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Author Topic: रामायण - अयोध्याकाण्ड - गंगा पार करना  (Read 2788 times)

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Offline JR

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ब्राह्म बेला में राम ने शैया का परित्याग करके लक्ष्मण से कहा, "भैया अब रात्रि समाप्त हो रही है। उषा काल की लालिमा ने सम्पूर्ण आकाश पर गुलाल लपेट दिया है। वह देखो, कोयल का मधुर स्वर सुनाई दे रहा है। मोर नाच रहे हैं। इसी समय परम पवित्र गंगा को हमें पार कर लेना चाहिये।" यह सुनकर लक्ष्मण के साथ खड़े निषादराज ने अपने मन्त्रियों को आज्ञा दी कि एक द्रुत गति की सुन्दर पतवारों वाली नौका ले आओ। मैं स्वयं उस नौका को चलाकर इन्हें गंगा पार कराउँगा। निषादराज की आज्ञा पाते ही उनके अनुचर शीघ्र जाकर उनके लिये एक श्रेष्ठ नौका ले आये। जब नौका आकर घाट पर लग गई तो राम, सीता और लक्ष्मण घाट की ओर चले।

उसी समय मन्त्री सुमन्त ने अपने नेत्रों में जल भरकर हाथ जोड़ते हुये कहा, "हे रघुकुलगौरव! अब मेरे लिये क्या आज्ञा है?" रामचन्द्र ने उनकी कर्तव्यनिष्ठा की सराहना करते तथा धन्यवाद देते हुये कहा, "सुमन्त! तुम्हारा कार्य पूरा हुआ। अब तुम शीघ्र अयोध्या को लौट जाओ। हम गंगा पार करके उसके आगे की यात्रा पैदल ही करेंगे। तुम अयोध्या जाकर मेरी, सीता और लक्ष्मण की ओर से पिताजी, माताओं एवं अन्य गुरुजनों की चरण वन्दना करना और उन्हें धैर्य बँधाते हुये हमारी ओर से कहना कि हम तीनों में से किसी को भी इस बात का किन्चित भी दुःख नहीं है कि हमें वनवास क्यों दिया गया। उनसे समझाकर कहना कि चौदह वर्ष की अवधि समाप्त होने पर मैं, सीता और लक्ष्मण आपके दर्शन करेंगे। आप भाई भरत को कैकेय से शीघ्र बुलाकर उन्हें राज्य सिंहासन सौंप दें ताकि प्रजा को किसी प्रकार का कष्ट व असुविधा न हो। हे मन्त्रिवर! भरत से भी मेरी ओर से कहना कि वे सभी माताओं का समान रूप से आदर करें और प्रजाजनों के हितों का सदैव ध्यान रखें।"

राम के वचन सुनकर सुमन्त के नेत्रों से अश्रुधारा बह चली और वे अवरुद्ध कण्ठ से बोले, "हे तात! जो सारी अयोध्या आपके वियोग में संतप्त होकर तड़प रही है, उसके सम्मुख मैं कैसे जा सकूँगा? जब वे मुझसे पूछेंगे कि तुम राजकुमारों के बिना खाली रथ लिये क्यों लौट आये तो मैं उन्हें क्या उत्तर दूँगा? इस सूने रथ में आपको न पाकर सहस्त्रों अयोध्यावासी शोक से मूर्छित हो जायेंगे और उनकी दशा सेनापति रहित सेना जैसी हो जायेगी। हे प्रभो! अयोध्या से वन के लिये चलते समय जो दशा अयोध्यावासियों की हुई थी उससे सैकड़ों गुणा दुःखदायिनी दशा इस खाली रथ को देख कर होगी। हे नाथ! आप ही बतायें, मैं माता कौशल्या को कैसे अपना मुख दिखा सकूँगा? खाली रथ लेकर लौटना मेरे लिये बड़ा कठिन है। इसलिये हे कृपालु! मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप कृपा करके मुझे भी अपने साथ ले चलें।"

सुमन्त के इन स्नेहभरे दीन वचनों को सुनकर राम प्रेमपूर्वक बोले, "भाई सुमन्त! मैं तुम्हारे स्नेह को भलीभाँति समझता हूँ। परन्तु मैं तुम्हें जो अयोध्या लौट जाने के लिये कह रहा हूँ इसका एक कारण है। खाली रथ के साथ तुम्हारे अयोध्या लौट जाने पर माता कैकेयी को इस बात का विश्वास हो जायेगा कि महाराज ने वास्तव में अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर दी है और राम राज्य छोड़ कर वन को चला गया है। तुम्हारे न लौटने से उनके मन में शंका बनी रहेगी और वे सोचेंगीं कि हम लोग षड़यंत्र करके राज्य में ही कहीं छुप गये हैं। इसलिये मैं तुमसे अनुरोध करता हूँ कि तुम नगर को लौट जाओं। इससे जहाँ माता कैकेयी की शंका निर्मूल हो जायेगी, वहाँ महाराज पर और मुझ पर किसी प्रकार का कलंक नहीं लगेगा। चाहे झूठा ही कलंक हो, परन्तु उसकी प्रतिक्रिया बड़ी व्यापक होती है।" इस प्रकार समझा बुझाकर रामचन्द्र ने सुमन्त को विदा किया। सुमन्त अश्रुपूरित नेत्रों से रथ में बैठ कर अयोध्या के लिये चले।

सुमन्त के प्रस्थान करने के पश्चात् राम गुह से बोले, "निषादराज! अब हम वनवासी और तपस्वी हो गये हैं। इसलिये हमें तापस धर्म की मर्यादाओं का पालन करते हुये जटाएँ धारण करके निर्जन वनों में निवास करना चाहिये। तुम कृपा करके हमारे लिये बड़ का दूध मँगा दो।" राम की बात सुन कर गुह स्वयं जाकर बड़ का दूध ले आये जिससे राम, सीता और लक्ष्मण ने जटाएँ बनाईं। फिर नियमपूर्वक तपस्वी धर्म को स्वीकार करते हुये गंगा पार करने को उद्यत हुये। गुहराज द्वारा लाई गई नौका पर सवार होकर तीनों ने पतित-पावनी गंगा को पार किया। वहाँ राम ने गुह को हृदय से लगाकर उनके स्नेहपूर्ण आतिथ्य कि लिये उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। इसके बाद उन्होंने निषादराज को विदा किया।

 
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