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Author Topic: “कलमा-ए-सच्चरित”  (Read 3493 times)

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Offline abhinav

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“कलमा-ए-सच्चरित”
« on: September 24, 2007, 01:55:29 PM »
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  •                                 "बाबा से इल्तजा"


    हज़रत-ए-साँई तेरे दरबार में,           (हज़रत= आदरणिय)
    इल्तजा फरमाता हूँ-                    (इल्तजा= प्रार्थना)
    शान-ए-बिलायत पर तेरी,               (शान-ए-बिलायत पर =सम्मान में)
    लिखना मैं कलमा चाहता हूँ।

    पर रहती नहीं उर्दू-अदब,
    मेरी ज़ुबान में।
    और आते नही उर्दू के,
    अल्फ़ाज़ दिमाग में।                (अल्फ़ाज़=शब्द)

    अब तुम ही मुझको राह दिखाओ,
    साँई-पाक करम फ़रमाओ।
    हाथ मेरे, कलम मेरी,
    पर हाथ पकडकर तुम लिखवाओ।







    बाबा की कृपा से मैं जो कलमा लिख सका वो इस प्रकार है-


                                      “कलमा-ए-सच्चरित”


    तडपती रुहों पर जब,
    खुदा ने इनायत फ़रमाई।                (इनायत= अहसान)
    अल्लहा ने ज़मी पर जन्नत बसाई-            (जन्नत = स्वर्ग)
    है वो शिर्डी - जहाँ रहते थे साँई।

    उसी साँई का तुमको, 
    सुनाता हूँ किस्सा, 
    खुद अल्लहा भी सजदा, 
    करता था जिसका।

    अल्ल्हा के नूर से रोशन,                        (नूर =तेज)
    उनकी जिन्दगानी अजीब है।
    उस मुस्लमान्-ब्राह्मण की,
    कहानी अजीब है।

    सोलह बरस की उम्र का,
    वो पिसर कमाल था।      (पिसर=बच्चा,लडका,बेटा){यहाँ इसका अर्थ "लडका" समझें}
    जो चेहरे पे रोशन था उसके,
    वो नूर धमाल था।                    (नूर=तेज)


    फाका-कशी का उसको,                        (फाका-कशी= भूखे रहना)
    ना कोई मलाल था।                      (मलाल= दुःख होना)
    मजहबों की सरहदों का भी,                  (मजहब=धर्म,सरहदें=सीमाएं)
    ना उसको ख्याल था।
     

    ना वालिद की खैर थी,                      (वालिद=पिता)
    ना वालिदा का था पता।                (वालिदा=माता)
    समझा कोई फ़कीर तो,
    किसी को वली लगा।              (वली=अल्लहा/इश्वर से जुडा मनुष्य, ब्रह्म-ज्ञानी)





    इक रोज शिर्डी का हर जर्रा,
    रंज़-ओ-अलम से हिला।               (रंज़-ओ-अलम =भयंकर दुःख)
    न वो फ़कीर मिला,
    न उसका पता मिला।

    चाँदपाटिल की जंगल से,
    जब हुई रवानगी।                    (रवानगी= जाना)
    इक अजीब से फ़कीर पे,   
    उसे हो आयी दिवानगी।

    क्योंकि फ़कीर ने चाँद की, 
    घोडी थी दिलाई।
    और बिना माचिस के ही उसने, 
    अपनी चिलम थी जलाई।

    रहने लगा फ़कीर,
    उसी चाँद के साथ में।
    आ गया फिरदौस-ए-जमीं को,    (फिरदौस-ए-जमीं =धरती का स्वर्ग अथार्त "शिर्डी")
    सँग उसके बारात में।
     
    महालसापती ने बारात की,
    अहतरामगी खूब की।                 (अहतरामगी=स्वागत-सतकार)
    उस फ़कीर को देखके, 
    उनके दिलने अवाज दी-

    जो उनकी ज़ुबाँ पर सजे,
    वो अल्फज़, ये थे मेरे भाई-              (अल्फाज़= शब्द)
    महालसापती बोले के-
    आओ मेरे "साँई"|
     
    तभी से आपको रुतबा,
    हज़रत-ए-साँई का मिल गया।        (हज़रत= आदरणिय)
    ये अल्लहा का फूल था जो, 
    शिर्डी में खिल गया।

    जब बारात की शिर्डी से,
    हो गयी रवानगी।                (रवानगी= विदा होना)
    आप रुके शिर्डी में ही,
    करी मस्जिद से दिवानगी।

    द्वरिकामाई मे ही आपने, 
    डेरा जमा लिया। 
    शिर्डी को ही आपने, 
    "पाक-मदीना" बना दिया। 
     
    गीता के श्लोकों को,   
    कुरान की आयत से मिला दिया।
    फासला मज़हबों का,                              (मज़हब=धर्म)
    सबके दिलों से मिटा दिया।

    "अल्लहा-मालिक" कहते-कहते, 
    "राम-भजन" गाते थे आप। 
    हिन्दू को भगवान और, 
    मुस्लिम को नबी नजर आते थे आप।        (नबी= मुसलमानों के देवता)

    हजरत-ए-साँई पाक ने,                          (हजरत=आदरणिय,पाक= पवित्र)
    ऐसे लंगर भी लुटया- 
    खुद तो फाके से रहे और,                       (फाके= भूखे रहना)
    दूजों को खाना खिलाया।

    आपके दरबार का, 
    जलवा भी अजीब था- 
    कुत्ते-बिल्ली को भी आपकी थाली से, 
    लंगर नसीब था।

    आपकी मश्हूरियों के वाक्यां,                (मश्हूरियां=प्रसिद्धी,वाक्यां=किस्से)
    लगते अजीब हैं।
    पानी से रोशन चिराग,                      (चिराग=दीपक)
    सबके दिल के करीब हैं।
     
    तख्ते पे आपका,
    आराम फरमाना मशहूर है।            ( आराम फरमाना =अराम करना)
    चोलकर को शक्कर की चाय, 
    पिलवाना मशहूर है।


    हर मर्ज़ की दवा,                          (मर्ज़=बिमारी)
    आपकी करामाती राख थी।          (करामाती=चमत्कारी,   राख=उदी)
    अपने  हर सवाली पे आपकी,
    रहमत की आँख थी।

    नीम को भी आपने,
    कडवाहट भुला दी।
    एक कोढी को चादर से ही,
    दवा-ए-मर्ज़ पिला दी।       {दवा-ए-मर्ज़ =(कोढ के) बिमारी की दवा}


    शामा पर चढे जहर का,
    असर मिटा दिया।
    आपने ही दाभोलकर को,
    "हेमाडपन्त" बना दिया।

    शिन्दे के कोढ की आपने,
    परवाह नही की।
    जले हुए हाथ की,
    और कोई दवा नही की।


    जो मेघा को था आपसे,
    वो इश्क कमाल था।                      (इश्क =प्रेम)
    जिनके इन्तकाल पे,                          (इन्तकाल=मॄत्यु)
    खुद आपको मलाल था।                   (मलाल=दुःख)


    आपने उठया काँधे पे,
    उनके जनाजे का भार था।                  (जनाजा=अर्थी)
    और आपने पहनाया उन्हे,
    अपने अश्कों का हार था।                    (अश्कों= आँसूओं)

    औरंगाबादकर को आपने,
    औलाद से नवाजा।                          (औलाद=संतान)
    हर जरुरतमन्द के लिए आपका,
    खुला रहता था दरवाजा।

    यूँ तो दशहरे को आप,
    पर्दा-नशीं हुए।                                   (पर्दा-नशीं हुए= शरीर त्याग दिया)
    पर अकीकतमन्दों को आज भी नजर आते हैं- (अकीकतमन्द= भक्त/चाहने वाले)
    पीर-ए-मुर्शीद बने हुए।                          (पीर-ए-मुर्शीद =जीवित गुरु)

    आपके दरबार से कोई,
    कभी खाली नही जाता।
    आपकी मज़ार ने ब-खूब,                     (मज़ार =समाधी)
    तामील किया है ये वादा।           (तामील किया है  = निभाया है,   वादा=वचन)
     
    ऐसे साँई पाक को मैं,
    सलाम नज़र करता हूँ।              (सलाम नज़र करता हूँ=प्रणाम करता हूँ)
    आपकी "रहम-नज़र" की ख्वाहिश में, 
    अपनी जिन्दगी गुजर करता हूँ।        (जिन्दगी गुजर करता हूँ=जीवन बिताना)

    आपसे तालीम की हसरत है मुझको,       (तालीम=शिक्षा,   हसरत= इच्छा/चाह)
    "पाक-कदमों" मे अपने  पनह दिजिये।   ( पाक-कदम=पवित्र चरण,     पनह=शरण)
    मुझको अपना मुरीद बनाके,                                   (मुरीद=शिष्य)
    "इल्म-ए-तरीकत" सिखा दिजिये।      (इल्म-ए-तरीकत= अध्यात्मिक शिक्षा/ब्रह्म-ज्ञान)

    आपकी कुरवत तडपाती है मुझको,                                    (कुरवत= याद)
    या तो मुझको दरस दिखा दो|
    "श्रध्दा-सबुरी" का कलमा सिखा कर,         
    या तो मुझको साबिर बना दो।
                                  (साबिर= जो मनुष्य सब्र करना जानता हो)
     
    « Last Edit: September 25, 2007, 12:43:10 PM by abhinav »
    मी पापी-पतित धीमंद । 
    तारणें मला गुरुनाथा, झडकरी ।।
    मुझसा कोई पापी तेरे दर पे ना आया होगा।
    और जो आया होगा, खाली लौटाया ना होगा॥
    ॐ साई राम          اوم ساي رام          ਓਮ ਸਾਈ ਰਾਮ          OM SAI RAM          ॐ साई राम          اوم ساي رام          ਓਮ ਸਾਈ ਰਾਮ          OM SAI RAM          ॐ साई राम          اوم ساي رام          ਓਮ ਸਾਈ ਰਾਮ          OM SAI RAM          ॐ साई राम          اوم ساي رام          ਓਮ ਸਾਈ ਰਾਮ          OM SAI RAM

    Offline abhinav

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    Re: “कलाम-ए-सच्चरित”
    « Reply #1 on: September 24, 2007, 02:09:33 PM »
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  • dear sai bandhus,

    i wished to write a poem for more than three months but was always failed, as i do not have command over urdu language.

    one day i was thinking what should i do? then i thought-" i should ask baba to help me to write something on him. he will surely help me, as he helped hemadpant to write sacharit on him."

    i did the same and you will not beleive it, but suddenly the words of urdu strted to click my mind. and i could write  it within 3-4 hrs only.

    then i consulted with my muslim friends, but surprised- it  did not require changes.

    but as i told you that i do not have command over urdu, i request you all if you find any mistake (or think some words require changes) plzzzzzzzzzz contact me at-

    deepak_kumar_pahwa@yahoo.co.in

    i dont want to hurt anybody's feelings. if it has happened, plzzzzzzzzzz plzzzzzzz forgive me.

    om sai ram
    « Last Edit: September 24, 2007, 02:12:04 PM by abhinav »
    मी पापी-पतित धीमंद । 
    तारणें मला गुरुनाथा, झडकरी ।।
    मुझसा कोई पापी तेरे दर पे ना आया होगा।
    और जो आया होगा, खाली लौटाया ना होगा॥
    ॐ साई राम          اوم ساي رام          ਓਮ ਸਾਈ ਰਾਮ          OM SAI RAM          ॐ साई राम          اوم ساي رام          ਓਮ ਸਾਈ ਰਾਮ          OM SAI RAM          ॐ साई राम          اوم ساي رام          ਓਮ ਸਾਈ ਰਾਮ          OM SAI RAM          ॐ साई राम          اوم ساي رام          ਓਮ ਸਾਈ ਰਾਮ          OM SAI RAM

    Offline rajiv uppal

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    Re: “कलाम-ए-सच्चरित”
    « Reply #2 on: September 24, 2007, 11:25:26 PM »
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  • DEEPAK BHAI

    JAI SAI RAM,


    “कलाम-ए-सच्चरित” लिख कर तो आपने कमाल ही कर दिया, इसिको ब्रह्मज्ञान कहते हैं

    **साईं चरणों में मेरा नमन**

    Rajiv Uppal
    ..तन है तेरा मन है तेरा प्राण हैं तेरे जीवन तेरा,सब हैं तेरे सब है तेरा मैं हूं तेरा तू है मेरा..

    Offline JR

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    Re: “कलाम-ए-सच्चरित”
    « Reply #3 on: September 25, 2007, 12:32:54 AM »
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  • Jai Sai Ram Deepak Ji,

    This is wonderful.......................Baba bless U always.

    Jai Sai Ram.
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    Offline abhinav

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    Re: “कलाम-ए-सच्चरित”
    « Reply #4 on: September 25, 2007, 12:41:56 PM »
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  • rajeev bhai and jyoti ji,

    thank you very much for your love. but beleive me- it is not my creation. ye sab baba ki kripa hai, otherwise mujhe itni urdu nahi aati hai. bas ye baba ka mere jeevan me ek aur chamatkaar hai.

    AND I HAVE A REQUEST TO ALL MY SAI FAMILY MEMBERS-  PLZ ADDRESS ME "ABHINAV". THIS IS MY NEW  NAME  WITH NEW LIFE, WHEREIN, I DONT WANT TO CARRY THE PAST.

    THANKS.

    OM SAI RAM.
    मी पापी-पतित धीमंद । 
    तारणें मला गुरुनाथा, झडकरी ।।
    मुझसा कोई पापी तेरे दर पे ना आया होगा।
    और जो आया होगा, खाली लौटाया ना होगा॥
    ॐ साई राम          اوم ساي رام          ਓਮ ਸਾਈ ਰਾਮ          OM SAI RAM          ॐ साई राम          اوم ساي رام          ਓਮ ਸਾਈ ਰਾਮ          OM SAI RAM          ॐ साई राम          اوم ساي رام          ਓਮ ਸਾਈ ਰਾਮ          OM SAI RAM          ॐ साई राम          اوم ساي رام          ਓਮ ਸਾਈ ਰਾਮ          OM SAI RAM

     


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