देवीपुर गाँव में शिवदास नामक एक गृहस्थी रहा करता था । वह हर दिन अन्न दान किया करता था । एक दिन रात के समय एक बूढ़ी ने उसके घर का दरवाजा खटखटाया । शिवदास की पत्नी ने दरवाजा खोला और पूछा, क्या चाहिये ।
बूढ़ी ने कहा, मैं तुम्हारे लिये नहीं आयी हूँ । अपने पति को बुलाना । शिवदास ने बूढ़ी की आवाज सुनी और बाहर आया । उसने बूढ़ी को प्रणाम करते हुए पूछा, माँ, तुम्हें क्या चाहिये ।
तुम्हारे घर कोई थोड़े ही आता है । भोजन करने आयी हूँ । बूढ़ी ने कहा ।
बहुत प्रसन्न हुआ । अंदर आना माँ, शिवदास ने उसे अन्दर आने के लिये बुलाया ।
अगर तुम चाहते हो कि मैं भोजन करूँ तो तुम्हें एक वचन देना होगा, बूढ़ी ने कहा । शिवदास ने पूछा, कहो माँ मैं क्या करुँ ।
मैं बहुत तकलीफों में हूँ । जब तक मन में पीड़ा है, तब तक मैं भोजन नहीं कर सकती । मेरी तकलीफों को तुम अगर अपना लोगे तो मैं सहर्ष भोजन कर सकूँगी । बूढ़ी ने कहा ।
शिवदास ने फोरन कहा, इसी क्षण से मैं तुम्हारी तकलीफें अपना रहा हूँ । अंदर आना और भोजन करना माँ ।
उसकी इन बातों पर बेहद खुश होते हुए बूढ़ी ने काह, तुम्हारे वचन से मैं बहुत खुश हुई । कितने लोग ऐसे होंगे, जो दूसरोंके कष्टों को अपनाते होंगे । अवश्य ही मैं तुम्हारा आतिथ्य स्वीकार करुँगी । परन्तु हाँ मैं अन्दर नहीं आऊँगी । घर मेरे लिये तंग होगा । यहीं रहूँगी । जाओ और भोजन यहीं ले आना । एक और बात आज रोटी खाने की मेरी इच्छा हो रही है । हों तो ज्वार की रोटियाँ ले आना ।
हाँ माँ कहते हुए शिवदास अंदर गया और पत्नी से ज्वार की रोटियाँ बनवाकर ले आया । बाहर आये शिवदास को वह बूढ़ी वहाँ दिखायी नहीं पड़ी । जहाँ वह बैठी थी, वहाँ अन्नपूर्णेश्वरी देवी की प्रतिमा थी । उस प्रतिमा के ऊपर नागसर्प फन फैलाये हुआ था ।
शिवदास जान गया कि वह बूढ़ी कोई और नहीं, साक्षात् अन्नपूर्णेश्वरी देवी ही है । उसके आनन्द की सीमा नहीं रही । यह समाचार गाँव भर में आग की तरह फैल गया लोगों की भीड़ लग गयी और वे देवी के दर्शन करने आने लगे ।
तीन महीनों के अंदर ही उस गाँव में एक सुन्दर मन्दिर का निर्माण कराया गया और देवी की प्रतिमा उसमें प्रतिष्ठापित की गयी । जो भक्त देवी के दर्शन करने आते थे, गाँव की प्रजा उनका आतिथ्य करती थी । वे यह कहते हुए रोटियाँ बाँटते थे हम आपके कष्टों को अपना रहे है । आपका शुभ हो ।
तब से लेकर उस गाँव में हर साल रोटियों का त्योहार मनाया जाने लगा । जो ये रोटियाँ खाते थे, उनकी समस्याएँ हल हो जाती थी और उनके मन को शांति प्राप्त होती थी । इन स्वादिष्ट रोटियों की रुचि निराली होती थी । कहा जाने लगा कि राजा के रसोई-घर में भी ऐसी रोटियाँ नहीं बनती ।
राजा को भी इसका समाचार मिला । राजा को इस पर आर्श्चय हुआ और उन्होंने अपने प्रधान रसोइयो को बुलवाकर कहा, देवीपुर की रोटियों को इतनी प्रसिद्घी कैसे मिली । एक बार वहाँ जाना और देखना कि वे ये रोटियाँ कैसे बनाते है ।
प्रभु रोटियों का स्वाद बनाने से नहीं आता । उन्हें जो बनवाते है और खिलाते है, उनका महान गुण इस स्वाद का रहस्य है । साथ ही जो खाते है, उनकी चाहेंअच्छी हों तो ये रोटियाँ और स्वादिष्ट लगती है, रसोइयो ने कहा ।
राजा ने आश्चर्य से पूछा, तुम्हारे कहने का क्या मतलब है ।
मेरे बचपन में इससे सम्बन्धित एक घटना घटी । कृपया सुनिये । रसोइये ने फिर वह घटना यों बतायी ।
मंगापुर, देवीपुर के बगल का ही गाँव है । मैं उसी गाँव का हूँ । उस गाँ में शांतन नामक एक चोर रहा करता था । चोरियाँ करते हुए वह जिन्दगी गुजारता था । पर उसकी पत्नी गौरी उससे बार बार कहा करती थी, कब तक चोरियाँ करते रहोगे । मुझे तो हमेशा इस बात का डर लगा रहता है कि किसी क्षण तुम आपत में फंस जाओगे । चोरी छोड़ो और मेहनत करके कमाओ, जो है, उसी में खुश रहेंगे ।
शांतन को मालूम था कि गौरी उसे बहुत चाहती है । कुछ दिनों के बाद इस विषय को लेकर वह सोचने भी लगा । तभी उसे मालूम हुआ कि देवीपुर में जाकर रोटियाँ खाने पर मन की मुराद पूरी होगी । उसने निश्चय किया कि एकबड़ी चोरी करके फिर चोरी करना छोड़ दूँगा ।
वह उसी दिन देवीपुर जाने के लिये निकल पड़ा । रास्ते में लोगों से उसने देवीपुर की रोटियों की प्रशंसा सुनी तो उसके मुँह में पानी भर आया । उसने मन ही मन सोचा, आज मेरी मनोकामना पूरी होगी । स्वादिष्ठ रोटियाँ भी खाऊँगा और चोरी करके बहुत-सा धन भी पाऊँगा ।
जैसे ही वह देवीपुर पहुँचा, सामने से आता रामदास नामक एक गृहस्थी ने उसका स्वागत करते हुआ कहा, आज मेरे घर आकर मेरा आतिथ्य स्वीकार करिये । वह उसे अपने घर ले गया, उसका स्वागत-सत्कार किया और कहा, आपकी सभी तकलीफों को मैं अपनाना चाहता हूँ । आपका शुभ होगा । फिर उसने उसे रोटियाँ खिलायीं ।
शांतन मुँह में रोटी रखते ही स्तंभित रह गया क्योंकि वह बहुत कड़वी थी । रामदास को यह मालूम नहीं था, इसलिये उसने कहा रोटी स्वादिष्ठ है न । सब अन्नपूर्णेश्वरी देवी की महमा है । शांतन रोटी को निगल भी नहीं पाता था । पर करे क्या । उसने बाकी रोटियों की गठरी बांध ली और वहाँ से निकल पड़ा ।
भले ही रोटी रुचिकर न हो, पर रामदास का आर्शीवाद फलीभूत हो । शुभ हो । यही सोचकर शांतन ने उस रात को एक धनवान के घर में चोरी करने का प्रयत्न किया । वह पकड़ा गया और धनिक के नौकरों ने उसे खूब पीटकर छोड़ दिया । दर्द के मारे कराहता हुआ वह घर लौटा । उसकी हालत देखकर गौरी भाँप गयी और उसने कहा कितनी बार कह चुकी हूँ । देख लिया ना, । आखिर वही हुआ, जिसका मुझे डर था । जो होना था, हो गया । वह देवीपुर जाकर रोटी ले आयी । सब अच्छा हो, शुभ हो, यही प्रार्थना करती हुई उसने दो रोटियाँ उसे दी ।
मैं खुद देवीपुर गया और वहां रोटियाँ खायी । वे तो बहुत कड़वी थी । मुझसे खाया नहीं गया । दर्द भरे स्वर में शांतन ने कहा ।
जो रोटियाँ हम सबको स्वादिष्ट लगती है, वे तुम्हीं को क्यो कड़वी लग रही है । इसका यह मतलब हुआ कि देवी तुम्हारी दुर्बुद्घि जान गई । अब मेरी बात ध्यान से सुनो । तुम चोरियाँ करना नहीं छोड़ोगे तो मैं आत्महत्या कर लूँगी । गौरी ने आँसू बहाते हुए कहा ।
ऐसा मत करना गौरी । आगे से चोरी नहीं करुँगा । फिर उसने कसम भी खायी, पर उसमें यह संदेह जगा कि जो रोटियाँ सबको स्वादिष्ट लगती है, केवल उसी को क्यों कड़वी लग रही है । उसने यह बात गौरी को बतायी । तब गौरी ने उससे कहा, इस पूरे साल भर चोरियाँ मत करना । एक अच्छे आदमी की तरह जिन्दगी बिताना । फिर देखना, देवी की रोटियाँ कितनी स्वादिष्ट होती है ।
उस दिन से शांतन मजदूरी करने लगा । कभी-कभी चोरी करने की उसकी इच्छा होती थी, पर बड़ी कोशिश करके अपन को वह नियंत्रण में रखता था । एक साल के बाद पत्नी सहित वह देवीपुर गया और रोटियों के त्यौहार में भाग लिया । एक रोटी उसने मुँह में जब डाली, वह उसे बड़ी ही रुचिकर लगी । उसकी आँखों में आँसू उम़ आये । वह देवी के मंदिर में गया और हाथ जोड़ते हुए कहा, क्षमा करना माँ, अब मैं कभी भी चोरी नहीं करुँगा ।
पति में जो परिवर्तन आया, उससे गौरी बहुत खुश हुई । दो ही सालों के अंदर उन्होंने खेत भी खरीद लिया और अब वे आराम से जिन्दगी गुजारने लगे ।
शांतन की कहानी सुनते ही राजा ने ठान लिया कि देवीपुर जाकर अन्नपूर्णेश्वरी देवी के दर्शन करुँगा । राजा परिवार सहित वहाँ गये और देवी से प्रार्थना की, आर्शीवाद माँगा कि उसकी प्रजा सुखी हो, उन्हें किसी बात की कमी न हो । मंदिर से बाहर आते ही एक गरीब किसान ने उन्हें रोटियाँ दी । उन्हें खाकर राजा मुग्ध रह गये । दूसरों के कष्टों को अपनाने वाली, स्वीकार करने वाली देवीपुर की प्रजा को कोई कष्ट न पहुँचे इसके लिये उन्होंने आवश्यक प्रबन्ध भी किये ।