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Author Topic: श्री साई ज्ञानेश्वरी - भाग 9  (Read 2484 times)

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Offline trmadhavan

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|| श्री सद्गुरू साईनाथाय नम:
अथ श्री साई ज्ञानेश्‍वरी तृतीय अध्याय: | |

श्री साई ज्ञानेश्‍वरी का तृतीय अध्याय 'दिव्य ज्ञान' है |
इस अध्याय दुसरा भाग में सद्गुरू श्री साई ने अपने परम भक्‍त
श्री नाना साहब चांदोरकर को दिव्य ज्ञान प्रदान किया हे |
सद्गुरू श्री साईनाथ महाराज ने चांदोरकर को बताया हे कि
ईश्वर कौन है, वह कहाँ रहता है,
वह कैसा है, उसे कैसे जाना जा सकता है?

सद्गुरू साई के ऐसे वचन सुनकर
चांदोरकर ने अपने दोनों हाथ जोड़े और कहा-
“हे श्री साई समर्थ!
यह राजशक्ति तो निराकार है, निरवयव है,
फिर इसका अंशों में विभाजन कैसे हो सकता है?
राजशक्ति को टुकड़े-टुकड़े में बॉँट दिया जाए
तो इसकी निराकारिता का गुण ही नष्ट हो जाएगा |”

बाबा ने कहा- “हे नाना! राजशक्ति अभेद्य है,
इसका कोई विभाजन नहीं कर सकता |
इसको आंशिक रूप में ग्रहण करने का प्रमाण मिलता हे |
चैतन्य अनंत होता है,
परन्तु जिस व्यक्ति की जितनी ग्राह्म-क्षमता होती है,
वह उसका उतना ही अनुभव कर पाता है।
राजशक्ति को अंशों में नहीं बॉटा जा सकता |
जिसकी ग्राह्य क्षमता जितनी होती है,
वह उसके उतने ही अंश की अनुभूति कर पाता है |

खुले मैदान में कोई घडा या बर्तन रखा हो,
या खुले मैदान में कोई बडा-सा तम्बू लगा हो,
दोनों के ऊपर आसमान हे,
दोनों के ऊपर आकाश समान रूप से आच्छादित हे |
आसमान तम्बू पर अधिक आच्छादित हे,
बर्तन पर कम आच्छादित हे-- ऐसी बात नहीं है |
वह सभी पर समान रूप से छाया रहता हे |
जिसकी ग्राह्मय-शक्ति जितनी होती है,
वह आकाश को उतना ओढ लेता हे |
इसका मतलब यह नहीं कि
सबके लिए आकाश के अलग-अलग टुकड़े हो गये।

हे नाना!
आसमान के समान ही आत्मा का रूप होता हे |
यह अंश में विभक्त नहीं हो सकता,
इस बात को अच्छी तरह जान लो |

हाँ! यह जो संसार तुम्हें दिखाई देता है,
यह वास्तव में माया का खेल है |
माया ने ब्रह्म की सहायता लेकर ही
इस अखिल ब्रह्मांड की रचना की है |

श्री साई के वचन सुनकर चांदोरकर बोले-
“हे साई समर्थ! हे सद्गुरू!
यह माया कौन हे?
इसका निर्माण किसने किया?
यह देखने में कैसी लगती है?
हे साईनाथ महाराज!
आपने कहा था कि इस संसार का आदि कारण ईश्वर है,
ईश्वर जग में व्याप्त है,
ईश्वर से यह संसार भिन्न नहीं |
किन्तु अब आप माया को बीच में ला रहे हैं |
आखिर में यह माया कहाँ से आ गई?”

बाबा ने चांदोरकर से कहा-
“हे नाना! अब तुम ध्यानपूर्वक सुनो
कि इस माया की उत्पत्ति कैसे हुई?
ईश्वर की ही एक शक्ति माया है।
माया मिथ्या हे, भ्रम है |
यह चैतन्य को भी ढ्रँक लेती हे
और लोगों में यह भ्रम पैदा कर देती है कि माया ही चैतन्य
हे |

माया चैतन्य के साथ इस प्रकार से सम्बद्ध हो जाती हे
जिस प्रकार से गुड और मिठास |
गुड़ और मिठास को अलग-अलग करना संभव नहीं,
वैसे ही चैतन्य के साथ जुडी माया को
चैतन्य से अलग करना संभव नहीं |

सूर्य और सूर्य का प्रभापुंज परस्पर जुड़ा हुआ है,
उसे अलग-अलग नहीं किया जा सकता |
ऐसे ही ब्रह्म और माया परस्पर जुड़े हुए हैं,
ब्रह्म से माया को अलग करके नहीं देखा जा सकता |

सूर्य को ही सूर्य का प्रभापुंज मानो |
सूर्य और प्रभापुंज भले ही दो अलग-अलग शब्द हों
परन्तु सूर्य से उसके प्रभापुंज को अलग करके नहीं देखा जा सकता |
सूर्य का आकार उसके प्रभापुंज से ही है |

हे चांदोरकर!
सूर्य अपनी प्रभा से संसार को यह ज्ञात कराता हे
कि सूर्य का अस्तित्व है,
ठीक इसी प्रकार,
ब्रह्म अपने साथ संयुक्‍त माया से संसार को यह ज्ञात कराता हे
कि ब्रह्म का अस्तित्व है |
माया ब्रह्म के साथ चिपकी हुई हे,
अतः माया का भी अस्तित्व है |

हे नाना! चैतन्य अनादि काल से हे और अन्तहीन हे |
माया भी अनादि काल से हे परन्तु यह अंतसहित हे |
दोनों अनादि काल से अपने अस्तित्व में हें |
माया प्रकृति है और चैतन्य पुरूष रूप में है |
इन दोनों के योग से ही जगत की उत्पत्ति हुई है ।
हे नाना! प्रकति और पुरूष का विवेचन संत ज्ञानेश्‍वर ने किया हे |
उन्होंने अपनी पुस्तक 'अमृतानुभव' में
प्रकृति और पुरूष की विस्तारपूर्वक व्याख्या की है |
यह पुस्तक संत ज्ञानेश्‍वर ने प्रसिद्ध मोहिनी राज मंदिर में लिखी थी |
मैं तुम्हारे सम्मुख प्रकृति और पुरूष का विवेचन नहीं करूंगा |
मैं तुम्हें सिफ आत्मज्ञान की गुफा के दर्शन कराऊंगा |

हे नाना! जो आत्मज्ञान की गुफा में जाते हें.
वे वहीं रह जाते हैं, वहाँ से वापस लौटकर नहीं आते।
आत्मज्ञान की गुफा में आनंद-ही-आनंद है,
जो आनंद में मग्न हो जाते हैं, वे कभी लौटकर नहीं आते।

ईश्वर समस्त आनंद का कारण है, प्रकृति उसी का कार्य हे |
इस माया की लीला अगाध हे |

'यह मैं हूँ', “यह मेरा हे', 'यह तेरा है', “यह मेरा नहीं--
इस प्रकार की अनेक भावनाएँ व्यक्ति के मन में उठती रहती हैं ।
ये भावनाएँ माया के कारण उपजती हैं।
माया असत्य का भी आभास करा देती है।
उपादान के उपस्थित न रहने पर भी
माया उपादान का आभास करा देती है।

माया व्यक्ति को अपने जाल में जकड़ कर पूर्णतः बेध देती है, अंधा बना देती है।
फिर व्यक्ति को वास्तविकता का ज्ञान भी नहीं रहता,
वह सत्य को भी नहीं पहचान पाता |
माया के दो गुण हें
जिनमें से पहला गुण ज्ञान के सत्य को ढँक देने वाला हे |
संसार की हर वस्तु को माया ढँक लेती हे |
माया का दूसरा गुण भ्रमित करनेवाला हे |
जो वस्तु हमारे सामने नहीं है,
माया उसका भी भ्रम उत्पन्न कर देती हे |
इस माया के कारण ही व्यक्ति भ्रमित हो जाता हे |

एक मजदूर रात में स्वप्न देखता हे |
सपने में वह अपने-आप को राजा के रूप में देखता हे |
यहाँ वास्तविकता यह है कि वह एक मजदूर है,
इस वास्तविकता को ढँक देना माया का काम हे |
वास्तविकता यह हे कि वह राजा नहीं हे |
माया भ्रम का आवरण सुजित कर उसे राजा होने की अनुभूति करा देती हे |
माया तो ब्रह्म को भी इसी प्रकार से ढँक लेती है
और जगत के सामने कोई और ही स्वरूप प्रस्तुत कर देती
हे |

यह संसार सत्य नहीं हे |
केवल एक ईश्‍वर ही सत्य हे |
माया के कारण जगत तुम्हें ऐसा दिखाई पड़ रहा हे,
वास्तविक जगत तो कुछ और ही हे |
इस जगत के साथ संसार के सारे विषय भ्रम है, असत्य हें,
ये लोगों की आँखों को सत्य जान पडते हें
परन्तु ये पूर्णतः असत्य हें और उनके लिए हितकर नहीं हैं |

हे चांदोरकर! ज्ञान अर्जित करो
और ज्ञान के प्रकाश से माया के आवरण को दूर करो |
तुम्हे शुद्ध चैतन्य के दर्शन होंगे |
गंदले पानी से जब गंदगी को दूर हटाते हें
तो साफ पानी नजर आने लगता हे |
ठीक इसी प्रकार, माया के गंदलेपन को जब दूर हटाते हें
तो शुद्ध चैतन्य नजर आने लगता हे |
यही शुद्ध चैतन्य परमेश्‍वर हे,
यही परमेश्वर सत्य है, यही उपासना करने के योग्य हे |

हे चांदोरकर! मेरी बात पर ध्यान दो,
जो शुद्ध चैतन्य हो, उसकी उपासना करो |

हे नाना! हमारी आत्मा उस शुद्ध चैतन्य का अंश है,
हमारी आत्मा परम पिता परमेश्वर का ही सूक्ष्म अंश है,
यही आत्मा ईश्वरीय ज्ञान को जानने का हेतु है,
यही आत्मा दिव्य ज्ञान को जानने में सफल होती है।
अत: तू आत्मा को अच्छी तरह से जान,
आत्मा पर पड़े माया के पर्द को दूर हटा कर
शुद्ध चैतन्य के दर्शन कर |
इसी जन्म में तुम्हारी मुक्ति अवश्य होगी |

हे नाना! ज्ञान को मन में रखना, ज्ञान को सदा जागृत
रखना |”

ईश्वर ने माया रची, मोहक इसका जाल।
माया से ना बच सके, सुर नर मुनि गोपाल ||
तमस-बीज से ऊपजा, माया वृक्ष विशाल |
अंधकार को दूर करे, साई ज्ञान मशाल ||

// श्री सदृयुरुसाईनाथार्पणयरतु / शुभम॒ थवतु
इति क्री साई ज्ञानेश्वरी तृतीयो अध्यायः //

© Posted with the permission of Sri. Rakesh Juneja
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