राम की आज्ञा से लक्ष्मण गुरु वशिष्ठ जी के पुत्र सुयज्ञ को अपने साथ लिवा लाये। राम ने श्रद्धापूर्वक दोनों हथ जोड़कर जनकनन्दिनी सीता के साथ उनकी प्रदक्षिणा की। फिर अपने पहनने के स्वर्ण कुण्डल, बाजूबन्द, कड़े, मालाएँ तथा रत्नजटित अन्य आभूषणों को भी उन्हें देते हुये बोले, "हे सखा! मेरी पत्नी सीता मेरे साथ वन जा रही हैं। इसलिये ये अपने कंकण, मुक्तमाला-किंकणी, हीरे, मोती, रत्नादि समस्त आभूषण आपकी पत्नी के लिये दे रही हैं। आप सीता की ओर से उन्हें सादर समर्पित कर देना। यह स्वर्णजटित पलंग भी आप ले जाइये। मेरे मामा जी ने मुझे यह हाथी स्नेहपूर्वक दिया था, उसे मैं सहस्त्र स्वर्णमुद्राओं के साथ आपको समर्पित करता हूँ।"
राम के वनगमन की बात सुनकर सुयज्ञ को हार्दिक पीड़ा हुई। उनके नेत्र सजल हो गये। फिर उन समस्त वस्तुओं को ग्रहण करके उन्होंने आशीर्वाद दिया, "हे राम! तुम चिरजीवी होओ और तुम्हारा चौदह वर्ष का वनवास तुम्हारे लिये निष्कंटक और कीर्ति देने वाला हो। वनवास की अवधि समाप्त करके लौटने पर तुम पुनः अयोध्या का राजसिंहासन प्राप्त करो।" गुरुपुत्र सुयज्ञ को विदा कर राम ने रोते हुये सेवकों को बहुत सा धन तथा सान्त्वना देते हुये कहा, "तुम लोग अयोध्या में रहते हुये महाराज, माता कौशल्या, सुमित्रा, कैकेयी, भरत, शत्रुघ्न एवं अन्य गुरुजनों की तन मन से सेवा करना। उन्हें किसी प्रकार की असुविधा न हो इसका सदैव ध्यान रखना।" इसके पश्चात् राम ने वह सारा द्रव्य मँगवाया जो उनकी व्यक्तिगत सम्पत्ति थी और सीता के हाथों से उसे गरीब, दुःखी, दीन-दरिद्रों में वितरित कराया।
राम और सीता के द्वारा इस प्रकार मुक्त हस्त से दिये जाने वाले दान की चर्चा सारे नगर में दावानल की भाँति फैल गई। उन दिनों अयोध्या के निकट एक ग्राम में गर्गगोत्री त्रिजटा नामक एक तपस्वी ब्राह्मण रहता था। वह अत्यन्त निर्धन था किन्तु उनकी सन्तानें बहुत थीं। वह बड़ी कठिनाई से अपनी गृहस्थी का पालन पोषण कर पाता था। जब उसके पत्नी ने इस प्रकार रामचन्द्र के द्वारा दिये जाने वाले दान की चर्चा सुनी तो वह अपने पति से बोली, "हे स्वामिन्! इस समय अयोध्या के ज्येष्ठ राजकुमार श्री रामचन्द्रजी सर्वस्व दान कर रहे हैं। आप भी उनके पास जाकर याचना क्यों नहीं करते? सम्भव है कि हमारी निर्धनता और दरिद्रता से द्रवित होकर दयालु राम हम पर भी दया करके इस दरिद्रता से हमारा उद्धार कर दें। इसलिये आप शीघ्र ही उनके पास जाकर उन्हें अपनी व्यथा कथा सुनाकर याचना कीजिये।"
पत्नी के बार-बार प्रेरित किये जाने पर याचना में रुचि न रखते हुये भी तपस्वी त्रिजटा श्री राम के दरबार की ओर चल पड़ा और शीघ्र ही एक के बाद एक पाँच ड्यौढ़ियाँ पार करके राम के सामने जा पहुँचा। तपस्वी के तपस्याजनित तेज और ओज को देखकर राम बोले, "हे तपस्वी ब्राह्मण देवता! जिस प्रकार आपकी हृदय गति तीव्रता से चल रही है और शुभ्रभाल पर स्वेद कण झलक रहे हैं, उनसे प्रतीत होता है कि आप बड़ी दूर से और तीव्र गति से आ रहे हैं। आपकी वेषभूषा से ज्ञात होता है कि आपके पास धन का अभाव है। आपके हाथ में जो दण्ड है, उसे आप पूरे बल से फेंकिये। जितनी दूर जाकर वह दण्ड गिरेगा उस स्थान से आपके खड़े होने के स्थान तक जितनी गौएँ खड़ी हो सकेंगी, वे सब आपको अर्पित कर दी जायेंगी। गौओं के साथ उनके भरण पोषण के लिये भी पर्याप्त साधन जुटा दिये जायेंगे।" राम का आदेश पाकर त्रिजटा ने अपने शरीर का पूरा बल लगाकर दण्ड फेंका जो सरयू नदी के दूसरी पार जाकर गिरा। उसके बल की सराहना करते हुये राम ने उसे उतनी ही गौएँ दान में दीं और स्वर्ण, मोती, मुद्राएँ, वस्त्रादि देकर उसे विदा किया। इस प्रकार राम ने असंख्य धनराशि दान देकर सबको सन्तुष्ट किया। इस कार्य से निवृत होकर वे सीता और लक्ष्मण के साथ पिता के दर्शनों के लिये चल पड़े।