अहमदनगर जिले में गोदावरी नदी के तट बड़े ही भाग्यशाली हैं, जिन पर अनेक संतों ने जन्म लिया और अनेक ने वहाँ आश्रय पाया। ऐसे संतों में श्री ज्ञानेश्वर महाराज प्रमुख थे।
शिरडी अहमदनगर जिले के कोपरगाँव तालुका में है। गोदावरी नदी पार करने के पश्चात मार्ग सीधा शिरडी को जाता है। आठ मील चलने पर जब आप नीमगाँव पहुंचेंगे तो वहाँ से शिरडी दृष्टिगोचर होने लगती है। कृष्णा नदी के तट पर अन्य तीर्थस्थान गाणगापूर, नरसिंहवाड़ी और औदुम्बर के समान ही शिरडी भी प्रसिद्ध तीर्थ है।
जिस प्रकार दामाजी ने मंगलवेढ़ा (पंढरपुर के समीप) को, समर्थ रामदास ने सज्जनगढ़ को, दत्तावतार श्रीनरसिंह सरस्वती ने वाड़ी को पवित्र किया, उसी प्रकार श्री साँईनाथ ने शिरडी में अवतीर्ण होकर उसे पावन बनाया।
श्री साँई बाबा की जन्मतिथि, जन्म स्थान और माता-पिता का किसी को भी ज्ञान नहीं है। इस संबंध में बहुत छानबीन की गई।
बाबा से तथा अन्य लोगों से भी इस विषय में पूछताछ की गई, परन्तु कोई संतोषप्रद उत्तर अथवा सूत्र हाथ न लग सका। वैसे साँईबाबा को कबीर का अवतार भी माना जाता है।
बाबा की एकमात्र प्रामाणिक जीवन कथा 'श्री साँई सत्चरित' है जिसे श्री अन्ना साहेब दाभोलकर ने सन् 1914 में लिपिबद्ध किया।
ऐसा विश्वास किया जाता है कि सन् 1835 में महाराष्ट्र के पारभणी जिले के पाथरी गाँव में साँईबाबा का जन्म भुसारी परिवार में हुआ था। (सत्य साँईबाबा ने बाबा का जन्म 27 सितंबर 1830 को पाथरी गाँव में बताया है।)
इसके पश्चात 1854 में वे शिरडी में ग्रामवासियों को एक नीम के पेड़ के नीचे बैठे दिखाई दिए।
अनुमान है कि सन् 1835 से लेकर 1846 तक पूरे 12 वर्ष तक बाबा अपने पहले गुरु रोशनशाह फकीर के घर रहे। 1846 से 1854 तक बाबा बैंकुशा के आश्रम में रहे।
सन् 1854 में वे पहली बार नीम के वृक्ष के तले बैठे हुए दिखाई दिए। कुछ समय बाद बाबा शिरडी छोड़कर किसी अज्ञात जगह पर चले गए और चार वर्ष बाद 1858 में लौटकर चाँद पाटिल के संबंधी की शादी में बारात के साथ फिर शिरडी आए।
इस बार वे खंडोबा के मंदिर के सामने ठहरे थे। इसके बाद के साठ वर्षों 1858 से 1918 तक बाबा शिरडी में अपनी लीलाओं को करते रहे और अंत तक यहीं रहे।