जय सांई राम।।।
'मैं धरती के माध्यम से ही ईश्वर को महसूस करता हूं'
नवंबर 1924 में 'यंग इंडिया' पत्रिका में गांधीजी ने लिखा था, क्या सूर्यास्त या रात को तारों के बीच चमकते आधे चाँद में कोई सत्य है? हां, बिल्कुल है। ये सौंदर्य सच्चे हैं। ये सच्चे हैं क्योंकि ये मुझे उस रचयिता की याद दिलाते हैं जो इन सबके पीछे है। जब मैं सूर्यास्त की प्रशंसा करता हूं या चांद की खूबसूरती को निहारता हूं तब उनके रचयिता को पूजते हुए मेरी आत्मा विस्तृत हो जाती है। मैं इन सभी रचनाओं में उसे और उसकी दया को देखने का प्रयास करता हूं।
अध्यात्म और प्रकृति का परस्पर गहरा संबंध है। आध्यात्मिक चिंतन मनुष्य को प्रकृति के साथ सहयोगपूर्वक जीने की ही राह बताता है। ग्लोबल वॉर्मिंग की स्थितियां मनुष्य की अंदरूनी कमजोरियों - लालच, विलास, आधिपत्य और अनियंत्रित महत्वाकांक्षाओं के कारण पैदा हुई हैं। इस समस्या का निदान भी प्राकृतिक जीवन शैली अपनाने और हमारे प्रकृति प्रेम में ही है।
गांधी हमेशा मनुष्य के आध्यात्मिक विकास पर बल देते थे और यह भी कहते थे कि प्रकृति से नाता जोड़े बिना यह विकास नहीं हो सकता। मीरा बहन के नाम भेजे अपने एक पत्र में उन्होंने लिखा, 'धरती पर झुकते हुए हमें सीखना चाहिए कि हम भी धरती की तरह विनम्र बनें। ईश्वर हर जगह है। यदि धरती नहीं तो हम भी नहीं। मैं ईश्वर को धरती के माध्यम से ही महसूस करता हूं। और धरती पर झुकते हुए मैं ईश्वर का अपने ऊपर कर्ज महसूस करता हूं। अगर मैं वास्तव में धरती की संतान हूं और वास्तव में उसे अपनी माँ समझता हूँ तो मुझे अपने को भी धूल के बराबर समझना चाहिए और छोटे से छोटे इंसान से नजदीकी संबंध बनाने में, प्राणी जगत के सबसे छोटे रूप से भी अंतरंग संबंध कायम करने में मुझे प्रसन्नता होनी चाहिए। मुझे समझना चाहिए कि उन सब की आत्मा भी मेरी आत्मा की ही तरह है। उस प्राणी के भाग्य की ही तरह, मेरा भी भाग्य होगा एक दिन इस मिट्टी में मिल जाना।'
धरती पर पाए जाने वाले असंख्य किस्म के प्राणियों में से मनुष्य मात्र एक प्राणी है। यह धरती केवल मनुष्य की नहीं, बल्कि सभी जीवों की है। अपनी इस सीमित स्थिति का आभास करने पर मनुष्य लालच, अहंकार व आधिपत्य की प्रवृत्ति पर नियंत्रण रख सकता है। गांधी के इन विचारों में ही वास्तव में आज के पर्यावरण विनाश व जलवायु परिवर्तन की समस्या का हल छिपा है। मनुष्य और अन्य जीवों का सहअस्तित्व प्राकृतिक संतुलन को तभी कायम रख पाएगा, जब मनुष्य की मूल प्रवृत्ति अहिंसक होगी। अपने अहंकार पर नियंत्रण हो जाने पर मनुष्य का प्रकृति के साथ संबंध आधिपत्य का नहीं रहेगा, वह प्रकृति को अपना गुलाम नहीं बनाना चाहेगा।
जरूरत और लालच के बीच में सीमा रेखा खींचना जरूरी है। प्रकृति के पास मनुष्य की जरूरतें पूरी करने के लिए तो पर्याप्त संसाधन है, परंतु उसकी लालच पूरी करने के लिए नहीं है। गांधी ने लिखा कि 'यह प्रकृति का एक बुनियादी नियम है कि वह रोज केवल उतना ही पैदा करती है, जितना हमें चाहिए। और यदि हर इंसान जितना उसे चाहिए उतना ही ले, ज्यादा न ले, तो दुनिया में गरीबी न रहे और कोई व्यक्ति भूखा न मरे।'
गांधी जीवन की सादगी को सिर्फ प्रकृति से ही नहीं, मनुष्य के हृदय की सरलता सेभी जोड़ते थे। ऐसे शुद्ध-सरल हृदय में ही सच्चा प्रेम उपजता है। सभी प्राणियों के प्रति प्रेम भाव मनुष्य को सत्य का अहसास कराता है। सत्य ही ईश्वर है। प्रकृति के सौन्दर्य में सत्य और ईश्वर की मौजूदगी महसूस की जा सकती है। सितम्बर 1946 के 'हरिजन' में उन्होंने लिखा था... 'ऐसी दुनिया में ... जिसमें सर्वत्र वैभव-विलास का ही वातावरण नजर आता है, सादा जीवन जीना सम्भव है या नहीं - यह ऐसा सवाल है जो व्यक्ति के मन में अवश्य उठ सकता है। लेकिन यदि सादा जीवन जीने योग्य है, तो यह प्रयत्न भी करने योग्य है -चाहे वह किसी एक ही व्यक्ति या किसी एक ही समुदाय द्वारा क्यों न किया जाए।'
ॐ सांई राम।।।