के 'हरिजन' में उन्होंने लिखा था... 'ऐसी दुनिया में ... जिसमें सर्वत्र वैभव-विलास का ही वातावरण नजर आता है, सादा जीवन जीना सम्भव है या नहीं - यह ऐसा सवाल है जो व्यक्ति के मन में अवश्य उठ सकता है। लेकिन यदि सादा जीवन जीने योग्य है, तो यह प्रयत्न भी करने योग्य है -चाहे वह किसी एक ही व्यक्ति या किसी एक ही समुदाय द्वारा क्यों न किया जाए।'
     
    अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांई

    ॐ सांई राम।।।
    अपना साँई प्यारा साँई सबसे न्यारा अपना साँई - रमेश रमनानी

     


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