गंगा के इस प्रदेश पर भीलों का अधिकार था। उनका राजा गुह एक शक्तिशाली एवं लोकप्रिय शासक था। वह राम का भक्त था। यह ज्ञात होने पर कि अपने लघु भ्राता लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ राम यहाँ आये हुये हैं तो वह अपने मन्त्रियों, पुरोहितों तथा परिजनों के साथ उनके स्वागत के लिये आ पहुँचा। राम ने उन्हें आते देखा तो स्वयं आगे बढ़कर उनसे गले मिले। राम, सीता और लक्ष्मण को वक्कल धारण किये हुये देख कर गुह को बड़ा दुःख हुआ। उसने अनुनय करते हुये राम से आर्त स्वर में कहा, "हे रामचन्द्र! जिस प्रकार आप अयोध्या के अधिपति हैं, उसी प्रकार इस प्रदेश को भी अपना ही प्रदेश समझें। आप इस देश के सिंहासन पर बैठकर यहाँ के शासन की बागडोर सँभालें। मैं जानता हूँ कि आपके समान समदर्शी एवं न्यायवेत्ता शासक अन्यत्र मिलना अत्यन्त दुष्कर है। आप विश्वास कीजिये, यह सम्पूर्ण भूमि आपकी ही है और हम सब आपके अनन्य सेवक हैं।" इसके पश्चात् गुहराज ने अपने साथ लाई हुई सामग्री उनके सामने रखते हुये कहा, "स्वामी! यह भक्ष्य, पेय, लेह्य तथा स्वादिष्ट फल आपकी सेवा में प्रस्तुत है। इन्हें ग्रहण कीजिये। विश्राम करने के लिये सब प्रकार की व्यवस्था कर दी गई है। घोड़ों के लिये दाना-चारा भी तैयार है।"
गुह की प्रेमभरी वाणी सुनकर राम बोले, "हे निषादराज! मैं आपकी जितनी प्रशंसा करूँ, कम है। इस प्रान्त के निर्विवाद राजा होते हुये भी आप मेरे स्वागत के लिये पैदल चलकर आये। वास्तव में हम लोग आपके दर्शन पाकर कृतार्थ हो गये हैं।" इस प्रकार निषादराज की सराहना करते हुये राम उन्हें प्रेमपूर्वक अपने पास बिठा लिया और मधुर वाणी में आगे कहने लगे, "निषादराज! आपको सानन्द और सकुशल देखकर मेरा हृदय बहुत प्रसन्न हुआ है। आप मेरे लिये उत्तमोत्तम पदार्थ लेकर आये हैं इसके लिये मैं आपका अत्यंन्त आभारी हूँ। किन्तु बन्धुवर! मुझे खेद है कि मैं इन्हें स्वीकार नहीं कर सकता। ये सारे पदार्थ राजा-महाराजाओं के खाने योग्य हैं, हम लोग तो तपस्वी हैं। हमारा भोजन तो कन्द-मूल-फल है। अतः हम इसे ग्रहण नहीं कर सकते। हाँ, घोड़ों के लिये आप जो दाना-चारा लाये हैं, उन्हें मैं बड़ी प्रसन्नता के साथ स्वीकार करूँगा क्योंकि ये घोड़े मेरे पिताजी को बड़े प्रिय हैं। इनकी सदैव विशेष देख-भाल की जाती है।"
राम की बातें सुनकर गुह ने घोड़ों के विशेष प्रबन्ध करने के लिये भीलों को आदेश दे दिया। सन्ध्या के समय राम, सीता और लक्ष्मण ने गंगा में स्नान किया। इश्वरोपासना के पश्चात् उन्होंने कन्द-मूल-फल का आहार किया। गुहराज उन्हें उस कुटी तक ले गये जहाँ पर उन्होंने उनके विश्राम के लिये अपने हाथों से प्रेमपूर्वक तृण शैयाएँ बनाई थीं। कुटी में पहुँच कर वे बोले, "हे वीरवर! ये शैयाएँ आप लोगों के लिये हैं। आप इन पर विश्राम कीजिये। मैं आपका दास हूँ। मैं रात्रि भर जाग कर हिंसक पशुओं से आप लोगों की रक्षा करूँगा आप विश्वास कीजिये, हमें संसार में राम से अधिक और कोई प्रिय नहीं है। इसलिये आप लोगों की सुरक्षा के लिये मेरे ये सभी साथी रात भर जागकर धनुष बाण लिये तैयार रहेंगे।"
उनकी बातें सुनकर लक्ष्मण ने कहा, "हे गुहराज! आपकी शक्ति, निष्ठा और भैया राम के प्रति आपके अतुलित प्रेम पर मुझे पूर्ण विश्वास है। इसमें सन्देह नहीं कि आपके राज्य में हमें किसी प्रकार की विपत्ति की आशंका नहीं हो सकती। किन्तु भैया राम का दास होकर मैं इनके बराबर कैसे सो सकता हूँ? अतः मैं भी रात भर आपके साथ पहरा दूँगा।
लक्ष्मण और गुह कुटी के बाहर एक शिला पर बैठकर पहरा देते हुये बातें करने लगे। लक्ष्मण ने गुह को अयोध्या में घटित सारी घटनाओं के विषय में बताया। इस प्रकार बातें करते हुये वह रात्रि व्यतीत हो गई।