दूसरे दिन प्रातःकाल गुरु वशिष्ठ ने आकर शोकाकुल भरत को धैर्य बंधाया और महाराज दशरथ की अन्त्येष्टि करने के लिये प्रेरित किया। हृदय में साहस जुटाकर राजगुरु की आज्ञा का पालन करते हुये भरत ने अपने स्वर्गीय पिता का प्रेतकर्म प्रारम्भ किया। शव को तेल कुण्ड से नकालकर अर्थी पर लिटाया गया। अर्थी पर पिता का शव देखकर भरत फिर चीत्कार कर उठे, "हा पिताजी! आप मुझ अनाथ को किसके आश्रय पर छोड़े जा रहे हैं? क्या आप भी मुझे दोषी जानकर मुझसे नहीं बोल रहे? आप स्वर्ग जा रहे हैं, भैया राम वन को गये, अब इस अयोध्या का राज्य कौन सँभालेगा?"
भरत को इस प्रकार विलाप करते देख महर्षि वशिष्ठ बोले, "तात! अब शोक छोड़कर महाराज के प्रेतकर्म में तत्पर होओ।" तब भरत ने अर्थी को रत्नों से सुसज्जित कर ऋत्विज पुरोहितं और आचार्यों के साथ बैठ कर अग्निहोत्र किया। भरत, शत्रुघ्न और वरिष्ठ मन्त्रियों ने अर्थी को कंधा दिया और रोती-बिलखती प्रजा शवयात्रा में पीछे-पीछे चली। आगे निर्धनों के लिये सोना, चाँदी, रत्न आदि लुटाये जा रहे थे। सरयू तट पर चन्दन, गुग्गुल आदि से चिता बनाकर शव को उस पर लिटाया गया। सभी रानियाँ बिलख-बिलख कर रोने लगीं। भरत ने चिता में अग्नि लगाई और सत्यपरायण महात्मा दशरथ का शरीर पंचभूत में मिल गया।
जब भरत तेरहवें दिन अपने पिता की प्रेत क्रिया से निवृत हुये तो मन्त्रियों ने उनसे निवेदन किया, "हे रघुकुल भूषण! रामचन्द्र जी तो चौदह वर्ष के लिये वन चले गये। इसलिये अब आप न्यायपूर्वक हमारे राजा हैं क्योंकि दिवंगत महाराज अपने जीते जी आपको राजा बना गये हैं। अतः आप राज्य का भार सँभालने की कृपा करें।" भरत ने उत्तर दिया, "पिता के स्थान पर ज्येष्ठ पुत्र राजा होता है। यही रघुकुल की रीति भी है। इसलिये इस सिंहासन पर धर्मात्मा राम का ही अधिकार है। मैं वन जाकर राम को लौटा लाउँगा और उनके स्थान पर चौदह वर्ष तक स्वयं वन में रहूँगा। अतएव आप तत्काल दलबल सहित वन को चलने की तैयारी करें ताकि सब मिलकर उन्हें वापस ले आयें।" भरत के वचन सुनकर सबमें एक नया उत्साह पैदा हो गया और उन्हें राम के लौटने की आशा होने लगी।
जब वन यात्रा की सब तैयारियाँ पूरी हो गईं तो भरत, शत्रुघ्न, तीनों माताएँ, मन्त्रीगण, दरबारी आदि चतुरंगिणी सेना के साथ वन की ओर चले। उत्साह से भरे प्रजाजन राम और भरत की जय-जयकार करते जाते थे। मार्ग में उन्होंने गंगा तट पर राजा गुह के नगर श्रंगवेरपुर के निकट अपना पड़ाव डाला। अयोध्या से आई विशाल सेना को देखकर गुह ने अपने सेनापतियों को बुलाकर कहा, "सेनापतियों! रामचन्द्र हमारे मित्र हैं। अपनी सेना को तुम सतर्क करके इधर उधर छिपा दो। पाँच सौ नावों में सौ-सौ अस्त्र शस्त्रधारी सैनिक तैयार रहें। यदि भरत राम के पास निष्कपट भाव से जाना चाहे तो जाने दो, अन्यथा सबको मार्ग में ही समाप्त कर दो।" इस प्रकार सेनापतियों को सावधान कर स्वागत की सामग्री ले गुहराज भरत के पास आकर बोले, "हे राघव! इस प्रदेश को आप अपना ही समझें। आप बिना सूचना के पधारे हैं, इसलिये मैं आपका यथोचित सत्कार नहीं कर पा रहा हूँ। इसके लिये आप मुझे क्षमा करें। आज की रात यहीं विश्राम करें और हमारा रूखा सूखा भोजन स्वीकार करें।"
भरत ने गुह के प्रेमभरे शब्द सुनकर कहा, "हे निषादराज! मैं भारद्वाज मुनि के आश्रम में जाना चाहता हूँ, जहाँ भैया राम गये हैं। यदि आप मुझे कुछ पथप्रदर्शक दे सकें तो आपकी बड़ी कृपा होगी।" भरत की बात सुनकर निषाद ने कहा, "प्रभो! आप चिन्ता न करें। मैं और मेरे सैनिक आपके साथ चलेंगे। परन्तु मैं यह जानना चाहता हूँ कि आप इतनी बड़ी सेना लेकर रामचन्द्र के पास क्यों जा रहे हैं? निषाद की शंका का अनुमान कर भरत बोले, "निषादराज! राम मेरे बड़े भाई और पिता के तुल्य हैं। मैं उन्हें वन से लौटाकर उनका सिंहासन उन्हें सौंपना चाहता हूँ। इसके लिये मेरी सब माताएँ और मन्त्री आदि भी मेरे साथ जा रहे हैं। भरत के वचन सुनकर गुह को संतोष हुआ। भरत आदि ने रात्रि को वहीं विश्राम किया। प्रातःकाल जब वे गंगा पार करने के लिये प्रस्तुत हुये तो गुहराज की आज्ञा से गंगा के किनारे पर सैंकड़ों नौकाएँ लगा दी गईं जिनमें बैठकर सब गंगा पार उतर गये।
सब लोग महामुनि भारद्वाज के आश्रम में पहुँचे। महामुनि ने उनका यथोचित सत्कार करने के पश्चात् भरत से वन में आगमन का कारण पूछा। भरत ने हाथ जोड़कर कहा, "महामुने! मैं महात्मा राम का दास हूँ। माता कैकेयी ने जो कुछ किया है मैं उसके सर्वथा विरुद्ध हूँ। इसलिये मैं भैया राम के पास जाकर उनसे क्षमा याचना करूँगा और अयोध्या लौटने की प्रार्थना करूँगा ताकि वे लौटकर अपना राज्य सँभाले।" भरत की बात सुनकर मुनि बोले, "भरत! तुम वास्तव में महान हो। मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हारा यश तीनों लोकों में फैले। आजकल राम सीता और लक्ष्मण के साथ चित्रकूट में निवास करते हैं। तुम कल प्रातः वहाँ चले जाना। आज की रात्रि यहीं विश्राम करो।" प्रातःकाल जब चित्रकूट जाने के लिये भरत मुनि भारद्वाज से अनुमति लेने पहुँचे तो उन्होंने भरत को समझाते हुये कहा, "भरत! तुम अपनी माता के साथ दोष दृष्टि न रखना, इसमें उनका कोई दोष नहीं है। कैकेयी द्वारा किये गये कार्य में परमात्मा की प्रेरणा है ताकि वन में दैत्य-दानवों का राम के हाथों विनाश हो सके।"
भरत अपनी माताओं एवं समस्त साथियों के साथ महर्षि से विदा लेकर चले और मन्दाकिनी के तट पर पहुँचे। वहाँ ठहरकर भरत ने मन्त्रियों से कहा, "ऐसा प्रतीत होता है कि भैया की कुटिया यहाँ कहीं निकट ही है। इससे आगे मैं सेना के साथ नहीं जाना चाहता। इससे यहाँ बसे हुये आश्रमवासियों की शान्ति और तपस्या में बाधा पड़ेगी। इसलिये तुम गुप्तचरों को भेजकर राम की कुटिया का पता लगवाओ।" मन्त्रियों की आज्ञा पाकर चतुर गुप्तचर इस कार्य के लिये चल पड़े।