जय सांई राम।।।
एक प्रवचन कल सुना। उसका सार था- आत्म-दमन। प्रचलित रूढि़ यही है। सोचा जाता है कि सबसे प्रेम करना है, पर अपने से घृणा करनी है। स्वयं अपने से शत्रुता करनी है, तब कहीं आत्म-जय होती है। पर यह विचार जितना प्रचलित है, उतना ही गलत भी है। इस मार्ग से व्यक्तित्व द्वैत से टूट जाता है और आत्म-हिंसा की शुरुआत हो जाती है। और हिंसा सब कुरूप कर देती है।
मनुष्य को वासनाएं इस तरह से दमन नहीं करनी हैं, न की जा सकती हैं। यह हिंसा का मार्ग धर्म-मार्ग नहीं है। इसके परिणाम में ही शरीर को सताने के कितने विकसित रूप हो गये हैं। उनमें दिखती है तपश्चर्या, पर वस्तुत: हिंसा का रस, दमन और प्रतिरोध का सुख- यह तप नहीं है, आत्मवंचना है।
मनुष्य को अपने से लड़ना नहीं, अपने को जानना है। पर जानना, अपने को प्रेम करने से शुरू होता है। अपने को सम्यक रूपेण प्रेम करना है। न तो वासनाओं के पीछे अंधा हो कर दौड़ने वाला अपने से प्रेम करता है और न वासनाओं से अंधा हो कर लड़ने वाला अपने से प्रेम करता है। वे दोनों अंधे हैं और पहले अंधेपन की प्रतिक्रिया में दूसरे अंधेपन का जन्म हो जाता है। एक वासनाओं में अपने को नष्ट करता है, एक उनसे लड़कर अपने को नष्ट कर लेता है। वे दोनों अपने प्रति घृणा से भरे हैं। ज्ञान का प्रारंभ अपने को प्रेम करने से होता है।
मैं जो भी हूं, उसे स्वीकार करना है, उसे प्रेम करना है। और इस स्वीकृति और इस प्रेम में ही वह प्रकाश उपलब्ध होता है, जिससे सहज सब-कुछ परिवर्तित हो जाता है- एक संगीत का और एक शांति का और एक आनंद का- जिनके समग्रीभूत प्रभाव का नाम आध्यात्मिक जीवन है।
"O Shirdi Sai Nath, Give him the guidance to know when to hold on and when to let go and the Grace to make right decision with dignity"
ॐ सांई राम।।।