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Author Topic: रामायण - अयोध्याकाण्ड - महर्षि अत्रि का आश्रम  (Read 2583 times)

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Offline JR

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भरत के चित्रकूट से प्रस्थान करने के पश्चात् रामचन्द्र लक्ष्मण से बोले, "भैया! माताओं के चले जाने से मेरा मन उदास और उद्विग्न हो गया है। उन सबकी स्मृति इस स्थान के साथ इस प्रकार जुड़ गई है कि मुझे बार-बार उनकी याद सताने लगी है। इसलिये मैं चाहता हूँ कि अब हम इस स्थान का परित्याग करके अन्यत्र जाकर निवास करें।" इस प्रकार सीता और लक्ष्मण से परामर्श करके उन्होंने चित्रकूट का परित्याग किया और घूमते हुये महर्षि अत्रि के आश्रम में जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने परमतपस्वी वृद्ध महर्षि को प्रणाम कर अपना परिचय दिया। अत्रि ऋषि ने उनका अपने पुत्रों की भाँति स्नेहपूर्वक स्वागत किया। उनका कुशलक्षेम पूछकर महर्षि अत्रि ने अपनी वृद्धा पत्नी अनुसूया को बताया कि मिथिलापति की राजकुमारी तथा अयोध्या की ज्येष्ठ पुत्रवधू जानकी तुम्हारे सम्मुख उपस्थित है। इनका यथोचित सत्कार करो।" ऋषि द्वारा इस प्रकार परिचय दिया जाता देख राम ने सीता से कहा, "सीते! माता के समान स्नेहमयी महाभागा अनुसूया देवी के चरण स्पर्श करो।"

पति की आज्ञा पाकर सीता ने अनुसूया के चरण स्पर्श किये और उनसे आशीर्वाद प्राप्त किया। तत्पश्चात् ऋषि-पत्नी बोलीं, "सीता! मैं तुम्हारे त्याग भाव को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हूँ। तुमने राजप्रासाद के सुख ऐश्वर्य का परित्याग कर अपने पति के साथ वन में रहते हुये नाना प्रकार के कष्टों को झेलने का जो निश्चय किया है, उससे तुमने तीनों लोकों में नारी के पतिव्रत धर्म की महिमा को उजागर कर दिया है। हे सुभगे! जो स्त्री अपने पति के गुण-अवगुणों का विचार किये बिना उसे ईश्वर के सामन सम्मान देती हई प्रत्येक दुःख-सुख में उसका अनुसरण करती है, स्वर्ग स्वयं उसके चरणों पर न्यौछावर हो जाता है। वास्तव में, पति कितना ही कुरूप, दुश्चरित्र, क्रोधी और निर्धन क्यों न हो, वह पत्नी के लिये सदैव श्रद्धेय है। उसके जैसा कोई दूसरा सम्बंधी अपना नहीं होता। पति की सच्ची सेवा ही स्वर्ग का राजमार्ग है। जो स्त्री अपने पति में दुर्गुण देखती है और उस पर अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिये उसके साथ नित्य कलह करती है तथा उसकी अवमानना और उसके आदेशों की अवहेलना करती है, वह इस लोक में अपयश की भागी होती है और मरने के पश्चात् नर्क को जाती है। तुम्हें ये सब बातें बताने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि तुम स्वयं सब शास्त्रों को जानने वाली, अपने पति की अनुगामिनी हो। तुमने अपने कर्तव्य पालन से तीनों लोकों में अपनी कीर्ति की धवल पताका फहरा दी है। परमात्मा करे तुम्हारी बुद्धि सदा इसी प्रकार निर्मल बनी रहे।"

देवी अनुसूया की ये उपदेशप्रद बातें सुनकर जानकी बोली, "हे आर्या! आपने मुझे जो उपदेश दिया है, वह निःसंदेह महत्वपूर्ण है। मैं जानती हूँ कि पति स्त्री का गुरु, देवता और सर्वस्व होता है। इसी प्रकार का उपदेश मुझे मेरी माता और सास ने दिया है। वह सब मुझे स्मरण है। आपकी बातें भी मैंने हृदयंगम कर ली हैं। आप विश्वास कीजिये, मैं कभी इस मार्ग से विचलित नहीं होउँगी। पति का अनुगमन ही मेरे जीवन का एकमात्र लक्ष्य है।"

सीता की बात सुनकर अनुसूया ने प्रसन्न होकर कहा, "पुत्री! मैं तुझसे बहुत प्रसन्न हूँ। जो तेरी इच्छा हो, वर माँग ले। मैं वनवासिनी होकर भी दैवी शक्ति से किसी भी मानव की मनोकामना पूर्ण करने में समर्थ हूँ।" यह सुनकर सीता बोलीं, "मातेश्वरी! मैं पूर्णतया सन्तुष्ट हूँ। इसलिये आपसे क्या माँगूँ। आपकी मुझ पर अतीव कृपा है, यही मेरे लिये यथेष्ठ है।" सीता के वचनों से प्रसन्न होकर अनुसूया ने कहा, "हे जानकी! तुम सदा सौभाग्वती रहो। मैं तुम्हें यह दिव्य माला देती हूँ, जिसके फूल कभी नहीं कुम्हलायेंगे, ये दिव्य वस्त्र न कभी मैले होंगे और न फटेंगे तथा यह सुगन्धित अंगराग कभी फीका नहीं पड़ेगा।" यह कहकर उन्होंने तीनों वस्तुएँ सीता को दकर उन्हें अपने सम्मुख ही धारण कराया। फिर उनके चरणों में सिर नवाकर सीता रामचन्द्र के पास गई और उन्हें वे सब उपहार दिखाये। सन्ध्या को सबने साथ बैठकर सन्ध्योपासना की। फिर अनुसूया सीता को चाँदनी रात्रि में वन की शोभा दिखाने के लिये ले गईं। रात्रि को आध्यात्मिक चर्चा के पश्चात् सबने मुनि के आश्रम में विश्राम किया।

प्रातःकाल जब राम आश्रम से विदा होने लगे तो अत्रि ऋषि उन्हें विदा करते हुये बोले, "हे राघव! इन वनों में भयंकर राक्षस तथा सर्प निवास करते हैं जो मनुष्यों को नाना प्रकार के कष्ट देते हैं। इनके कारण अनेक तपस्वियों को असमय ही काल का ग्रास बनना पड़ा है। मैं चाहता हूँ, तुम इनका विनाश करके तपस्वियों की रक्षा करो।" राम ने महर्षि की आज्ञा को शिरोधार्य कर उपद्रवी राक्षसों तथा मनुष्य का प्राणान्त करने वाले भयानक सर्पों को नष्ट करने का वचन देखर सीता तथा लक्ष्मण के साथ आगे के लिये प्रस्थान किया।

॥वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड समाप्त॥

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