|| श्री सद्गुरू साईनाथाय नम:
अथ श्री साई ज्ञानेश्वरी तृतीय अध्याय: | |
श्री साई ज्ञानेश्वरी का तृतीय अध्याय 'दिव्य ज्ञान' है |
इस अध्याय में सद्गुरू श्री साई ने अपने परम भक्त
श्री नाना साहब चांदोरकर को दिव्य ज्ञान प्रदान किया हे |
सद्गुरू श्री साईनाथ महाराज ने चांदोरकर को बताया हे कि
ईश्वर कौन है, वह कहाँ रहता है,
वह कैसा है, उसे कैसे जाना जा सकता है?
ईश्वर की तलाश करने के लिए बहुत से लोग मंदिरों में जाते हैं,
बहुत से लोग तीर्थो की यात्रा करते हे, लेकिन उन्हें ईश्वर के दर्शन नहीं होते |
बहुत से लोग शास्त्रो और धर्मग्रन्थों का अध्ययन करते हें.
वे पुस्तकों को पढ़कर ईश्वर को जानने की कोशिश करते हैं,
लेकिन उनका प्रयत्न सार्थक नहीं होता |
सद्गुरू साई कहते हैं कि आत्मा और परमात्मा को समझो,
इनके परस्पर सम्बन्ध को जानो,
आत्मा में ही परमात्मा बैठे हुए हे, आत्मा में ही ईश्वर के दर्शन करो |
साई आत्मा और परमात्मा का दिव्य ज्ञान प्रदान करते हें |
बाबा ने नाना साहब चांदोरकर को जो दिव्य ज्ञान प्रदान किया हे,
आइए, उसे जानने के लिए हम
'श्री साई ज्ञानेश्वरी' के तृतीय अध्याय दिव्य ज्ञान' का पारायण करते हें |
जड़-चेतन में व्याप्त जो, जल, थल, नभ में वास |
मुझमें तुझमें सब में है, ईश्वर का आवास | |
ईश्वर शाश्वत नित्य है, जग को मिथ्या मान |
दिव्य ज्ञान को जान तू. मालिक को पहचान ||
मंदिर मस्जिद घूमता, दर-दर दूँढ़े ईश |
अंतर मन में झाँक तू, भीतर है जगदीश |।
नाना साहेब चांदोरकर ने अपने दोनों हाथ जोडे,
साईं की प्रणतिपूर्वक चरण-वंदना की और कहा---
“हे साईनाथ!
मैंने कुछ समय पहले आपसे एक प्रश्न पूछा था,
उस समय आपने उसका उत्तर नहीं दिया |
हे सद्गुरू! क्या आप हमसे नाराज हैं?
क्या हमसे कोई गलती हो गई?
आप हम पर कृपा करं,
आप हमें बताएँ कि ईश्वर कौन है,
वह कैसा हे, वह कहाँँ रहता हे?”
सद्गुरू साईनाथ ने कहा---
“हे नाना! मेरे मन में किसी के प्रति राग-द्वेष नहीं,
कोई नाराजगी नहीं ।
तुम सब तो मेरे बच्चे हो |
क्या मैं तुमसे कभी नाराज हो सकता हूँ?
हे नाना! तुमने जो प्रश्न पूछा है, वह अत्यन्त गूढ़ है।
पहले अपने चित्त को शांत, स्थिर एवं एकाग्र करो |
मैं तुम्हें चार साधनों के बारे में बताऊंगा,
इसे ध्यानपूर्वक सुनो |
पहला साधन विवेक है |
दूसरा साधन वैराग्य हे |
तीसरा साधन शम, दम, तितिक्षा, उपरति, श्रद्धा और समाधान आदि छः: गुण हें।
चौथा साधन मुमुक्षुत्व है |
हे नाना! ईश्वर सत्य है, नित्य है, शाश्वत हे |
जगत मिथ्या है, अनित्य है, अशाश्वत हे।
इस शाश्वत और अशाश्वत को ठीक तरह से समझना,
मन में इस भावना को आत्मसात करना ही विवेक हे |
ईश्वर और जगत के बारे में गहराई से जानना ही विवेक हे |
यह विषय अत्यन्त गूढ़ हे,
इसे सघन ज्ञान एवं लम्बे अनुभव के बाद समझा जा सकता हे |
कुछ लोग दावा करते हें कि
हमने नित्य और अनित्य को ठीक से जान लिया |
उनका ऐसा दावा करना ठीक नहीं,
ऐसा कह कर वे झूठा दंभ भरते हें |
ईश्वर नित्य है और जगत मिथ्या हे
केवल यह कह देना पर्याप्त नहीं,
केवल इसे स्वीकार कर लेना पर्याप्त नहीं |
इसे आत्मा के धरातल पर अनुभव करना आवश्यक है|
तभी हमें नित्य और अनित्य का विवेक हो सकता है।
कोई व्यक्ति तीर्थ-यात्रा करता है,
बार-बार पंढरपुर के चक्कर लगाता है
इससे वह विवेकी नहीं बन जाता।
यात्रा की फेरी लगा लेने से
'ईश्वर कौन है', ईश्वर कैसा है', ईश्वर कहाँ रहता है',
इसकी उसे जानकारी नहीं हो सकती |
व्यक्ति ने तीर्थयात्रा तो की,
परन्तु उसके हृदय में ईश्वर के प्रति श्रद्धा नहीं है,
उसने यात्रा केवल इस खयाल से की
कि समाज में उसे मान-सम्मान मिलेगा |
उसने यात्रा की फेरी कई बार लगाई
परन्तु उसने “नित्य” को जानने का सही मायने में प्रयास नहीं किया |
कोई व्यक्ति शास्त्रों एवं ग्रन्थों का पठन-पाठन कई बार कर लेता हे,
परन्तु उसे जीवन में नहीं उतारता,
वह अपने अन्तर को शुद्ध नहीं करता,
फिर भी वह जनता को नित्य-अनित्य का उपदेश देता हे |
उसे ज्ञान-रूपी सरोवर का मेंढक समझना चाहिए |
ऐसा व्यक्ति अपने अज्ञान का झूठा घमंड करता है और
मेंढक की तरह उछलता-कूदता रहता हे |
वह समझता है कि मैं ज्ञान की सुरभि फैला रहा हूँ,
परन्तु सच्चाई तो यह है कि
वह कीचड़ के सरोवर में फूदक रहा है
और अपने पैरों से चारों ओर कीचड़ उछाल रहा है।
जो दूसरों की निन्दा करता हे और अपनी बडाई करता हे,
वह कभी भी ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता,
वह कभी विवेकी नहीं बन सकता,
ब्रह्मज्ञान के लिए तो वह सर्वथा ही अयोग्य है।
हे नाना! जिस व्यक्ति को संसार की भौतिक वस्तुओं की लालसा न हो,
जिसे परलोक और स्वर्ग की अभिलाषा भी न हो,
वही वास्तव में वैराग्यी है |
केवल उसे ही वैराग्य की प्रतिमूर्ति समझो |
हे चांदोरकर!
शम, दम, तितिक्षा, उपरति, श्रद्धा और समाधान--
ये ज्ञानी मनुष्यों के छ: गुण हें |
इन्हें 'शमादिषट्कम्' के नाम से जाना जाता है।
अब मैं तुम्हें इसके बारे में बताऊंगा।
विषय-वासनाओं का ज्वार उठने पर
मनोनियंत्रण करना या
मन पर निग्रह करना 'शम' हे |
विषय-वासनाओं के उठने पर
जब काम-भोग के लिए मन भटकता रहे,
तो ऐसे में मन को नियंत्रित करना 'दम' है |
हर व्यक्ति प्रारब्ध के अनुसार दुख पाता हे |
दुख के समय आवेश, आक्रोश एवं क्रोध में न आकर
उसे सहज भाव से सहन करना 'तितिक्षा' है |
पत्नी, पुत्र, धन-दौलत, रिश्ते-नाते
आदि के मोह-जाल में न फसना,
इस माया-जाल को मिथ्या समझना 'उपरति' हे |
ईश्वर के प्रति मन में दृढ़ विश्वास पैदा होना,
अटूट आस्था पैदा होना 'श्रद्धा' हे |
अब 'समाधान' के विषय में सुनो |
जो व्यक्ति सुख-दुख में एक समान रहे,
जिसका मन अस्थिर होकर न अकुलाए,
जिसका चित्त हर स्थिति में पर्वत के समान अडोल एवं दृढ़ रहे,
उसे “समाधान' की स्थिति मानो |
जिसके मन में मोक्ष-प्राप्ति की प्रबल इच्छा हो,
इसके अलावा शेष सभी इच्छाएँ जिसके लिए महत्वहीन हो,
जो आत्मज्ञान के मार्ग पर सतत अग्रसर हो,
जो मोक्ष की खोज में संलग्न हो,
उसे मुमुक्षु मानो |
हे चांदोरकर!
वैकुंठ मोक्ष नहीं है, दोनों अलग-अलग हैं,
वैकुंठ से अधिक महत्वपूर्ण मोक्ष हे |
वैकुंठ पहुँचने से अधिक कठिन है मोक्ष की प्राप्ति |
मोक्ष ईश्वर का परमधाम है, वैकुंठ स्वर्ग हे |
मोक्ष यदि कैलाश पर्वत है तो
वैक॒ठ कैलाश पर्वत की सिर्फ एक छोटी-सी गली है।
इस संसार की जो आदि-शक्ति है,
वह नित्य हे, अविनाशी हे |
उस परम सत्ता के साथ आत्मा का एकाकार होना
आत्मा का सर्वोच्च लक्ष्य हे
आत्मा का परमात्मा के धाम पहुँचना ही मोक्ष प्राप्ति है।
आत्मा का सिफ यही लक्ष्य होना चाहिए कि
वह अपने संकल्प से, अपने सकारात्मक प्रयास से मोक्ष-पद तक पहुँचे |
इसके अलावा आत्मा के अन्य संकल्प या अन्य लक्ष्य व्यर्थ हें |"
श्री साई के ऐसे समर्थ वचन सुनकर नाना साहब ने दोनों हाथ जोडे
और बाबा से विनम्रतापूर्वक पूछा---
“हे सद्गुरू! हे कृपानिधि!
यह आदि-शक्ति क्या हे?"
आप इसे परम सत्ता कहते हैं, शुद्ध चैतन्य कहते हें,
यह क्या हे?"
श्री साई ने कहा--
“हे नाना! जो जगत का आधार है,
जो चर-अचर समबमें व्याप्त है,
जिसने अखिल ब्रह्मांड को ढँक रखा है,
अंततोगत्वा यह जगत उसी में लय हो जाता है,
वही संपूर्ण सृष्टि का आदि-मूल है,
वही परम उज्ज्वल है, वही विशुद्ध चैतन्य है,
वही परम सत्ता है, वही ईश्वर हे |
वही सत्य है, वही नित्य हे, वही शाश्वत हे |
यह संसार जिसे तुम अपनी आँखों के सामने प्रत्यक्ष देख रहे हो,
यह सत्य नहीं है, यह मिथ्या है, अनित्य है,
इसे महज एक भ्रम समझो |
हे चांदोरकर!
वह परमेश्वर ऐसा हे, उसका यह स्वरूप हे |
शायद इस भास्वर शक्ति के अस्तित्व पर
तुम्हें सहज ही विश्वास न हो, तुम्हें आश्चर्य हो,
परन्तु इस विराट शक्ति का अनुभव हम सभी हर क्षण करते हैं,
किसी-न-किसी रूप में अवश्य करते हैं |
इस ब्रह्मांड में ऐसा कोई स्थान नहीं, जहाँ वह न हो।
चैतन्य व्यापक है, सर्वत्र व्याप्त है, वह कहाँ नहीं है?
एक वही ऐसा है, जिसे कोई खोज ही नहीं पाया |
उसे खोजना अत्यन्त कठिन है |
हे पुत्र चांदोरकर! उसका कोई नाम नहीं,
उसका रंग, रूप, आकार नहीं,
फिर भी, वह कुछ तो अवश्य हे |
अतः उसका नाम चैतन्य रख दिया गया |
जिस प्रकार से हवा का रंग-रूप नहीं,
जब वह बहती है तो हमें उसका अनुभव होता है,
वैसे ही यह चैतन्य हे |
हे चांदोरकर! इसे कभी भूलो मत, इसकी कभी उपेक्षा मत करो |
वह जो चैतन्य है, वही परमेश्वर है, वही ब्रह्म है,
वही उपासना करने योग्य हे |
इस संसार में जो व्यक्ति उसकी उपासना करता है,
उसे ब्रह्मवेत्ता कहते हैं।
वह जो चैतन्य है, वह असीम हे,
वह इतना विस्तृत हे कि उसके भीतर
करोड़ों वृक्ष, करोड़ों मनुष्य, करोड़ों जीव-जन्तु
यहाँ तक कि यह सारा संसार ही समाया हुआ है।
इस संसार में जो कुछ भी तुम देख रहे हो,
जो कुछ भी तुम अनुभव कर रहे हो,
उन सबका मूल कारण वही है, उन सब का आदि-श्रोत वही हे |
हे नाना! उस चैतन्य की मैं तुम्हारे सामने कितनी व्याख्या करूं?
वह वरणातीत है, वह अनिर्वचनीय हे |
वह चैतन्य सर्वव्यापक हे |
वह क्लेश-रहित हे, वह पूर्णतः निर्दोष एवं विशुद्ध है |
वही सत्य-रूप, ज्ञान-रूप एवं आनंद-रूप हे |
वही सच्चिदानंद हे |
हम सभी प्राणी उससे भिन्न, परथक् एवं जुदा नहीं हें,
उसी का सूक्ष्म अंश हम सभी में है |
वही परम और व्यापक चैतन्य
ईश्वर या ब्रह्म के नाम से जाना जाता हे |”
नाना ने अपने दोनों हाथ जोड़कर
सद्गुरू श्री साईनाथ महाराज से कहा---
“हे साईनाथ! आप बता रहे हैं कि ब्रह्म सर्वव्यापक है,
वह दोषमुक्त एवं पूर्णतः विशुद्ध हे,
वह आनंद-स्वरूप हे, वह सभी में है,
यह सब में भली-भांति नहीं समझ पा रहा हूँ |
आप मुझे यह सब अच्छी तरह से समझाएँ,
और मेरी शंका को निरस्त करें |
हे सद्गुरू!
आप बताते हैं कि चैतन्य का अंश एवं गुण सभी प्राणियों में है |
चैतन्य दोषमुक्त एवं निर्मल है
परन्तु इस संसार के अधिकांश प्राणी
रोग, शोक, क्लेश, विकार, दोष आदि से भरे हुए हैं,
फिर चैतन्य का गुण उनमें कहाँ है?
हे सद्गुरू! जो जन्म से अंधा हो,
वह लावण्य को भला कैसे देख सकता है?
संसारी प्राणी इस संसार की मिथ्या वस्तुओं को देखते-देखते अंधे हो गये हैं,
उन्हें ईश्वर का सत्य भला कैसे दिखाई दे सकता है?
हे सद्गुरू!
आप आत्मा को परमेश्वर का अंश कहते हैं,
उनके एकत्व की बात कहते हैं,
लेकिन मुझे तो संसारी प्राणियों में
परमात्मा के गुण बिल्कुल ही दिखाई नहीं पड़ते,
ऐसा लगता है कि संसारी प्राणियों में
चैतन्य के गुण नष्ट हो गये हैं |
चैतन्य का अंश ही आत्मा है
तो सारी आत्माएँ एक जैसी होनी चाहिए,
लेकिन यहाँ तो हर आत्मा मुझे अलग-अलग जान पड़ती है,
यहाँ मुझे सबके अलग-अलग गुण ज्ञात हो रहे हैं।
इस संसार में हर आत्मा का
अलग-अलग तरह का सुख-दुख हे |
यह सुख-दुख किसी का कम है, किसी का अधिक,
यह सबका अपना-अपना है,
यह किसी का किसी दूसरे के साथ मेल नहीं खाता |
एक ही चैतन्य का अंश यदि सभी आत्तमाएँ हैं,
तो सभी आत्माओं का सुख-दुख एक समान होना चाहिए,
एक-दूसरे से मेल खाना चाहिए,
परन्तु ऐसा नहीं हे |
हे सद्गुरू आखिर ऐसा क्यों?
इस संसार में हर आत्मा का शरीर भिन्न-भिन्न है,
हर प्राणी का निजी गुण भिन्न-भिन्न है |
यदि हर आत्मा एक ही चैतन्य का अंश है तो यह विभिन्नता क्यों?
यह निराला और अनोखा खेल क्यों?”
नाना की बात सुनकर श्री साई ने कहा-
“हे नाना! अपने चित्त को शांत करो, मेरे वचनों को ध्यानपूर्वक सुनो,
मैं तुम्हारी शंकाओं को अभी खारिज किए देता हूँ।
पानी में ताम्र, श्वेत, काला, मिश्र, नीला, पीला, मेजेण्डा, हरा, बैंगनी आदि
अलग-अलग रंग मिलाएँ,
उन्हें अलग-अलग पात्रों में रखें,
तो हर पात्र में अलग-अलग रंग दिखेगा,
परन्तु सभी में जो जल-तत्व है, वह तो एक ही रहेगा।
ताम्र रंग के मिलने से पानी ताम्र रंग का दिखता है,
पीले रंग के मिलने से पानी पीले रंग का दिखता हे |
भिन्न-भिन्न रंग के पानी के मिश्रण से यदि रंग का पृथक्करण कर दें
तो पानी का भिन्न-भिन्न रंग नष्ट हो जाता है,
पानी अपने मौलिक रूप में रह जाता है |
ऐसा ही आत्मा के साथ हृदय के मिलने पर होता हे |
हृदय सुख-दुख का ग्राहक हे,
हृदय तरह-तरह के सुख-दुख अपने अन्दर समेटता हे |
अतः आत्मा के साथ हृदय के मिलने पर
हम तरह-तरह के सुख-दुख का अनुभव करते हें |
हे नाना! हर व्यक्ति इस प्रकार से अपने-अपने
अलग-अलग सुख-दुख अनुभूत करता है।
आत्मा सबमें एक समान है,
आत्मा-आत्मा में परस्पर कोई भिन्नता नहीं है,
वह सत्य, नित्य एवं विशुद्ध रूप में सबमें हे |
हृदय आहत-प्रतिहत होने वाला तत्व हे
जो सुख-दुख से सुखी एवं दुखी होता हे
और वैसा ही अनुभव करता हे |
आत्मा शरीर को धारण करती है।
आत्मा का धर्म हे शरीर को धारण करना |
अतः संसारी जीव जिन सुख-दुखों को प्राप्त करते हें,
उसका अनुभव वे हृदय के धरातल पर करते हें |
आत्मा तो विशुद्ध है, वह तो विशुद्ध चैतन्य का अंश है,
अतः तुम आत्मा को विशुद्ध रूप में ही देखो, इसे पूर्णतः विशुद्ध ही समझो |
हे नाना! अब मैं तुम्हें वास्तविकता समझाना चाहता हूँ
ताकि तुम असत्य को पहचान सको
और मिथ्या से उपजी तमाम विषय-वासनाओं, इच्छाओं
और मनोविकारों को पूर्णतः समाप्त कर सको |
चैतन्य की त्रिगुणात्मक शक्ति है--
पारमार्थिक, व्यावहारिक और प्रतिभासिक |
यह ठीक वैसे ही हे जैसे एक ही शरीर की तीन अवस्थाएँ
वृद्धावस्था, तरूणावस्था और बाल-अवस्था |
हे पुत्र नारायण! इसे ठीक तरह से समझो |
जिस आत्मा में चैतन्य का पारमार्थिक गुण हे,
ऐसी योग्यता वाली आत्मा की गणना साधु या संत के रूप में होती हे |
जो आत्मा शास्त्र पढती है, सुनती हे, उनका आवर्तन करती हे,
उसे त्याज्य और अत्याज्य का ज्ञान हे,
ऐसी योग्यता वाली आत्मा की गणना व्यावहारिक आत्मा के रूप में की जाती हे |
जो आत्मा मिथ्या को सत्य मानती हे,
जिस आत्मा के ज्ञान-चक्षु बंद एवं अज्ञान-चक्षु खुले हो,
जो सत्य को नहीं देख सकती, केवल असत्य को निहार पाती है,
ऐसी आत्मा को प्रतिभासिक आत्मा के रूप में जाना जाता है।
हे नाना! प्रतिभासिक गुण वाली आत्माएँ अज्ञानी होती हैं,
व्यावहारिक गुण वाली आत्माएँ सज्जन होती हैं,
पारमार्थिक गुण से विभूषित आत्माएँ साधु-संत होती हें |
सभी में आत्मा एक ही है,
अर्जित गुणों के कारण हम उन्हें अलग-अलग रुपों में देखते हैं।
हे नाना! राजा, राज्याधिकारी और राजसेवक--
इन तीनों को तुम देखते ही हो।
इन तीनों में तुम्हें भिन्नता दिखती है।
इन तीनों की भिन्नता का मूल कारण राजशक्ति है।
इसी लिए तीनों की तीन अलग-अलग स्थितियाँ हैं |
राजा सिंहासन पर बैठता है, वह हाथी पर सवार होता है,
वह पालकी या रथ में बैठकर कहीं आता-जाता है।
उसकी जेसी इच्छा होती है, उस मुताबिक वह शासन करता है,
अपनी मरजी के अनुसार वह हुक्म चलाता है।
अधिकारी वर्ग राजा की आज्ञा का अनुसरण करता हे |
वह राजा की आज्ञा पर अवलंबित होता हे |
वह राजा के हुक्म को लागू करवाता हे |
राजसेवक सिफ आदेश का पालन करता हे |
वह अपनी इच्छा से कुछ भी नहीं कर सकता |
उसकी स्वतंत्र गति भी अवरूद्ध रहती है |
राजसत्ता के विधानों को प्रजा मानती हे,
वह उसके अनुसार आचरण करती हे |
इसके पीछे जो एकमात्र कारण है, वह राजशक्ति हे।
राजा, अधिकारी, सेवक, प्रजा-- सभी राजशक्ति पर अवलंबित हें |
राजशक्ति ही सबके लिए महत्व रखती है।
राजा, अधिकारी, सेवक-- सभी प्रजा की तरह सामान्य इंसान हैं,
परन्तु राजशक्ति के कारण इनमें परस्पर भिन्नता हे |
राजा की मृत्यु किसी कारणवश हो सकती है,
परन्तु राजशक्ति की मृत्यु उसके साथ नहीं होती |
राजशक्ति कभी नष्ट नहीं होती।
राजशक्ति कं अलग-अलग रूप
भिन्न-भिन्न प्रकार से हमें दिखाई पडते हें |
जो राजशक्ति के अनुसार अपने-आप को एकाकार कर लेता है,
वह अवश्य ही राजा बनता है, वही राज्य का अधिपति होता है।
राजशकिति पूर्णत: विकार-रहित होती हे |
राजशक्ति का आधार पाकर ही
राजा, अधिकारी या राजसेवक
अधिकृत रूप से कार्य कर पाते हें |
हे नाना!
अभी तुम जिस सरकारी करर्सी पर बैठते हो,
उस कर्सी की पृष्ठभूमि में राजशक्ति की ही ताकत है।
उसी ताकत के कारण एक सिपाही
दिन-भर तुम्हारे पास खड़ा होकर तुम्हें पंखा झलता है।
हे नाना! तुम्हारे पास जितनी अधिक राजशकित् हे,
उतने ही अधिक तुम्हारे अधिकार हें |
सिपाही एवं पंखा डुलाने वाले के पास भी राजशक्ति है
परन्तु उसके पास बहुत छोटे-छोटे अधिकार हें |
हालांकि तुम दोनों के पास राजशक्ति है,
तुम दोनों ही सरकारी महकमे में काम करते हो,
परन्तु राजशक्ति ज्यादा-कम होने के कारण
एक व्यक्ति बैठा-बैठा पंखे की हवा खाता है
और दूसरा व्यक्ति खड़े-खड़े पंखा डुलाता है।
राजशक्ति के उपयोग का पूर्ण अधिकार राजा के पास होता हे |
अधिकारी के पास राजशक्ति का कुछ अंश होता हे |
सिपाही के पास राजशक्ति उससे भी कम हे |
प्रजा को तो सिफ राजशक्ति के अनुसार
अपना कार्य-व्यवहार करना होता हे |
वह तो पूर्णतः राजाज्ञा के आश्रित ही होती हे |
हे नाना!
जिस प्रकार राजा राजशक्ति के साथ एकाकार होकर
राजसत्ता का पूर्ण सुख भोगता है,
उसी प्रकार पारमार्थिक आत्मा ब्रह्म के साथ एकाकार होकर
ब्रह्मानंद का सुख भोगती हे |”
श्री सद्गुरू साईनाथाय नम:
©श्री राकेश जुनेजा के अनुमति से पोस्ट किया है।