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Author Topic: रामायण - अयोध्याकाण्ड - कैकेयी द्वारा वरों की प्राप्ति  (Read 2391 times)

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Offline JR

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राजदरबारियों से निबटकर महाराजा दशरथ अत्यन्त उल्लास के साथ राम के राजतिलक का शुभ समाचार अपनी सबसे प्रिय रानी कैकेयी को सुनाने के लिये पहुँचे। कैकेयी को वहाँ न पाकर राजा दशरथ उसके विषय में एक दासी से पूछा। दासी ने बताया कि महारानी कैकेयी अत्यन्त क्रुद्ध होकर कोपभवन में गई हैं। महाराज ने चिन्तित होकर कोपभवन में जाकर देखा कि उनकी प्राणप्रिया मैले वस्त्र धारण किये, केश बिखराये, पृथ्वी पर अस्त व्यस्त पड़ी है। उन्हें मनाते हुये राजा दशरथ ने कहा, "प्राणवल्लभे! मैंने तो ऐसा कोई कार्य नहीं किया जिससे क्रुद्ध होकर तुम्हें कोपभवन में आना पड़े। मुझे अपने कुपित होने का कारण बताओ। मैं वचन देता हूँ कि मैं तुम्हारे दुःख का निराकरण अवश्य करूँगा।"

कैकेयी बोलीं, "हे प्रणनाथ! मेरी एक अभिलाषा है जिसे मैं पूरी होते देखना चाहती हूँ। यदि आप उसे पूरी करने की शपथपूर्वक प्रतिज्ञा करेंगे, तभी मैं उसे आपसे कहूँगी।" इस पर राजा दशरथ ने मुस्कुराते हुये कहा, "बस, इतनी से बात के लिये तुम कोपभवन में चली आईं? कहो तुम्हारी क्या अभिलाषा है। मैं अभी उसे पूरा करता हूँ।" कैकेयी बोली, "महाराज! पहले आप सौगन्ध खाइये कि आप मेरी अभिलाषा अवश्य पूरी करेंगे।" कैकेयी के इन वचनों को सुनकर महाराजा दशरथ ने कहा, "हे प्राणेश्वरी! यह तो तुम जानती ही हो कि मुझे संसार में राम से अधिक प्रिय और कोई नहीँ है। उसी राम की सौगन्ध खाकर मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि तुम्हारी जो भी कामना होगी, मैं उसे तत्काल पूरी करूँगा। बोलो क्या चाहती हो?"

महाराज दशरथ से आश्वासन पाकर कैकेयी बोली, "देवासुर संग्राम के समय जब आप मूर्छित हो गये थे, उस समय मैंने आपकी रक्षा की थी और इससे प्रसन्न होकर आपने मुझे दो वर देने की प्रतिज्ञा की थी। वे दोनों वर मैं आज माँगना चाहती हूँ। पहला वर मुझे यह दें कि राम के स्थान पर मेरे पुत्र भरत का राजतिलक किया जाये और दूसरा वर मैं यह माँगती हूँ कि राम को चौदह वर्ष के लिये वन जाने की आज्ञा दी जाये। मैं चाहती हूँ कि आज ही राम वक्कल पहने हुये वनवासियों की भाँति वन के लिये प्रस्थान कर जाये। आप सूर्यवंशी हैं और सूर्यवंश में अपनी प्रतिज्ञा का पालन प्राणों की बलि चढ़ाकर भी किया जाता है। इसलिये आप भी मुझे ये वर दें।"

कैकेयी के मुख से निकले हुये शब्दों ने राजा के हृदय को तीर की भाँति छेद डाला और वे इसकी असह्य पीड़ा को न सहकर वहीं मूर्छित होकर गिर पड़े। कुछ काल पश्चात मूर्छा के भंग होने पर वे क्रोध और पीड़ा से काँपते हुये बोले, "हे कुलघातिनी! मेरे किस अपराध का तूने ऐसा भयंकर प्रतिशोध लिया है? नीच! पतिते! राम तो तुझ पर कौशल्या से भी अधिक श्रद्धा रखता है। फिर क्यों तू उसका जीवन नष्ट करने के लिये कटिबद्ध हो गई है? बिना किसी अपराध के प्रजा के आँखों के तारे राम को मैं कैसे निर्वासित कर सकता हूँ? तू जानती है कि मैं अपने प्राण त्याग सकता हूँ किन्तु राम के बिना नहीं रह सकता। मैं तुझसे प्रार्थना करता हूँ कि राम के वनवास की बात को छोड़कर तू और कुछ माँग ले। मैं विश्वास दिलाता हूँ कि मैं तुझे मना नहीं करूँगा।"

राजा की दीन वाणी सुनकर भी कैकेयी द्रवित नहीं हुई और बोली, "राजन्! आपने पहले तो बड़े गौरव से वर देने की बात कही और जब वर देने का समय आया तो आप इस प्रकार वचन से हटना चाहते हैं। यह सूर्यवंशियों को शोभा नहीं देता। आप अपनी प्रतिज्ञा से हटकर अपने आप को और सूर्यवंश को कलंकित मत कीजिये। यदि आपने अपने प्रतिज्ञा की रक्षा न की तो मैं अभी आपके ही सम्मुख विष पीकर अपने प्राण त्याग दूँगी। इससे आप केवल प्रतिज्ञा भंग करने के ही दोषी नहीं होंगे वरन् स्त्री-हत्या के भी दोषी माने जायेंगे। इसलिये उचित है कि आप अपना प्रण पूरा करें।"

राजा दशरथ बार-बार मूर्छित हो जाते थे और मूर्छा टूटने पर कातर भाव से कैकेयी को मनाने का प्रयत्न करते थे। इस प्रकार पूरी रात बीत गई। आकाश में उषा की लालिमा देखकर कैकेयी ने उग्ररूप धारण करके कहा, "हे राजन्! समय बीतता जा रहा है। आप तत्काल राम को बुलाकर उसे वन जाने की आज्ञा दीजिये और नगर भर में भरत के राजतिलक की घोषणा करवाइये।"

उधर सूर्य उदय होते ही गुरु वशिष्ठ मन्त्रियों को साथ लेकर राजप्रासाद के द्वार पर पहुँचे और महामन्त्री सुमन्त को महाराज के पास जाकर अपने आगमन की सूचना देने के लिये कहा। कैकेयी-दशरथ सम्वाद से अनजान सुमन्त ने महाराज के पास जाकर कहा, "हे राजाधिराज! रात्रि समाप्त हो गई है और गुरु वशिष्ठ भी पधार चुके हैं आप शैया छोड़कर गुरु वशिष्ठ के पास चलिये।" सुमन्त की वाणी सुनकर महाराज दशरथ को फिर मर्मान्तक पीड़ा का अनुभव हुआ और वे फिर मूर्छित हो गये। इस पर कुटिल कैकेयी बोली, "हे सुमन्त! महाराज अपने प्रिय पुत्र के राज्याभिषेक के आनन्द के कारण रात भर सो नहीं सके हैं। अभी-अभी ही उन्हें तन्द्रा आई है। इसलिये तुम शीघ्र जाकर राम को यहीं बुला लाओ। महाराज निद्रा से जागते ही उन्हें कुछ आवश्यक निर्देश देना चाहते हैं।"

इस पर सुमन्त रामचन्द्र के महल में जाकर उन्हें बुला लाये।

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